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न्यामतपुर में हो रहा लोहिया का सपना साकार

मुक्त विचार
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अपने घर के पास बैठे श्यामलाल वाल्मीकि।
अपने घर के पास बैठे श्यामलाल वाल्मीकि।

ग्वालियर की राजमाता स्वर्गीय विजयाराजे सिंधिया ने पहला चुनाव १९६७ में गुना संसदीय सीट से उस समय लड़ा जब उनके पति महाराजा जीवाजी राव सिंधिया का अचानक स्वर्गवास हो गया। एक तो उस समय वैसे भी राजभक्ति का जबर्दस्त माहौल था, उस पर राजमाता के तात्कालिक वैधव्य के कारण उनके प्रति सहानुभूति की लहर और प्रचंड थी। हर दिग्गज विपक्षी को मालूम था कि ऐसे में राजमाता के खिलाफ चुनाव लड़ने का मतलब है अपनी शर्मनाक पराजय का नजारा देखना पर इसके बावजूद समाजवादी राजनीति के पुरोधा डॉ. राममनोहर लोहिया को उन्हें वाकओवर देना गवारा नहीं हुआ। डॉ. लोहिया ने उस चुनाव को राजमाता के खिलाफ स्वच्छकार समाज की एक महिला को उनके सामने उम्मीदवार बनाकर चर्चित कर दिया था। डॉ. लोहिया ने उस समय यह परिभाषित किया था कि यह चुनाव लोकतंत्र से हमारा समाज अभी कितनी दूर है इसका एक पैमाना होगा, जितने ज्यादा वोटों से उनकी उम्मीदवार हारेंगीं समझो लोकतंत्र अभी उतना ही अधूरा है और इसे पूर्णता की मंजिल तक ले जाने के लिए उस दिन का इंतजार करना होगा जब एक महारानी के मुकाबले महतरानी चुनाव जीते। तबसे सिंधिया के मध्य भारत साम्राज्य की क्षिप्रा नदी में न जाने कितना पानी बह चुका है। राजाओं, महाराजाओं की उपाधियां व विशेषाधिकार कबके खत्म किए जा चुके हैं फिर भी किसी दबंग जाति के बाहुल्य वाले गांव में वाल्मीकि समाज का कोई प्रधान चुना जाता है तो डॉ. लोहिया याद आ जाते हैं।

जालौन जिले २०१० में हुए पंचायत चुनाव में महेबा ब्लॉक की यादव बाहुल्य न्यामतपुर पंचायत से श्यामलाल वाल्मीकि का जीतना ऐसा ही एक प्रसंग है। इस चुनाव में जब श्यामलाल चुनाव प्रधानी का चुनाव जीते तो पुराने लोगों के जेहन में वही दृश्य कौंध गया। सात हजार की आबादी वाला न्यामतपुर महेबा ब्लॉक की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत है, जिसकी सामाजिक संरचना में दलितों की आबादी तो ३० प्रतिशत है, लेकिन स्वच्छकार समाज के मात्र १० घर हैं। यही नहीं दूसरी अनुसूचित जातियों के तमाम लोग दौलत, दबदबा और अन्य सभी बातों में भी ज्यादा असरदार हैं, जिन्हें गांव में वर्चस्व रखने वाले वर्गों का संरक्षण भी प्राप्त है। दूसरी ओर श्यामलाल अनपढ़ हैं। सफाई का पुश्तैनी काम उकी रोजी-रोटी का मुख्य जरिया है। अन्य गांवों की तरह न्यामतपुर में एक छोर पर बसी वाल्मीकि बस्ती में रहते हैं। जहां उनके घर के सामने रास्ते में आज भी कीचड़ ही कीचड़ है और इस समय भी उनके यहां सुअर पालन होता है। ऐसे में ग्राम प्रधान का पद अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने के बाद अनुसूचित बिरादरी के दूसरे उम्मीदवारों पर श्यामलाल का बढ़त बनाना डॉ. लोहिया की भावनाओं के संदर्भ में मंजिले-मकसूद तक पहुंचने जैसा है। लोहिया ने ही कहा था कि जिस दिन महारानी के मुकाबले स्वच्छकार मिहला जीतेगी, वह देश में लोकतंत्र की पूर्ण सफलता का दिन होगा।

श्यामलाल प्रधान तो हो गए, लेकिन सार्वजनिक कुरीतियों के कई जरूरतमंद ग्रामीणों को उनके घऱ जाना धर्मभ्रष्ट होने जैसा लगता है, लेकिन श्यामलाल को इसका कोई मलाल नहीं है। वे खुद ही याचक के घर सरकारी योजना की मदद दिलाने के लिए पहुंच जाते हैं। उन्हें इस में कोई हेठी नहीं लगती। श्यामलाल भौतिक रूप से भले मजबूत न हों, लेकिन उनका मनोबल बहुत मजबूत है। गांव के असरदार लोगों की कठपुतली बनकर कार्य करने की बजाय वे पंचायत सचिव और पंचायत मित्र के मशविरे से कदम आगे उठाते हैं। अंगूठा टेक होकर भी उनकी सहज बुद्धि प्रखर है। अस्पताल और आंगनबाड़ी केंद्र का सबसे पहले निरीक्षण कर उन्होंने दर्शा दिया कि प्राथमिकताओं का ज्ञान उन्हें अच्छी तरह है। पार्टीबंदी से अलग रहकर उनकी काम करने की शैली ग्रामीणों को भी रास आ रही है। विधवा पेंशन की तलबगार भूरी देवी के दरवाजे श्यामलाल खुद पहुंच गए। भूरी के मुताबिक श्यामलाल पर गांव वालों को यह भरोसा है कि वे लाभ दिलाने में मुंह देखा व्यवहार नहीं करते। लोगों का यह भरोसा ही श्यामलाल को अपना काम बखूबी अंजाम देने की हिम्मत देता है।

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