महाभारत काल में उरई की ख्याति देश भर में चोटी के गुरुकुल की वजह से थी। महाराज जनमेजय के समय आचार्य आमोद धौम्य का गुरुकुल यहां सतत प्रवाही नाले के दक्षिणी भूभाग पर था। वे बड़ी कठोरता और सिद्धांतवादिता के साथ शिष्यों को शिक्षा देते थे। गुरुकुल में उन्हीं बच्चों को प्रविष्टि मिलती थी जो आचार्य द्वारा ली जाने वाली प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे। आरुणि पांचाल उन्हीं के शिष्य थे और उन्हीं के नाम पर यहां का नाम उरई पड़ा।
कहा जाता है कि महान नीतिशास्त्री कौटिल्य ने भी उरई में ही गुरुकुल में दीक्षा ली थी। बाद में उरई इतिहास के पन्नों से छिटक गया। चंदेल राजा परमाल ने महोबा के परिहार शासक वासुदेव को हराकर उनके राज्य पर कब्जा कर लिया, जिसके बाद हुई संधि में उन्होंने उरई का राज्य परिहार शासक को सौंप दिया। वासुदेव के पुत्र माहिल को तालाब बनवाने और बाग लगवाने का बड़ा शौक था। फलस्वरूप उनके कार्यकाल में उरई का काफी विकास और सुंदरीकरण हुआ। झांसी रोड पर आज भी माहिल तालाब के रूप में उनकी कृति का अवशेष देखा जा सकता है। पहले यह तालाब दो कोस की परिधि में था और इसके चारों तरफ पक्के घाट व सीढ़ियां बनवाई गई थीं। पूरे तालाब में खिलने वाले रंग-बिरंगे फूलों को जिन वयोवृद्धों ने अपने समय में देखा है। वे अपनी अनुभूतियां बताते हैं तो जैसे बीते युग में खो जाते हैं। नगर के बाहर जहां आजकल उमरारखेड़ा का हनुमानगढ़ी मंदिर बना है वहां माहिल के प्रधान सेनापति उमराव सिंह की गढ़ी थी। उमराव के नाम पर आज तक उस स्थान को उमरारखेड़ा कहा जाता है। राजा माहिल के समय में उनके पूरे इलाके में बड़े-बड़े मनोहर उद्यान लहलहाते थे। इन उद्यानों में चिड़ियाघरों की भी व्यवस्था थी। उरई के पश्चिमोत्तर कोने पर जहां आजकल जिला जेल है वहां एक लंबा-चौड़ा उद्यान माहिल ने ही लगवाया था। इस स्थान की खुदाई में क्यारियां और पानी की नालियों के चिह्न मिलते हैं जो चंदेरी ईंटों से निर्मित थीं। इस बाग में दर्शनीय पशु-पक्षी भी पाले गए थे। ऊदल एक बार शिकार खेलते-खेलते उरई पहुंचे थे। उस समय उन्होंने माहिल के बाग में घुसकर छुआरे, अंजीर व नारियल के वृक्षों को तहस-नहस कर दिया था। यही नहीं बाग में दुर्लभ प्रजाति के काले हिरनों की जोड़ी को भी मार डाला था। इस बात पर माहिल के पुत्र राजकुमार अभई से ऊदल का मल्ल युद्ध हुआ था, जिसमें ऊदल ने उसकी बांह उखाड़ दी थी। इसके बावजूद जब दिल्लीपति पृथ्वीराज का परमाल से युद्ध हुआ तो अभई ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध महोबा राज्य का साथ दिया और युद्ध में लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए।
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