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असीम के कार्टून असहनीय पर राजद्रोह गलत

मुक्त विचार
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असीम त्रिवेदी के कार्टून मैंने देखे हैं, बेहद तीखे हैं, संसद और संविधान पर जो कमेंट हैं उन्हें अभद्र ही कहा जायेगा। निश्चित रूप से उनमें भावनाओं का अतिरेक है। मेरी राय है कि उन्हें संवैधानिक संस्थाओं के बारे में इस तरह के फूहड़ कटाक्ष नहीं करना चाहिये। उनसे असहमत होते हुये भी उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किये जाने का मैं कतई पक्षधर नहीं हूं। उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिये था भले ही तकनीकी रूप से इसमें कोई त्रुटि न हो।
दरअसल भारतीय समाज बहुत ही जटिल है। आधुनिकता के बावजूद लोग विरासत में मिले पूर्वाग्रहों से अपने को मुक्त नहीं कर पाते। उनका चश्मा उन्हें वस्तुपरक दृष्टि से चीजों को नहीं देखने देता। बाबा साहब के बनाये संविधान के साथ भी कुछ ऐसा ही है। निराकार संविधान अपने को संसद के माध्यम से अनुभव करता है। इसके चलते पूर्वाग्रहों के कारण संसद निशाने पर आ ही जाती है। समाज में भेदभाव को मिटाने के लिये ऐतिहासिक, सामाजिक कारणों से पिछड़े हुये वर्गों को विशेष अवसर के सिद्धांत को अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति प्राप्त है। जिन लोगों को गलत व्यवस्था के कारण पीछे धकेला गया है चाहे उसका आधार नस्ल हो या जाति उन्हें आगे बढऩे के लिये विशेष अवसर का औचित्य स्वयं सिद्ध है। अमेरिका में तो कालों को डायवर्सिफिकेशन के तहत व्यापक आरक्षण दिया गया था जो नौकरियों में ही नहीं ठेकेदारी, आपूर्ति तक में था। पर यहां स्थिति दूसरी है ऐसी संसद जो बराबरी लाने का काम करती है जिसने मायावती और मुलायम सिंह इत्यादि शूद्रों के हाथ में देश के सबसे बड़े सूबे की बागडोर थमाने में भूमिका अदा की अनजाने में वह उनके लिये बहुत बड़ी शत्रु है।

समालोचना में संसद पर प्रहार करना एक बात है लेकिन उसे सिरे से खारिज करना इसी मानसिकता से ओतप्रोत होने के कारण है। बहुत से लोग अनभिज्ञता में ऐसा कर रहे हैं। उन्होंने चूंकि दूसरे पक्ष के हालातों को नहीं महसूसा, परिवार में बचपन में जो चर्चायें सुनीं उसके आधार पर उनके मन में जो भाव बन गये उससे वे अपने को आसानी से मुक्त नहीं कर पा रहे। हालांकि अंत तक उनका हृदय परिवर्तन नहीं होगा, मैं इतना नकारात्मक नहीं हूं। इसी तरह संसद पर हमले के अभियुक्त को फांसी देने में हो रहे विलंब के मामले में कई पेंच हो सकते हैं लेकिन यह भी बनी बनायी धारणा है कि एक मात्र इस मामले में अनिर्णय से देश की ताकत पूरी तरह नपुंसक साबित हो गयी है। सांप्रदायिकता की मानसिकता की जड़ें भी बहुत लोगों के अचेतन में काफी गहरी हैं और ऐसे मुद्दे पर जरूरत से ज्यादा आवेश इसी वजह से होता है। बहरहाल राजद्रोह के सेक्शन से ही मुझे आपत्ति है। अंग्रेजों ने अपनी जरूरत के लिये इसे गढ़ा था। अभिव्यक्ति के अधिकार के प्रयोग की वजह से किसी पर राजद्रोह नहीं लगना चाहिये जबकि उसकी वैचारिक कट्टरता देश के प्रति अत्यधिक लगाव का ही नतीजा है। यहां मैं स्मरण कराना चाहता हूं कि लोकमान्य तिलक पहले पत्रकार थे जिन पर अंग्रेजों ने राजद्रोह लगाया था। राजेंद्र माथुर ने उनकी जयंती के अवसर पर नयी दुनिया में लिखे अग्रलेख में कहा था कि तिलक पहले नेता पत्रकार थे जिन्होंने जेल जाने को सम्मान में बदल दिया। अंग्रेजों के लिये यह फैसला बहुत बड़ी चूक साबित हुआ और आगे चलकर यह सविनय अवज्ञा के आह्वान को प्रभावी बनने का कारण बना। जन-जन में जेल जाने की उमंग पैदा हुयी तो अंग्रेजों की हनक खत्म हो गयी। उरई में स्थानीय स्तर पर पहला दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित करने वाले यज्ञदत्त त्रिपाठी का मुझे स्मरण आता है जिन्होंने चीन युद्ध के समय एक व्यंगात्मक कहानी लिख दी थी और मूर्ख प्रशासन ने उन्हें जेल भेजकर उनकी प्रेस कुर्क करा दी थी। बाद में तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता ने उनके खिलाफ मुकदमा वापस कर दिया था। असीम त्रिवेदी को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिये था।

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