पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने १९८३ में भारत पदयात्रा निकाली थी। उस समय मुख्य राजनीतिक पत्रिकाओं में समाजवादी विचारधारा के प्रतिबद्ध पत्रकार छाए हुए थे। उन्होंने इस यात्रा को काफी कवरेज दिया था। भारत के गांवों में शुद्ध पानी तक की व्यवस्था नहीं है। इस तरह शहरी भारत और ग्रामीण भारत के बीच बड़े अंतर को रेखांकित करने वाली और गांवों की नारकीय दशा को उभारने वाली उनकी बातों को बहुत बड़े क्रांतिकारी दर्शन के रूप में प्रचारित किया गया था। इसके पहले चौधरी चरण सिंह ने शहरों की तुलना में गांवों के लिए नाममात्र का बजट खर्च किए जाने की विसंगति को मुद्दा बनाते हुए एक नए राजनीतिक द्वंद्व को गरमाने का प्रयास किया था। गांव बनाम शहर का राजनीतिक मुद्दा काफी दिनों तक छाया रहा, लेकिन ७४ वें संविधान संशोधन विधेयक के बाद सेल्फ गवर्नेंस की नीति के तहत जब ग्राम पंचायतों को तमाम वित्तीय व कार्यकारी अधिकार मिलने लगे तो इस मुद्दे के आयाम तेजी से बदले। इसी बीच १९९५ में उत्तर प्रदेश में मायावती ने अम्बेडकर के नाम से मॉडल गांव बनाने की योजना शुरू की। हालांकि, इसके पहले भी गांधी ग्राम, लोहिया ग्राम और दीनदयाल उपाध्याय ग्राम जैसी मॉडल ग्राम योजनाएं पूर्ववर्ती सरकारें चला चुकी थीं, लेकिन मायावती की अम्बेडकर ग्रामसभा विकास योजना में कहीं ज्यादा गम्भीरता और कटिबद्धता रही। उन्होंने १९९५, १९९६ और २००२ में उन ग्रामों का चयन अम्बेडकर गांवों के रूप में किया, जिनमें अनुसूचित जाति की आबादी या तो शत-प्रतिशत थी या ७०-८० प्रतिशत। इस मानक के कारण छोटे-छोटे मजरे योजना में चयनित हो गए जिनमें सर्वांगीण विकास के लिए काफी पैसा खर्च किया गया। एक तरह से यह आदर्शवाद और भावुकता में बजट का दुरुपयोग था क्योंकि आजकल विकास की शुरुआत के पहले यह देखा जाता है कि अमुक जगह काम कराने का समग्रता में जिला, प्रदेश या देश को व्यवसायिक और आर्थिक लाभ क्या मिलेगा? रोजगार सृजन में सम्बंधित कार्य से कितनी प्रगति होगी। मायावती ने बदलते दौर की इस आहट को बाद में समझ लिया, जिसकी वजह से २००७ में सत्ता में आने के बाद उन्होंने हर जिले में पांच हजार से ऊपर की आबादी के गांवों का चयन अम्बेडकर ग्रामसभा विकास योजना में किया। इसके लिए उन्होंने अनुसूचित जाति के बाहुल्य का प्रतिबंध हटा दिया। वे गांव जिन्हें सरकार अपनी मजबूरियों की वजह से नगर का दर्जा देने में हिचकिचा रही थी, उन्हें वांछित रूप में सजाने-संवारने में अम्बेडकर ग्रामसभा विकास योजना का नया संस्करण काफी सार्थक रहा। हालांकि, परिवर्ती वर्षों में मायावती इसकी निरंतरता बनाए नहीं रख सकीं क्योंकि उनके पास फंड का टोटा हो गया था, लेकिन कोई यह न कहे कि उन्होंने बाबा साहब के नाम की योजना से रोलबैक किया है, इसको ध्यान में रख उन्होंने १९९५ और ९६ में चयनित गांवों को ही २०१० और २०११ में रिपीट करा दिया। इस नाते उक्त गांवों में केवल अवशेष कार्यों के लिए धन देना पड़ा। बावजूद इसके मायावती ने बडे़ गांवों को तवज्जो देने की अपनी नीति नहीं छोड़ी। पांच हजार से ऊपर आबादी के हर गांव में स्थायी पंचायत सचिवालय की व्यवस्था इसका उदाहरण है। माना जाता है कि अखिलेश मायावती की तुलना में ज्यादा नए जमाने के हैं और दुनिया के तमाम विकसित देशों में विकास के जो मानक और तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं वे उन्होंने भलीभांति आत्मसात कर रखे हैं, लेकिन लोहिया ग्राम विकास योजना जिसे अब जनेश्वर मिश्र ग्राम विकास योजना का नाम दे दिया गया है, उससे उनके विषय में यह भ्रम खत्म हो जाना चाहिए।
यह योजना देखकर लगता है कि गोमती में कितनी पानी बह चुका है। इसका कोई ज्ञान अखिलेश यादव को नहीं है। वे अपने जन्म के पहले के समाजवादी टोटकों को आधुनिक समय में लागू कर रहे हैं, जिनकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। आज तीन-चार सौ की आबादी का दूर बसा कोई गांव अगर अवस्थापना सुविधाओं की दृष्टि से मॉडल बनाने की कोशिश की जाए तो उसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठना आवश्यक है। आज गांव के विकास का मतलब खड़ंजा डलवाना, कुआ खुदवाना इत्यादि नहीं है। आज विकसित क्षेत्र में बिजली की लाइन पहुंचाना, पानी की लाइन पहुंचाना और सीसी बनवाना बुनियादी कामों में शुमार है। ऐसे में आपको विकास की रणनीति बदलनी पड़ेगी। किसी भावुक विचार के तहत द्वीपनुमा गांवों में दर्जन-दो दर्जन घरों के लिए बिजली, पानी की लाइनें बनाने में जितना खर्चा आएगा उससे तो बेहतर है कि पांच हजार से ज्यादा आबादी के समीपवर्ती जो गांव हों उनमें सरकार अपने खर्चे पर पचास-सौ घरों की कॉलोनी बनाकर छिटपुट बिखरे गांवों को वहां शिफ्ट करा दे। बात केवल अवस्थापना सुविधाओं के निर्माण की नहीं है बल्कि उनका रखरखाव होता रहे जिसके लिए गांव को बेहतर ढंग से प्रशासित करने का तंत्र हो। यह लोहिया उर्फ जनेश्वर ग्राम विकास योजना के तहत चयनित गांवों में व्यवहारिक तौर पर सम्भव नहीं है। बुद्ध ने कहा था कि संसार हर क्षण परिवर्तनशील है। अखिलेश को भी समझना चाहिए कि कल तक जो समाजवादी नारे परिवर्तन के संवाहक थे आज जबकि दुनिया बहुत अप्रत्याशित तरीके से बदल चुकी है, उनके प्रति मोहाविष्ट होना स्वयं को विवेकहीन करार दिए जाने के जोखिम में घेर लेने की तरह होगा। यह स्थिति साठ और सत्तर के दशक में अतिप्रिय लगने वाले बेरोजगारी भत्ते के नारे के पुनर्स्मरण को लेकर भी आगाह करने वाली है और लोहिया उर्फ जनेश्वर ग्राम विकास योजना को लेकर भी।
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