(स्वाधीनता दिवस अब दूर नहीं है। हर वर्ष हम इसको धूमधाम से मनाते हैं परंतु देश में कई तरह की समस्याओं के मौजूद रहते आजादी पर भी कई लोग सवाल उठाते रहे हैं। इन्हीं में से एक है नक्सलवाद। मेरे परम मित्र और विद्वान डॉ. सतीश चंद्र शर्मा ने नक्सलवाद और उसके समाधान को लेकर विस्तृत शोध किया है। उनके विचारों को उन्हीं की जुबानी इस लेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं)
सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद है दिल में रखकर हाथ कहिये, देश क्या आजाद है। कोठियों से मुल्क की, मैयार को मत आंकिये असली हिन्दुस्तान तो, फुटपाथ पर आबाद है।
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इंडिया दैट इज भारत, में दो प्रकार के इंडिया हैं। एक शाइनिंग इंडिया और दूसरी है सफरिंग इंडिया। सफरिंग इंडिया की भी सबसे निम्न सीमा अर्थात 25 प्रतिशत जिसका मतलब है 30 करोड़ की आबादी की दैनिक आय 20 रुपये से भी कम है। इस आबादी का गुजारा कैसे होता है, कभी किसी ने इस ओर सोचना भी मुनासिब नहीं समझा है और यहीं से शुरू होती है नक्सली गाथा। रोटी मिलने की आस में हर रात भूखा सोने वाला आदमी जब यह सच जान जाता है कि – मेरे देश का समाजवाद मालगोदाम में लटकती हुई उन बाल्टियों की तह है जिस पर लिखा होता है आग और जिसमें भरा होता है बालू और पानी। तब आम आदमी भूख की लड़ाई लडऩे को तैयार होता है और अपने इस हक को प्राप्त करने के लिये दया की भीख मांगने से अच्छा अपनी ताकत से उसे छीन लेना ज्यादा पसंद करता है। कवि धूमिल ने लिखा है एक ही संविधान के नीचे भूख से रिरियाती हुई फैली हथेली का नाम, दया है और भूख से तनी हुई मुट्ठी का नाम ‘नक्सलवाड़ी है।
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यह एक आदमी की त्रादसी नहीं है बल्कि सारे आम आदमी सारे समाज और सारे देश की त्रासदी है। यह कथा वहां से शुरू होती है जब तमाम जद्दोजहद के बाद वर्षों की लड़ाइयां और संघर्ष के बाद सैकड़ों, हजारों जांबाज देशभक्तों के बलिदान के बाद जब हमारा देश आजाद हुआ। उस आजादी के बाद हमें जो खुशी हुई हमने जो सपने देखे, हमारी जो उम्मीदें थी कि अब कोई बच्चा भूखा रहकर स्कूल नहीं जायेगा। अब कोई बारिश में नहीं टपकेगी। अब कोई आदमी कपड़ों की लाचारी में नंगा नहीं घूमेगा। अब कोई दवा के अभाव में घुट-घुट कर नहीं मरेगा। अब कोई किसी को रोटी नहीं छीनेगा। अब कोई किसी को नंगा नहीं करेगा। अब यह जमीन अपनी है। आसमान अपना है। मगर आजादी के बाद वो सारे सपने, वो सारी उम्मीदें, वो सारे वायदे खोखले लगने लगे। देश आम आदमी का है, आम आदमी के लिये है का नारा छलावा लगने लगा। जनता की उम्मीदों के साथ धोखा हुआ। अंग्रेजों के जाने के बाद चंद अंग्रजीदां लोग स्वतंत्र भारत में नई गुलामी के बीज बोने लगे। आम आदमी जनतंत्र को बहुलतंत्र में परिणत होते निस्सहाय देखता रहा। गरीबों असहायों का यह देश, चंद पूंजीपतियों, सियासतदारों, भ्रष्टï अधिकारियों के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया। उनकी कार्यशैली और नीतियों में जनता की भूख और उसके समाधान की कोई योजना नहीं थी। तमाम पंचवर्षीय योजनायें चल रही है मगर यह तक क्यों नहीं पहुंच रही हैं।
‘यहां तक आते-आते सूख जाती है, कई नदियां हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा
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संसद में इन सारे सवालों का जवाब देने वाला कोई नहीं है। दरअसल अपने यहां की संसद तेल की ऐसी धानी है, जिसमें आधा तेल और आधा पानी है, नेताओं में बहसें होती हैं, शब्दों के जंगल में एक-दूसरे को काटते हैं, भाषा की खाई को जुबान से कम, जूतों से ज्यादा पाटते हैं। जनता…एक भेड़ है जो दूसरों की ठंड के लिये अपनी पीठ पर, ऊन की फसल ढो रही है। इसी कारण यहां गोदामों में अनाज भरे पड़े हैं और लोग भूखों मर रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें गरीबों को मुफ्त नहीं बांट रही है। देश के सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को भी बड़े शर्मनाक ढंग से यह सियासत के दरकिनार कर देते हैं। समाज और सियासतदारों की ऐसी अमानवीयता पर हमारा देश रो उठता है और कहता है कि इस दलदल से हमें बाहर निकालो, तुम चाहे जिसे चुनो, मगर इस व्यवस्था को बदलो।
‘इस तालाब का पानी बदल दो
कमल के फूल कुम्हलाने लगे है।
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वह कहता है कि आज मैं तुम्हें वह सत्य बतलाता हूं, जिसके आगे हर सच्चाई छोटी है, इस दुनियां में, भूखे आदमी का सबसे बड़ा तर्क रोटी है और यह रोटी नक्सलवादियों का सबसे बड़ा तर्क है। जिसकी जिम्मेदार है भूख और भूख की जिम्मेदार है सियासत की गलत नीतियां। अपनी इस रोटी का पाने के लिये गरीब आदमी अब किसी के आगे हाथ फैलाने को तैयार नहीं, बल्कि अपने हिस्से को रोटी छीन लेना चाहता है। नक्लसवाद की आग का धुआं यहां उठना शुरू होता है।
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ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य एवं समर्थन : ब्रिटिश कालीन भारत में भी शोषण के खिलाफ आदिवासी विद्रोह करते रहे हैं जिनमें प्रसिद्ध विद्रोह है गंगा नारायण हंगामा 1832, भूमिज कोल विद्रोह 1832, सन्थाल आंदोलन 1857-58, काचा नागा विद्रोह 1880, सरदार लड़ाई विद्रोह 1885, वीरसा मुण्डा विद्रोह 1895-1900, मुण्डा समुदाय ने 20 वर्षीय इस युवा को भगवान माना। भारत सरकार ने भी इस वीर युवा को सम्मान देते हुये रांची में वीरसा मुण्डा विश्वविद्यालय की स्थापना की। आजाद भारत में भी पंडित जवाहर लाल नेहरू के काल में प्रवीण सिंह भंजदेव के नेतृत्व में बस्तर आंदोलन तो अभी हाल की बात है। सन् 1948-51 में तेलंगाना का किसान आंदोलन जिसमें करीब 4000 किसान मारे गये थे, अपनी सुप्तावस्था के बाद पुन: एक बार फिर 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिला स्थित ग्राम नक्ललवाड़ी से साम्यवादी आंदोलन के रूप में प्रारंभ होता है……
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