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उग्रवाद की भट्ठी को खुद ही दहकाने वाली सरकार

मुक्त विचार
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बाजार की अस्थिरता आम आदमी के लिये अस्तित्व के संकट का कारण साबित हो रही है। नयी अर्थव्यवस्था लागू करते समय उसे जो आश्वासन दिये गये थे एक के बाद उनके संदर्भ में वह विश्वास भंग की पीड़ा को झेलने की हालत में पहुंचता जा रहा है। सरकार खतरनाक हालातों को गंभीरता से नहीं ले रही वरना जब आदमी खुद को बेमौत मरने से बचने की कोई सूरत नहीं देखेगा तो उसके विद्रोह की अभिव्यक्ति उसे मारकर मारने जैसे निश्चय को अपनाने के लिये मजबूर न कर दे। बिंदुवार इन विडंबनाओं पर यहां गौर किया गया है।

आमदनी बढ़ने का छलावा

नयी अर्थ नीति के पैरोकारों का कहना है कि एकांगी सोच न अपनायी जाये तो बाजारवाद के विकास ने रोजगार के साधन भी बढ़ाये हैं और आमदनी भी। मोबाइल इंडस्ट्री इसका उदाहरण है। इसे बढ़ावा दिया गया तो हर गांव-गली में गरीब से गरीब आदमी ने मोबाइल ले लिये। प्रतिस्पर्धा में हर मोबाइल कंपनी अनूठे फीचर दे रही है। ऐसी हालत में जो संपन्न हैं वे तीन और चार तक मोबाइल खरीद रहे हैं। इससे मोबाइल की शॉप बढ़ी हैं। गांव-गांव में मोबाइल की रिपेयरिंग, सेट बिक्री, रीचार्ज कूपनों की बिक्री की दुकानें खुल गयी हैं। क्या यह पहले से बहुत ज्यादा रोजगार सृजन होने का सबूत है लेकिन रोजगार का अर्थ क्या है। जीविका तब कही जाती है जब उससे हर गृहस्वामी को दिन में दोनों बार चूल्हा जलने की गारंटी हो सके। मुझे नहीं लगता कि ऐसा हो पा रहा है। जरूरी खर्चों के पूर्ति के हिसाब से यह तथाकथित रोजगार आभासी मात्र है। जाब कार्ड धारक को आज भले ही सवा सौ डेढ़ सौ रुपये मिल जाते हों लेकिन रुपये का जितना अवमूल्यन आवश्यक वस्तुओं की कीमतों के सापेक्ष हो चुका है उसमें वह छह आदमियों के औसत परिवार के लिये एक दिन का आटा भी नहीं खरीद सकता।

मोबाइल चार्जिंग से लेकर आम आदमी का हर रोजगार इसी तरह आधा अधूरा है। बाजार के अस्तित्व के कारण हाल यह है कि व्यक्ति को एक हाथ से रोजगार मिलता है दूसरे हाथ से उसकी जीविका छिन जाती है। बेगार करने पर भी पहले उसे खाना खाने को मिल जाने की गारंटी रहती थी लेकिन अब वह मोबाइल रिपेयर करके 200 रुपये कमा रहा हो फिर भी खाने की गारंटी नहीं है क्योंकि रिपेयरिंग का छह महीने पहले जितना चार्ज होता था वही आज के दिन वह ले पायेगा जबकि बाजार के अस्थिर होने से दो दिन पहले ही जिस सब्जी को उसने दस रुपये किलो में खरीदा था। वह हो सकता है कि आज सौ रुपये किलो हो चुकी हो। आटा जो बारह रुपये किलो था बीस रुपये किलो हो चुका हो। बच्चों की फीस जो पिछले साल पूरे वर्ष भर में दस हजार रुपये में चुकता होती रही हो उसमें इस साल तीस हजार रुपये चुकाना पड़ जायें। जुकाम, बुखार के इलाज में एक महीने पहले दो सौ रुपये मात्र खर्च हुये हों इस महीने उसे इतने ही इलाज के एक हजार रुपये देने पड़ रहे हों। मुद्रा पर आधारित आर्थिक प्रणाली को बाजार के उतार-चढ़ाव के रुख ने प्रश्नचिह्नों के घेरे में खड़ा कर दिया है। जाहिर है कि जब तक मुद्रा विनिमय प्रणाली व्यक्तिगत बजट को स्थिर रखने में सक्षम नहीं है तब तक वह बेहतर प्रणाली नहीं हो सकती।

टका सेर भाजी टका सेर खाजा का राज

बाजारवाद की व्यवस्था टका सेर भाजी टका सेर खाजा और अंधेर नगरी चौपट राजा की राजशैली का नमूना है। पहले मुनाफे के एक हद तय थी। एक पैसे लगाकर ज्यादा से ज्यादा पच्चीस पैसे कमाये जा सकते थे। अब एक ऐसी जमात पैदा हो गयी है जिसे नयी अर्थव्यवस्था का वरदान इस रूप में प्राप्त है कि वह एक रुपये लगाकर एक करोड़ रुपये कमा सकते हैं। यह धूर्तता है कि उसकी स्थितियां देखकर कहा जाये कि आज जो आदमी बाजार में जाता है वो यह नहीं पूछता कि अमुक चीज की कीमत क्या है। उसके पास भरपूर पैसा होता है और वह अपनी पसंद की चीजें बटोरने के बाद कंप्यूटर से बिल निकलवाता है और बिना ना नुकुर के पेमेंट करके दुकान से निकल जाता है जबकि यह बात कुछ ही लोगों के बारे में सही है।

