बेहमई कांड में ३१ साल बाद चार आरोपियों के खिलाफ रमाबाई नगर (कानपुर देहात) के विशेष न्यायाधीश (दस्यु प्रभावित क्षेत्र) ने आरोप तय कर दिए हैं। इस कांड से मेरी कई स्मृतियां जुड़ी हुई हैं। चम्बल की डकैत समस्या के संदर्भ में यह कांड टर्निंग प्वाइंट कहा जा सकता है। जब यह घटना हुई मैं उस समय एक भी बार उरई नहीं आया था। इस घटना के पहले तक चम्बल और उससे जुड़ी सहायक नदियों के बीहड़ों में सक्रिय डकैतों के खिलाफ अभियान चलाना एक मुश्किल कार्य था क्योंकि चम्बल के डकैतों की छवि तब रॉबिन हुड की तरह की थी जो हमेशा यह ख्याल रखते थे कि उन पर गरीबों और महिलाओं-बच्चों को पीड़ित होने का आरोप न लगे। साथ ही वे बेवजह के खून-खराबे के दोषी न माने जाएं। तब तक डकैत या तो उनका इनकाउंटर करने आई पुलिस टीम को शहीद करते थे या फिर अपने व्यक्तिगत शत्रुओं को। लक्ष्मण रेखा में खुद को बांधकर काम करने की कार्यशैली और पृष्ठभूमि में जुड़ी दुखांतिका जिसमें उनका पक्ष उन्हें सताए हुए पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करता था, तत्कालीन डकैतों को जनता के एक बड़े वर्ग की सहानुभूति का हकदार बना देता था। फूलन देवी के गिरोह ने बेहमई में जब नरसंहार किया तो जनमानस में डकैतों की यह छवि एकदम से दरक गई। २२ लोगों को एक लाइन में खड़ाकर भून देने के पीछे तब तक कोई ऐसी कहानी नहीं थी कि जिससे डकैतों के पक्ष को सही साबित करने वाला कोई वर्ग आगे आ सके। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह थे, जिन्होंने इस घटना से उत्पन्न जनाक्रोश को देखते हुए पूरे प्रदेश में विशेष दस्यु विरोधी अभियान शुरू किया। फूलन देवी के पास उस समय कोई खास हथियार नहीं थे। सिर्फ १२ बोर बंदूक को छोड़कर गिरोह भी कोई लम्बा-चौड़ा नहीं था। शरणदाताओं में भी कोई प्रभावशाली नाम नहीं था। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की बहादुर पुलिस उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाई। अगर उसने कुछ किया तो सिर्फ यह कि प्रदेश के शरीफ मुख्यमंत्री को खलनायक की कोटि में ले जाकर खड़ा कर दिया। उस दस्यु विरोधी अभियान में जितने फर्जी एनकाउंटर हुए उतने न पहले कभी हुए न बाद में। ३०० के लगभग लोग पुलिस ने मार दिए, जिनमें से अधिकांश बेगुनाह थे। जालौन जिले के आटा थाने में पुखरायां के ब्राह्मण परिवार के चार किसानों को पुलिस ने उनके दुश्मनों से पैसा लेकर मौत के घाट उतार दिया और इसके लिए जिम्मेदार श्यामजी त्रिपाठी नाम का दरोगा दंडित होने की बजाय प्रोन्नत होता हुआ राजपत्रित अधिकारी की ऊंचाई तक पहुंचा। मुलायम सिंह यादव उस समय लोकदल में स्वतंत्र नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह पर दस्यु विरोधी अभियान की आड़ में बड़े पैमाने पर पिछड़ी जाति के लोगों की हत्याएं कराने का आरोप लगाया, जो इतनी दमदारी से गूंजा कि बाद में जब पिछड़ा प्रभुत्व वाली पार्टी जनता दल के विश्वनाथ प्रताप सिंह नेता बने तो इसी कमजोरी की वजह से कई बार उन्होंने मुलायम सिंह को अपने ऊपर हावी हो जाने का अवसर दिया। उन दिनों कानपुर की मीडिया भी सारे देश में उत्तर प्रदेश पुलिस के रोमांचक नाटकीयता लिए दस्यु विरोधी अभियान को बेबाकी के साथ कवर करने की वजह से अपने को स्थापित करने में सफल रही। उन्हीं दिनों पहली बार उरई पहुंचकर मैंने इस पर विशेष कवरेज किया। जालौन में लोकदल के दो विधायक थे। एक चौ. शंकर सिंह और दूसरे दलगंजन सिंह। दोनों से बातचीत के बाद पूरे ब्यौरे को संवाद परिक्रमा नाम की उस समय की सबसे ज्यादा प्रकाशित होने वाली फीचर एजेंसी के जरिए जब मैंने अपना राइट-अप जारी कराया तो वह दैनिक जागरण सहित हिंदी के कई प्रमुख समाचारपत्रों के रविवारीय अंक की आमुख कथा बनी। हालांकि, उन दिनों जालौन के तत्कालीन एसएसपी उमाशंकर वाजपेई जैसे यूपी पुलिस के कुछ पुलिस अधिकारियों का नाम दस्यु विरोधी अभियान में खासी सफलता अर्जित करने के लिए लिया जा सकता है। उन दिनों उमाशंकर वाजपेई के साथ एक बड़ा किस्सा हुआ। वे मुखबिरों के जरिए डकैत गिरोहों में सेंध लगाते हुए जोखिम उठाने की भावना के कारण एक गिरोह के बंधक हो गए। तीन दिन तक उत्तर प्रदेश भर में उनकी तलाश होती रही। विजयाराजे सिंधिया ने राज्यसभा में जालौन के एसएसपी की गुमशुदगी का मामला भी उठा दिया, जिससे उत्तर प्रदेश सरकार बुरी मुसीबत में फंस गई। बहरहाल जैसे-तैसे एसएसपी के अपहरण कांड का पटाक्षेप हुआ। फूलन देवी के समर्पण के बाद फ्रांस के एक टेलीविजन नेटवर्क के लिए काम करने वाली माला सेन ने बेहमई की कथा को जिस रूप में प्रस्तुत किया और बाद में शेखर कपूर ने बैंडिट क्वीन के माध्यम से उसे और विस्तार दिया वैसा कोई वर्ग द्वंद्व इस नरसंहार के पीछे नहीं था। यह विशुद्ध आपराधिक भावना से किया गया एक कांड था। लोग इस कारण उस समय बेहद शिद्दत से चाहते थे कि बेहमई के दोषी मारे जाएं, लेकिन राजनीतिक शतरंज की बिसात पर ऐसे मोहरे आगे बढ़ाए गए जिससे अपराधियों को अंजाम पर पहुंचाने का मूल उद्देश्य भटक गया और तमाम नेताओं को इसकी आड़ में राजनीतिक रोटियां सेंकने का मौका मिलता रहा। अब जबकि बेहमई कांड के आरोपियों के खिलाफ अदालत ने चार्जशीट को संज्ञान में लिया है पचनद में बहुत पानी बह चुका है। एक पूरी नई पीढ़ी जवान हो चुकी है जिसके जेहन में बेहमई कांड की भयावहता का कोई अक्स नहीं है। मीडिया ने इसके बावजूद इसमें सनसनी पैदा करने की कोशिश की है, लेकिन अब यह मामला प्याली के तूफान से ज्यादा असर नहीं कर पा रहा।
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