अन्ना के आंदोलन के फ्लॉप होने का मतलब यह नहीं है कि आम लोगों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई गुस्सा नहीं है। दरअसल शुरू से ही अन्ना के साथ जो लोग बहुत तेजी से जुड़े वे राजधानी से लेकर दूर शहरों और कस्बों में उस संभ्रांत वर्ग का हिस्सा थे जिसकी अंतरात्मा ने पहले कभी किसी अनैतिक कार्य के खिलाफ विद्रोह नहीं किया। शब्द से लेकर आचरण तक बदलाव के नाम पर आडम्बर जिनकी फितरत रही उन्हें देखकर अन्ना के आंदोलन को संदिग्ध मान लेना आम आदमी के लिए शायद लाजमी था। भ्रष्टाचार उस व्याधि का प्रत्यक्ष रूप है जो वर्ण व्यवस्था जैसे गलत सिस्टम की वजह से इस देश में विकराल रूप में फूट पड़ी है। भ्रष्टाचार से लडऩा है तो अनैतिकता के उस स्रोत को हमेशा के लिए मिटा देने का साहस दिखाना होगा। अन्ना और उनके समर्थक इस मामले में अपने पत्ते खोलने को तैयार नहीं हुए। राजनीतिक आलोडऩ और सूचनाओं के विस्फोट के कारण जिसे जन कहते हैं वह वर्ग आज नासमझ नहीं रह गया। जन को मालूम है कि कल भी बहुत घोटाले होते थे तब सफेदपोशों के लिए भ्रष्टाचार गम्भीर समस्या नहीं थी। आज जब पंचायतीराज व स्थानीय निकायों में आरक्षण की मजबूरी से दलित, पिछड़े वर्ग को निचले स्तर पर सत्ता की कुंजी सौंपी जा रही है तो भ्रष्टाचार का विकेंद्रीकरण हो गया है और वह गरीब आदमी के साधन सम्पन्न होने का जरिया बनकर सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था की चूलें हिलाने का माध्यम बन गया है। गांव की बस्ती के बाहर पशुओं से भी गलीज जिंदगी जीने वाला रामदास वाल्मीकि प्रधान बनकर दो साल बाद ही पक्का मकान बनवा लेता है। चार पहिया वाहन खरीद लेता है और इलेक्ट्रॉनिक सामान सहित तमाम आधुनिक सज्जा के उपकरण इकट्ठे कर लेता है, यह बात धर्म के स्वयंभू रक्षकों को हजम नहीं हो सकती। इस कलियुगी व्यवस्था से लडऩे के लिए उनका स्वांग अन्ना के आंदोलन में उनकी शिरकत के रूप में सामने आया तो भ्रष्टाचार विरोधी संकल्प की पहचान ही बदल गई। आंदोलन को जन ने अवचेतन में ‘कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाने के रूप में देखा है, संभ्रान्त वर्ग का टैक्टिकल पैंतरा माना है और इसको आंदोलन से जुड़े कई पहलुओं ने पुष्ट किया है। मसलन यह वर्ग आज भी उस नई आर्थिक नीति का समर्थक है, जिसके मास्टरमाइंड हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह माने जाते हैं। भले ही कुछ बातों की वजह से आज वे मनमोहन सिंह को कोस रहे हों, लेकिन 1991 में तो वे उन्हें संकट के भंवर में डूब रहे देश को उबारने वाले मसीहा नजर आते थे। इस नई अर्थव्यवस्था में विकास दर का बड़ा महत्व है जो तब बढ़ती है जब पूंजी कई हाथों में हस्तांतरित होती रहे। इस लिहाज से देखें तो पहले जब खानदानी रईस होते थे, जिनके पास सारी सुख-सुविधाएं पहले से ही उपलब्ध होती थीं। नतीजतन उन्हें कितनी भी आमदनी हो जाए बाजार की उनसे बरक्कत नहीं हो पाती थी, क्योंकि वे खरीदने के नाम पर क्यों खर्च करते? आज भ्रष्टाचार की वजह से रातोंरात लखपति-करोड़पति यहां तक कि अरबपति बनने का सपना देखने वालों के अरमान साकार हो रहे हैं। एक सर्वहारा जब इतनी कमाई कर लेता है तो उसे अपना स्टेटस बढ़ाने के लिए हर बात में बाजार जाना पड़ता है। कभी आलीशान मकान बनवाने के लिए कभी अच्छा वाहन खरीदने के लिए। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में ही पूंजी के ज्यादा से ज्यादा हाथों में अंतरण की बाजार की कामना सिद्ध होती है और विकास दर बढ़ती है। अन्ना के समर्थकों को इस उपभोगवादी नई अर्थव्यवस्था के खिलाफ भी हथियार उठाना चाहिए था, लेकिन सामाजिक-आर्थिक हर मामले में यथास्थितिवाद का पोषक यह तबका इस तरह की कोई क्रांतिकारिता दिखाने को तैयार नहीं है तो उसकी विश्वसनीयता जन में कैसे स्थापित हो? लोग भ्रष्टाचार से बहुत त्रस्त हैं क्योंकि हमारे देश में विकास प्रक्रिया में खाये जाने वाले कमीशन का ही भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि यहां भ्रष्टाचार का जघन्य रूप मौलिक अधिकारों की समाप्ति की लोकतंत्र और मानवता विरोधी व्यवस्था के बतौर उजागर हुआ है, चूंकि मौलिक अधिकारों के संवैधानिक प्रावधानों के बाद इससे वंचित रहने का कष्ट जन बखूबी समझ चुका है। इस कारण उसका स्वाभाविक रूप से यह तकाजा है कि भेदभाव की नीति के तहत पद और सम्पत्ति पर बेवजह बहुसंख्यक समाज का अधिकार समाप्त करने वाली वर्ण व्यवस्था से इस अन्याय का श्रीगणेश हुआ था, इसलिए भ्रष्टाचार के विरोध में अपनी निष्ठा और प्रमाणिकता प्रदर्शित करने के लिए अन्ना के महारथी सबसे पहले वर्ण व्यवस्था के खिलाफ पूरी ताकत से हमलावर हों। उन्होंने ऐसा नहीं किया तो वे हश्र झेल रहे हैं, लेकिन यह उन लोगों के लिए सबक है जो सचमुच स्थितियों में बदलाव चाहते हैं। अगर उन्होंने जन की सोच को पढ़ लिया होगा तो उनका प्रस्थान बिंदु क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं।
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