आम लोग न तो इतने हुनरमंद हैं कि एक करोड़ करने की कला जानते हों और न ही उनके हाथ में इतनी अतिरिक्त इनकम है कि वे जो बिल मिले उसका पेमेंट कर सकें। ऊपर से जो लोग कमाते दिख रहे हैं उनमें कई के घर फाका होता है। दिन भर परिश्रम करने और घर की सारी पूंजी लगाने के बाद ऐसी नियति क्या इसे रोजगार कहना कोई अर्थ रखता है।

जरूरी सेवायें

अर्थ व्यवस्था की विकास दर बढऩे का अर्थ जनमानस यह समझता है कि इससे सरकार के पास ज्यादा संसाधन जुटते होंगे जिससे लोगों की बुनियादी जरूरत की जो सेवायें हैं उनका बंदोबस्त नाम मात्र के शुल्क में कराने की योजना वह बनाती होगी। लेकिन ऐसा नहीं है। निजी अरबपतियों के संख्या तो बढ़ रही है लेकिन सरकार की हालत इतनी खराब है कि न वह सड़क बनवा पा रही है न स्कूल खुलवा पा रही है, न अस्पताल। नतीजा यह है कि जो सेवायें मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आती हैं वे भी थ्रीजी के हवाले हो गयी हैं। बाजार की नब्ज से चल रहे अस्पतालों में अब न कोई अपना इलाज करवा पा रहा है न अपने बच्चों को बाजारी स्कूलों में शिक्षा दिलवा पा रहा है। सरकारी तौर पर इन सेवाओं की संस्थायें कागजी बनकर रह गयी हैं। यहां तक कि कुछ वर्षों में उसके सामने जरूरत भर के पानी की व्यवस्था में भी जेब एलाऊ न करने का संकट आ सकता है। सरकार के पास संसाधनों का भारी टोटा है और अभी जो कुछ उसकी गुजर चल रही है वह सरकारी उद्योगों के विनिवेशीकरण और सरकारी जमीनों को फ्री होल्ड करने से है। यह परिसंपत्तियां समाप्त होने के बाद सरकारी खजाना कितना बचा रह पायेगा यह एक सवाल है।

सख्त कदमों के साथ इस ओर सोचें

मुद्रा विनिमय प्रणाली और नयी आर्थिक नीति का कई सार्थकता का मूल्यांकन इस पर निर्भर करता है कि अगर आप एक जाब कार्ड धारक को सवा सौ रुपये देते हैं तो वह उससे उस दिन का पूरे छह सदस्यीय परिवार का गल्ला खरीद ले, घर के किसी सदस्य को जुकाम, बुखार हो जाये तो इलाज करवा ले, बच्चे की महीने भर की पढ़ाई के खर्च का उस दिन का औसत उसमें निकल पाये। उस दिन मोबाइल से होने वाली बातचीत का खर्च निकल आये और इतनी बचत हो जाये कि बच्चों का भावी विवाह व बड़ी बीमारी के 15-20 साल बाद होने वाले जरूरी खर्च के लिये पूंजी जुट जाये। सख्त कदम उठाने के नाम पर आम आदमी की जीविका का साधन बन चुकी बाइक का ईंधन व्यय बढ़ाने का जौहर दिखाने वाले मनमोहन सिंह इस मामले में भी तो सख्त कदम उठायें।

क्या हो सकते हैं सख्त कदम

आम आदमी के लिये सटीक कदम यह हो सकते हैं कि शिक्षा, सड़क, इलाज और परिवहन का निजीकरण एकदम बंद किया जाये। जनता के संरक्षक होने के फर्ज के अनुरूप सरकार कहे कि एक समान शिक्षा, एक समान चिकित्सा व्यवस्था होगी और यह खर्चा हम उठायेंगे। अनाज व सब्जी के भावों को नियंत्रित रखने की नियमावली बनाये। इनके भाव सरकार की इजाजत से बढ़ेंगे और कम से कम दो साल तक इनके भाव नहीं बढऩे दिये जायें भले ही पश्चिमी देशों की तरह यहां भी अनाज और सब्जी पैदा करने वाले किसानों को प्रति बीघा के हिसाब से सब्सिडी देनी पड़े। जिसके पास बाइक है उसे एक हजार रुपये का भत्ता सरकार दे तभी उसे हक है कि वह पेट्रोल पर अनुदान पूरी खत्म कर पूरी तरह उसकी कीमत निर्धारण को पूरी तरह बाजार के हवाले करे। दरअसल बाइक को लोग अय्याशी के लिये नहीं चलाते यह साधन उनकी जीविका से जुड़ा है। आम आदमी बाइक से ज्यादा से ज्यादा लोगों से संपर्क कर लेता है और वह अगर एलआईसी का एजेंट है तो उसे जो औसत आमदनी महीने भर में हो रही है वह रोज पेट्रोल की कीमतें बढऩे पर संकुचित होती जायेगी क्योंकि उसके साथ एलआईसी का कमीशन तो बढ़ेगा नहीं। परिवहन किराये में स्थिरता होनी चाहिये।

डीजल की कीमत बढ़ानी है तो बसों में सब्सिडी दो ताकि किराया न बढ़े। बसों में सफर करने वाले लोग सैर करने वाले शौकीन नहीं होते। बस का सहारा अदालत की तारीख पर जाने वाला गरीब किसान, इंटरव्यू के लिये जाने वाला बेरोजगार और काम के लिये आवागमन करने वाला मजदूर लेता है। साल में बस का किराया डीजल बढऩे से दस से पचास रुपये हो जायेगा तो ऐसे लोगों को आत्महत्या करनी पड़ जायेगी।

समस्यायें कई और हैं उनकी ओर चर्चा अगली बार में…

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