(मित्रो, नक्सलवाद की समस्या और उसके समाधान को लेकर डॉ. सतीश चंद्र शर्मा के शोध की पहली कड़ी कल मैंने दी थी। आज उसके आगे का भाग प्रस्तुत कर रहा हूं। इसमें नक्सलवाद की समस्या के कारणों के साथ ही उसके समाधान हेतु सुझाव भी प्रस्तुत हैं।)
…..जो आज 14 राज्यों के 2500 से अधिक थानों में फैल चुका है अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि भारत के 626 जिलों में से 231 जिले इस आंदोलन की गिरफ्त में हैं। अपनी रोटी के लिये उठा हुआ हाथ, आज लगभग 200000 सशस्त्र लड़ाकों तथा लाखों समर्थकों के साथ खड़ा है। खास बात यह है कि इसे भारत सहित दुनियां के तमाम बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त है। क्रांतिदूत चेग्बेरा एक डाक्टर थे। क्यूबा के फिदेल कास्त्री के पिता देश के अत्यंत सभ्रांत व्यक्ति थे। भारत में भी नक्सलवाद के जनक चारू मजूमदार जमींदार परिवार के थे। वर्तमान में गिरफ्तार कोवाड़ घंड़ी दून स्कूल शिक्षित एवं लंदन से चार्टडे एकाउंटेंसी में प्रशिक्षित हैं। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त समाजसेवी एवं बाल चिकित्सक डा. विनायक सेन जिन्हें धारा 124-ए के अंतर्गत राजद्रोह का दोषी करार दिया है। जिसके तहत सरकार के खिलाफ घृणा फैलाना अवमानना करना और असंतोष पैदा करना राजद्रोह है। याद रखिये ब्रिटिश भारत की सन 1879 की इसी धारा के तहत अंग्रेजों ने लंबे समय तक बाल गंगाधर तिलक को कैद रखा था।
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प्रसिद्ध वकील प्रशांत भूषण, राम जेठमालनी, उच्चतम न्यायालय के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस अहमदी, जस्टिस बीएन खरे, प्रसिद्ध समाज विज्ञानी शिव विश्वनाथन नोवेल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन जैसी शख्सियतों ने डा. विनायक सेन को विश्व नागरिक का दर्जा उनके संघर्ष को सराहा है। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में इस मुकदमे की पैरवी देखने के लिये यूएन एवं यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि मंडल को भारत सरकार एवं न्यायालय ने विशेष अनुमति प्रदान की थी।
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— क्षमा करें मैंने आपको कामरेड कहा, बड़ा खतरनाक शब्द है ये। साक्ष्य न मिलने की हताशा में पुलिस ने डा. सेन के घर से बरामद माओवादियों की चिट्ठी में उन्हें कामरेड संबोधित किये जाने पर कहा कि – कामरेड उसी को कहा जाता है जो माओवादी हो। कभी गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने कबीर की पंक्ति – निसिदिन खेलत रही सखियन संगन का अनुवाद किया था – —- हमें इंतजार है कि कामरेड शब्द के इस्तेमाल पर गुुरुदेव पर कब मुकदमा चलेगा। प्रसन्नता की बात है कि उच्चतम न्यायालय ने विनायक सेन को जमानत दी और कहा कि देशद्रोह कानून की समीक्षा की जानी चाहिये, यह कानून पुराना हो चुका है। आदिवासियों के इस संघर्ष में भारत की विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं में कार्यरत जन नाट्य मंच, जन संस्कृति मंच, भारतीय जन नाट्य संघ, जनवादी लेखक संघ प्रगतिशील लेखक संघ से संंबंधित तमाम रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, कवि लेखक, साहित्यकार, तमाम फिल्मी हस्तियां अपने लेखन एवं सिनेमा द्वारा इस संघर्ष को समर्थन देती रही हैं। मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, धूमिल, भोजपुरी, लोक कवि, गोरख पांडेय, साहित्य, विभिन्न, साहित्यकार एवं तमाम समाजसेवियों ने नक्सलवाद को समर्थन दिया है। बंगाल की ख्याति प्राप्त साहित्यकार, महाश्वेता देवी, पंजाबी कवि, स्व. पाश सहित भारत की प्रत्येक भाषा में नक्सली साहित्य ने अपनी गहरी पैठ बनायी है।
