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अकर्मण्य मुख्यमंत्री की छवि से पीछा छुड़ायें अखिलेश

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल में राजस्व आय बढ़ाने के लिये अपने अधिकारियों के साथ बैठक की है। प्रदेश की वित्तीय हालत पिछले कुछ वर्षों में काफी खस्ता हो चुकी है। अखिलेश यादव ने जब शपथ ली थी उस समय प्रदेश का खजाना खाली था। अपने घोषणा पत्र को क्रियान्वित करने के लिये सार्थक कदम उठाने की लाचारी इसी वजह से उनके सामने रही। इस बीच केंद्र ने उन्हें सहायता के मामले में मुंहमांगी से भी अधिक मुराद दी है जिससे कुछ काम चल निकला है लेकिन दूरगामी दृष्टिकोण से वे एक सफल मुख्यमंत्री के तौर पर तब तक अपने को स्थापित नहीं कर सकते जब तक कि खुद राज्य के स्रोतों को मजबूत करने की योग्यता और क्षमता न दिखायें।
समस्या यह है कि राजस्व के जो स्रोत हैं उन्हीं की चोरी से नेताओं की दुकानदारी चल रही है। उदाहरण के तौर पर खनन के क्षेत्र में सपा नेताओं ने घुसपैठ बना ली है जो एक ही दिन में करोड़ों रुपये कमा रहे हैं लेकिन उसके अनुपात में सरकारी खजाने में नाम मात्र का धन जमा हो पा रहा है। वाणिज्य कर व अन्य करों के मामले में भी यही स्थिति है। ले-देकर आम लोग जो टैक्स चोरी नहीं कर पाते उन्हीं पर पूरा बोझा लाद कर सरकार अपना कोटा पूरा करना चाहती है। राज्य सरकार ने अपनी आमदनी के लिये सबसे बड़े जरिये के रूप में निबंधन शुल्क को तलाश रखा है।
इस मामले में अंधेरनगरी चौपट राजा और टका सेर भाजी टका सेर खाजा की कहावत चरितार्थ की जा रही है। एक आदमी जो शहर में नौ सौ वर्ग फीट का दो कमरे का मकान बनवाना चाहे उसे भी उतना ही स्टांप शुल्क देना पड़ेगा जितना जमीन का कारोबार कर रहे माफियाओं को। आज अगर सर्वे हो जाये तो मालूम होगा कि जिलों में रजिस्ट्री विभाग की आमदनी इसलिये फलफूल रही है कि किसान और खुद के रहने के लिये बने घरों को आम आदमी को बेचना पड़ रहा है जबकि सारी जमीन जायदाद माफियाओं के हाथ में केंद्रित होती जा रही है। बहुत पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मशविरा सरकार को दिया था कि शहरी भूमि आयोग बनाया जाये और जिनकी तमाम जमीन लंबे समय से खाली पड़ी हो उनसे टैक्स वसूला जाये। यह एक उपयुक्त कदम था। इससे रियल स्टेट के तथाकथित कारोबारी और प्लाटों के जरूरतमंद खरीददारों के बीच अंतर स्थापित किया जा सकता था। सरकार को इसी तरीके से आय बढ़ाना चाहिये और ऐसे व्यक्ति जिनके पास पहले से किसी शहर में कोई मकान न हो उन्हें नौ सौ वर्गमीटर तक के प्लाट की खरीद में स्टांप शुल्क से पूरी तरह छूट दी जानी चाहिये। यह इंसाफ का तकाजा है।
अगर अखिलेश सरकार सचमुच साफ सुथरा काम चाहती है तो उसे सुनिश्चित करना होगा कि कम से कम उनकी पार्टी के लोग तो सत्ता का दुरुपयोग करके करापवंचन की गतिविधियों में शामिल न हों। अगर वे इसे करने में कामयाब हो जायें तो उनके खजाने में अपेक्षित आवक भी बढ़ सकती है और आम जनता को तंग करने वाले करारोपण से भी वे अपने को बचा सकते हैं। पेट्रोल पर राज्य के वैट में कमी जैसे अपेक्षित कदम उठाने की सहूलियत भी उनको मिल सकती है। हालांकि अखिलेश ऐसा कर पायेंगे अभी तक के उनके रिकार्ड को देखते हुये यह कल्पना करना असंभव लग रहा है। उन्होंने चुनाव के दिनों में डीपी यादव को पार्टी में शामिल न होने देने जैसे करतब दिखाकर ऐसा प्रस्तुत किया था जैसे वे पार्टी की पुरानी रीति नीति को बदल देंगे पर शपथ होने के बाद चार माह तक उन्होंने पूरी तरह अकर्मण्यता दिखायी। किसी भी क्षेत्र में वे वैकल्पिक व्यवस्था का उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सके। यहां तक कि उनकी सरकार के सौ दिन पूरे होने पर उनके पिताश्री मुलायम सिंह यादव ने उन्हें सौ में से सौ अंक देने का ऐलान किया था। वे भी सार्वजनिक रूप से उनकी सरकार की अक्षमता का संकेत देने को मजबूर हो गये। इसके बाद लगता है कि सरकार की बागडोर उनके पिताश्री ने उनसे वापस ले ली है।
