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कुशवाहा (काछी) को जेल, शुक्ला को बेल

मुक्त विचार
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मेरे ब्लॉग का यह शीर्षक हो सकता है कि कुछ लोगों को फूहड़ लगे लेकिन मैंने मजबूरी में इसकी टेक का सहारा लिया है क्योंकि मैं जहां चोट करना चाहता हूं अगर मैं भाषा के शील के चक्कर में पड़ा तो मेरे भावों का पूरी तरह संप्रेषण नहीं हो पायेगा।
एनआरएचएम घोटाले के कई संदर्भ हैं एक संदर्भ तो यह है कि मुलायम सिंह की पार्टी का सत्ता में होना सतही तौर पर यह संदेश देता है कि प्रदेश में बैकवर्ड समुदाय की वर्ग सत्ता कायम हो चुकी है लेकिन यह मानने में बड़ी भूलभुलैया नजर आती है अगर बैकवर्ड सत्ता में प्रभावशाली हैं तो बाबू सिंह कुशवाहा प्रदीप शुक्ला से पहले जेल में हैं उन्हें बेल दिलाने के लिए अखिलेश सरकार ने कानून को तोडऩे मरोडऩे की वैसी कोशिश क्यों नहीं की जैसी प्रदीप शुक्ला की जमानत के लिए तीन महीने तक उनके खिलाफ सीबीआई की चार्जशीट दायर करने की फाइल दबाये रखकर की गई। कुशवाहा उस महान जाति के हिस्सा हैं जिसमें सारी दुनिया के लिए वंदनीय शाक्य मुनि तथागत गौतम बुद्ध पैदा हुए थे। अगर अपराध करने की वजह से बाबू सिंह कुशवाहा रहम के अधिकारी नहीं माने गये तो यह बात जायज तो है लेकिन इसे प्रदीप शुक्ला पर भी लागू किया जाता इंसाफ के तराजू के दोनों पलड़े तभी बराबर कहे जा सकते थे।
बुद्ध के काल से लेकर आज तक समता के मूल्यों को भारतीय समाज में स्थापित करने की कोशिशें उत्कर्ष तक पहुंचने के बाद स्खलित हो जाने के लिये अभिशप्त रही हैं और आज का युग भी उसका अपवाद नहीं है। इसी कारण समाजवादी पार्टी की दलित शोषित समाज के लिये प्रतिबद्धता में अब पहले जैसी दृढ़ता नहीं रह गयी। अगर और बेबाकी से कहा जाये तो अब मुलायम सिंह और उनका कुनबा इस मामले में वैचारिक साहस दिखाने की बजाय समझौतावादी मानसिकता के कारण यथास्थितिवाद के प्रभाव में आ चुका है और विचलन उसकी नियति बन चुकी है। इस पूरे एपिसोड का अलग पहलू यह है कि नेता बेचारा उस पर आरोप चाहे जितने लगें लेकिन वह तो फंस जाता है पर आईएएस अधिकारी की बात आती है तो कानून बौना हो ही जाता है। हाल ही में सेवानिवृत्त थल सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह का ही उदाहरण देख लें। उनकी जन्मतिथि के विवाद को नजरअंदाज किया जा सकता था और यह सूझबूझ भी होती क्योंकि जिस तरह सरकार ने उनके स्टैंड को धराशायी करने के लिये कटिबद्धता दिखायी उसमें सेना के तेवर बगावती हो जाने का जोखिम तक निहित था जो देश के लिये बेहद अहितकर होता पर वीके सिंह के खिलाफ सरकार यानी आईएएस पड़ गये जिनके लिये अपना अहंकार देश से ऊपर है। वहीं उत्तर प्रदेश के एक आईएएस अधिकारी भी अपनी जन्मतिथि को लेकर विवादों के घेरे में हैं लेकिन उन्हें सरकार यानी आईएएस अधिकारी पूरी ताकत के साथ संरक्षण दिये हुये हैं।
बाबू सिंह कुशवाहा एनआरएचएम में इतना बड़ा घोटाला कर ही नहीं सकते थे अगर प्रदीप शुक्ला यानी आईएएस की दम उनके साथ नहीं होती। घोटालों का आकार बढ़ाने में आईएएस अधिकारी का सबसे बड़ा योगदान है। कोई जमाना था जब मुलायम सिंह आईएएस से ज्यादा आईपीएस को तरजीह देते थे लेकिन अपनी पिछली सरकार में उन्होंने यह रुख बदल दिया। वजह यह थी कि आईपीएस के पास अरबों, खरबों के फंड नहीं होते जबकि आईएएस का साथ मिल जाये तो सरकार के सारे फंड जेब में लाये जा सकते हैं। मायावती भी पहले के कार्यकाल में आईएएस अधिकारियों के प्रति जितनी सख्त रहीं वैसे तेवर उनके 2007 से 2011 के कार्यकाल में नहीं रह पाये बल्कि इस कार्यकाल में एक तरह से वे आईएएस अधिकारियों पर निर्भर हो गयीं। एक के बाद एक उदाहरण मिलते हैं जिनसे यह साबित होता है कि कानून का राज और लोकतंत्र जैसी व्यवस्था में भी एक संस्थान सर्वशक्तिमान बना हुआ है और उसका नाम है आईएएस।
जनता के सामने बार-बार इसके उदाहरण आ रहे हैं फिर भी आईएएस सेवा को भंग करने की मांग के लिये वह कटिबद्ध नहीं हो पा रही। यह लोगों की बहुत बड़ी कमजोरी है। जहां तक व्यक्तिगत रूप से समाजवादी पार्टी के नेताओं का सवाल है प्रदीप शुक्ला पिछले कार्यकाल में मायावती सरकार के खास रहे हों लेकिन इसके पहले वे और उनकी पत्नी अनुराधा शुक्ला समाजवादी पार्टी की भी सबसे ज्यादा विश्वासपात्र थीं और 2003 से 2007 के समाजवादी पार्टी के सत्ता काल में भी दोनों ने जमकर मलाई काटी थी। फिर भी मायावती को उन्हें अपने विश्वासपात्र अधिकारियों की टीम में शामिल करने में गुरेज नहीं हुआ। यह आईएएस अधिकारियों की महिमा का एक उदाहरण है और अकेले प्रदीप शुक्ला नहीं कई आईएएस अधिकारी हैं जो एक-दूसरे से घोर कटुता रखने वाले नेताओं के बीच सत्ता की अदला बदली के बावजूद गर्दिश में नहीं आते। यह सदाबहार आईएएस अधिकारी प्रणाम करने योग्य हैं। पता नहीं कब तक यह लोग जनता की छाती पर मूंग दलते रहेंगे। वैसे भी समाजवादी पार्टी से ऐसे ही कारनामे दिखाने की उम्मीद की जाती है।

चुनाव के दिनों में अखिलेश को सुनियोजित ढंग से इस रूप में पेश किया गया जैसे वे पार्टी के पुराने गलत तत्वों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने के ढर्रे के बिल्कुल भी पक्ष में न हों और पार्टी में नैतिक पुनरुत्थान की कारगर मुहिम चलाने की मंशा रखते हों लेकिन हकीकत यह है कि कोई अपनी आरिजनल फितरत नहीं बदलता समाजवादी पार्टी क्यों बदले? अभी तो बेहयाई और धृष्टïता का एक नमूना सामने लाया गया है आगे-आगे देखो होता है क्या।

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