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जो लोग माओवाद के वसूली तंत्र का सालाना कारोबार कुछ हजार करोड़ का बताते हैं वे भूल जाते हैं कि इसी देश में सिर्फ 45 मिनट में 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला होता है जिसकी कीमत अलग-अलग एजेंसियां 22000 करोड़ से 1.76 लाख करोड़ तक बताती हैं, जो बताते हैं कि माओवादियों में अपराधी तत्वों की घुसपैठ है। वे भूल जाते हैं कि इस देेश की संसद में सौ से ज्यादा ऐसे लोग बैठे हुये हैं जिनके कुर्ते पर किसी न किसी संगीन आरोप के दाग हैं। कारपोरेट घरानों का सरकार चलाने में कितना हस्तक्षेप है, राडिय़ा टेप प्रकरण से इसका भी खुलासा हो चुका है। लोकतंत्र को दरअसल असली खतरा इन्हीं लोगों से है, माओवादियों से नहीं या कम से कम उन गरीबों से नहीं, जिन्हें यह व्यवस्था माओवादी बताकर पकड़ती, पीटती और कभी-कभी मार डालती है। लोकतांत्रिक सरकार और मानवाधिकार में विश्वास और भरोसा किसी भी प्रकार की हिंसा को गलत मानता है। माओवादियों की हिंसा को भी क्यों इससे समाधान का कोई रास्ता नहीं खुलता। लेकिन इस प्रकार माओवादी हिंसा के मुकाबले राज्य की विराट और सूक्ष्म हिंसा कहीं ज्यादा डरावनी है। इस हिंसा के बहुत सारे चेहरे हैं- घनघोर उपेक्षा और आपराधिक छल से लेकर पुलिस दमन तक के। इस हिंसा का चरित्र एक है- वह मूलत: जन विरोधी और गरीब विरोधी है। यह गरीब किसी भी तरह उसके सामने आये, वह पिटता ही है। वह कानून के सहारे भोपाल की लड़ाई लड़ता है तो छला जाता है। वह दंतेबाड़ा में बंदूक उठाता है तो मारा जाता है और दिल्ली में बैठा कोई आदमी अगर उसके हक में सवाल उठाता है तो उसे फेलो ट्रेवलर करार दिया जाता है। क्या इसलिये कि कोई इस व्यवस्था पर सवाल न उठाये।
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समस्या का निवारण : नक्सल विद्रोही मुख्यत: आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में ही ताकतवर बनकर उभरे हैं। भारत का नक्शा देखें तो पता चलेगा कि जो जिले वन संपदा के लिये जाने जाते हैं। जहां हमारी प्यास बुझाने वाली नदियों और धाराओं का आदि स्रोत है। जहां लौहअयस्क, कोयला, बाक्साइट की खरबों डालर की संपदा जमीन में दबी पड़ी है। ये तीनों संपदायें जिन इलाकों में एक साथ अस्तित्व में हैं इसी इलाके में देश के सबसे गरीब लोग रहते हैं। ये वही जिले हैं जहां नक्सलवादी घूमते हैं। इन इलाकों के लोग अपनी जीविका हेतु इसी जल, जंगल, जमीन पर निर्भर हैं। वे जानते हैं कि एक बार ये संसाधन चले गये तो उनके जीवित रहने का आधार ही चला जायेगा। यही नक्सल समस्या का आदि स्रोत है। अब
आप बतायें क्या फर्क है? – खाड़ी के तेल पर नजर गड़ाये अमेरिका और ब्रिटेन के ईराक पर हमले और आदिवासियों के असंतोष को दबाने हेतु जल, जंगल, जमीन पर कब्जे के लिये माओवाद के नाम पर सैन्य, अद्र्धसैन्य बलों के इस्तेमाल में। बस्तर क्षेत्र में सलवा जुडुम के नाम पर 644 से अधिक गांवों को नेस्तनाबूद कर लाखों लोगों को उनके घरों से बेघर किया गया है। इन खनिज संपदाओं पर दुनिया के सबसे बड़े खनन निगम, कारपोरेट घराने अपनी आंखें लगाये हैं।