हाल में जो तबादले हुये हैं उनसे ऐसा नहीं लगता कि अखिलेश यादव का कोई दखल उनमें रहा है। कृपा पात्र होने के आधार पर वे लोग अच्छी कुर्सियां हासिल करने में सफल हुये हैं जिनका रिकार्ड भ्रष्टïतम है। जिलों में सत्तारूढ़ पार्टी के दलालों के कॉकस से घिरे रहने वाले और बिना पैसे के कोई काम न करने वाले इन अधिकारियों की वजह से सत्तारूढ़ पार्टी की छवि का बेड़ा गर्क होता जा रहा है।
मुलायम सिंह यादव ने सरकार को हिदायत दी है कि वो अपने अधिकारियों को पार्टी के लोगों का काम करने के लिये निर्देशित करे। इसका नतीजा भी एकदम उल्टा हो रहा है। जो सपा कार्यकर्ता प्रशासन पर हावी हैं उन्हें बिल्कुल ख्याल नहीं है कि लोकसभा चुनाव नजदीक होने को देखते हुये नेताजी की अंतिम साध पूरी करने के लिये वे ऐसे काम करायें जिससे जनता में वाह-वाही हो बल्कि वे नेताजी के कथन को लूट और कमजोर जनता के उत्पीडऩ का सर्टिफिकेट मानकर भ्रष्ट अफसरशाही के सहयोग से जन विरोधी कार्यों को अंजाम दिलाने में लगे हुये हैं।
अखिलेश यादव को पिछले तीन-चार दिनों से भाजपा नेताओं द्वारा दिये जा रहे बयानों पर गौर करना चाहिये। इसी लाइन पर नयी दिल्ली में भी भाजपा के मुख्यमंत्रियों की बैठक का एजेंडा निर्धारित नजर आ रहा है। यह लाइन है सुशासन की। भाजपा ने सही मुद्दे की पहचान इस समय की है। बदले माहौल में गर्वनेंस अगले चुनाव का मुख्य मुद्दा होगा जो उत्तर प्रदेश में एकदम गायब होती जा रही है। जिसके परिजन की हत्या हो जाती है उसकी भी रिपोर्ट नहीं लिखी जाती क्योंकि सपा के नेता और पुलिस हत्या के आरोपियों से पहले ही मिल जाते हैं। मुख्यमंत्री का दरबार आयोजित हो रहा है और जिलों में तहसील दिवस के कार्यक्रम भी हो रहे हैं लेकिन पीडि़त को हक दिलाने की एक भी मिशाल इनमें पेश नहीं की जा सकी है। वैसे भी सपा का जो पुराना रिकार्ड रहा है उसका तात्पर्य यह है कि इस पार्टी के नेता और कार्यकर्ता तभी मानते हैं कि अपनी सरकार चल रही है जब उन्हें हर नियम और कानून को रौंदने की आजादी मिले।
ऐसे माहौल में गर्वनेंस की कल्पना कैसे की जा सकती है। इसके बावजूद अभी यह मानना जल्दी होगी कि अखिलेश यादव ने चुनाव के पहले जो तेवर दिखाये वे सुनियोजित थे और वे भी वैसे ही हैं जैसे सपा के पुराने नेता हैं। लगता यह है कि अखिलेश यादव से अराजकता और बेईमानी वास्तव में हजम नहीं हो पाती लेकिन इसके बावजूद वे सुव्यवस्था की ओर कोई कदम बढ़ाने में सक्षम नहीं हो पा रहे हैं तो उसकी मुख्य वजह यह है कि वे कामकाज के मामले में बहुत सुस्त हैं। उनके आगे अभी लंबा राजनीतिक कैरियर है जिसका शुरूआत में ही अंत हो सकता है अगर इस कमजोरी से उन्होंने पीछा नहीं छुड़ाया। सत्ता कांटों का ताज होती है यह अहसास अखिलेश यादव को होना चाहिये। वे सुविधा भोगिता छोड़कर अपने पिताश्री से सीख लेते हुये सरकारी कामकाज के लिये जबरदस्त मेहनत करना सीखें तभी इतने बड़े राज्य के संचालन की उनकी योग्यता प्रमाणित हो पायेगी जो उनके स्वर्णिम भविष्य के लिये बेहद जरूरी है।

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