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उड़ीसा के नियमगिरि में बाक्साइट का खनन करने वाली मल्टीनेशनल बेदांता से हमारे सियासतदारों के रिश्तों का क्या आपको पता है? हमें मांग करनी चाहिये कि इन इलाकों की परियोजनाओं के समझौते सार्वजनिक किये जायें। कारपोरट खनन व प्राकृतिक संसाधनों के निजीकरण पर तत्काल रोक लगायी जाये। विकास के नाम पर पेड़ों का काटा जाना बेहद चिंताजनक है। अकेले बंगलूरू शहर में पिछले कुछ वर्र्षों के दौरान विकास के लिये 49000 पेड़ों को काट डाला गया। पुणे के खेद और मावाल तालुका में संरक्षित वन को बर्बाद कर दिया गया। आंध्रालेक विंड पावर प्रोजेक्ट ने जिसे ईंडो जर्मन इंटरप्राइजेज इनरकोन इंडिया द्वारा प्रमोट किया जा रहा है 13 मीटर चौड़ी 20 किमी. लंबी सड़क बनाने के लिये तीन लाख से ज्यादा पेड़ों को काट दिया गया जब कि अनुमति केवल 26000 पेड़ों को काटने की मिली थी। इस संदर्भ में पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन गौर करने लायक है – सही मायने में देश की आर्थिक विकास दर नौ फीसदी नहीं बल्कि 5.5 फीसदी से लेकर छह फीसदी के बीच है। उनका तर्क है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण के नुकसान की गणना की जाये तो आर्थिक विकास के आंकड़े इतने ही निकलेंगे। अगर सरकार वास्तव में आदिवासियों और जंगलवासियों तक पहुंचना चाहती है तो वह अपने बनाये वनाधिकार कानून- 2006 और लोगों के स्व-शासन और संपदा स्रोत पर अधिकारों का सम्मान क्यों नहीं करती? देश भर का आदिवासी समुदाय जिन बातों के लिये प्रतिरोध संघर्ष में उतरता जा रहा है वे हैं- 1. वन-अधिकार कानून-2006 के समस्त प्राविधानों और इसके अंतर्गत ग्राम सभा के अधिकारों को संपूर्ण रूप से लागू करना। 2. वन-अधिकार कानून- 2006 के अंतर्गत लोगों के अपने वन संपदा स्रोतों पर अधिकार और नियंत्रण को स्वीकार करना। 3. संयुक्त वन प्रबंधन और इसके अंतर्गत बनाये गये परिसंघों को जो वन विभाग के लिये लूट के और घपलेबाजी का साधन हैं, समाप्त किये जायें। 4. वन क्षेत्र की तमाम परियोजनाओं- विकास, औद्योगिक, वानिकी आदि को समुदाय और उनके द्वारा तैयार की गयी योजना के अनुसार ही लागू किया जाये। 5. सलवा-जुडुम समाप्त कर, पुलिसिया दमन पर रोक लगायी जाये। उच्चतम न्यायालय ने सलवा-जुडुम को समाप्त करने का आदेश पारित किया है।
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अंत में दो प्रश्न- एक आदमी रोटी बेलता है, दूसरा आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है न खाता है वह सिर्फ रोटी से खेलता है, यह तीसरा आदमी कौन है? बहुत खतरनाक है यह आदमी। दूसरा प्रश्न है- फटा सुथन्न पहने, हरिचरना जिनके गुण गाता है, जन, गण, मन, अधिनायक में कौन भारत भाग्य विधाता है? यह भारत भाग्य विधाता कौन है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर नक्सल समस्या सहित भारत की तमाम समस्याओं का समाधान है। अन्यथा की स्थिति में- तन पर लंगोटी नहीं, पेट में दाना नहीं, हमारे पास है ही क्या, खोने को कुछ भी नहीं, पाने को सारी दुनिया है। इसीलिये ये मुट्ठी तनी है, तनी रहेगी। इंकलाब होने तक।
सबसे खतरनाक होता है, मुर्दा शांति से भर जाना न होना तड़प का, सब सहन कर जाना सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मन जाना।
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