उत्तर प्रदेश के जालौन जिले में किसानों का दमखम फीनिक्स पक्षी की तरह है। डेढ़ दशक के सूखे की बर्बादी के दौर से उन्होंने लाभकारी खेती के नये क्षितिज छूकर यह बात साबित की है। अफसोस इस बात का है कि उनमें जितना जीवट है उसके मुताबिक सरकार और प्रशासन सहयोग नहीं दे पा रहा।
जालौन जिले 454434 हेक्टेयर प्रतिवेदित क्षेत्रफल में से सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मात्र 341112 हेक्टेयर में ही बुआई हो सकती है। इसमें भी एक बार से अधिक बोया गया क्षेत्रफल सिर्फ 64497 हेक्टेयर है। कुल असिंचित क्षेत्रफल 218185 हेक्टेयर है जिसमें 148866 हेक्टेयर नहरों से सिंचित है। हकीकत कागजी आंकड़ों से एकदम अलग है। सवा सौ वर्ष से अधिक पुरानी नहर प्रणाली जर्जर हो चुकी है। कई माइनरों में पानी की एक बूंद नहीं पहुंचती है। नहरें कटी फटी होने से तमाम पानी फालतू बह जाता है। टेल एरिया खासतौर से कुठौंद और कदौरा क्षेत्र में बारिश कम होने पर पानी पहुंचता ही नहीं है। वजह यह है कि बेतवा बरसाती नदी है जिसके जलाशय मानसून के दगा दे जाने पर खाली रह जाते हैं तो नहरों के लिये सीमित दिनों पानी मिल पाता है। बुंदेलखंड विकास पैकेज से नहर प्रणाली के सुधार के लिये भारी भरकम बजट मंजूर था। प्रखंड प्रथम के लिये स्वीकृत बजट 19 करोड़ 31 लाख रुपये तकनीकी कारणों से अवमुक्त नहीं हुआ। बाद में अधिकारियों ने इसमें रुचि नहीं ली। पैरवी के अभाव में आज तक यह धन विभाग नहीं झटक पाया है। प्रखंड द्वितीय में 25 करोड़ 29 लाख रुपये खर्च होने हैं, लेकिन काम की गति काफी धीमी है। दो वर्ष पहले बजाज ग्रुप ने राज्य सरकार को ललितपुर में थर्मल पावर प्लांट की स्वीकृति के लिये आशय पत्र दिया था जिसमें पानी की उपलब्धता के लिये बेतवा नहर प्रणाली की पुनस्र्थापना और सुधार पर कंपनी ने 5 अरब रुपये के निवेश की पेशकश की थी। इससे फालतू बर्बाद होने वाला लाखों घन मीटर पानी बचता। अगर थ्रीपी माडल में ऐसे किसी प्रस्ताव को मंजूरी मिल जाये तो बेतवा नहर प्रणाली के सिंचित क्षेत्र के कागजी आंकड़े वास्तविकता का रूप ले सकते हैं लेकिन इसके लिये कोई सार्थक प्रयास नजर नहीं आ रहा। 2007 के बाद निजी नलकूपों पर अनुदान के ऐलान से इनकी संख्या बढ़ी है लेकिन फिर भी यह आवश्यकता के अनुपात में ऊंट के मुंह में जीरा का तरह हैं।
जिले में 13192 हेक्टेयर क्षेत्रफल राजकीय नलकूपों से और 34179 हेक्टेयर निजी नलकूपों से सिंचित है। खरीफ की बोआई के लिये 75 हजार हेक्टेयर का लक्ष्य वर्तमान वर्ष में निर्धारित किया गया था लेकिन 25 हजार हेक्टेयर में भी यह फसलें तैयार नहीं हो पाईं। सिंचाई साधन न होने की वजह से अधिकांश क्षेत्रफल में तो बोआई ही नहीं हुई है। हालांकि जिला कृषि अधिकारी बबलू कुमार के अनुसार सिंचाई बुआई में कमी होने का कारण नहीं है। जिनके पास निजी नलकूप थे उन्होंने भी बुआई नहीं की क्योंकि तापमान इतना अधिक था कि बीज अंकुरित होता भी तो पौधे झुलस जाते। उन्होंने किसानों द्वारा गलत फसलों के चुनाव को भी इसकी वजह माना।कोंच और एट क्षेत्र के खेतों में अल्प वर्षा में जलभराव हो जाने का जिक्र करते हुये उनका कहना है यहां दूसरी फसलें करके किसान उनके डूबकर सड़ जाने का खतरा क्यों मोल लेते हैं। समझाने पर भी उन्हें धान से परहेज रहता है। यह मानसिकता बदलनी होगी।
नवोन्मेष के धनी हैं किसान
कृषि विभाग के अधिकारी कुछ भी कहें लेकिन जालौन जिले के किसानों ने चुनौती के काल खंड में यह सिद्ध किया है कि वे नवोन्मेष के धनी हैं जिसके कारण उन्हें वक्त की नजाकत के मुताबिक कदमताल करना खूब आता है। आग बरसाती गर्मी में निजी नलकूपों से मैंथा की खेती करके सूखे के समय यहां के किसानों ने मुनाफा बटोरा है अब मैंथा का क्षेत्रफल 10 हजार हेक्टेयर तक हो गया है। हालांकि प्रशासन मैथा को प्रोत्साहित करने के मूड में नहीं है जबकि एक समय मैथा के लिये उद्यान विभाग ने अनुदान की व्यवस्था की थी। जिलाधिकारी मनीषा त्रिघाटिया का कहना है कि मैथा की फसल की अधिकता होने पर यहां भूमिगत जल भंडार के लिये खतरा पैदा हो सकता है। जिले के किसानों को ग्वार की पैदावार करनी चाहिये जो मैथा से ज्यादा मुनाफा देती है। एक समय था जब जालौन जिले की मसूर की तूती देश के कोने-कोने में बोलती थी। कई और देशों में भी यहां की मसूर निर्यात की जाती थी। इसमें न सिंचाई की जरूरत होती है, न विशेष लागत की लेकिन बार-बार एक ही फसल की पुनरावृत्ति से उकटा रोग की व्याधि ने मसूर का सफाया कर दिया। किसानों के लिये यह झटका भी अस्तित्व का संकट पैदा हो जाने जैसा था लेकिन जहां चाह वहां राह की कहावत पर अमल करते हुये उन्होंने हरी मटर के रूप में दूसरी नगदी फसल ईजाद कर ली और हालत यह है कि जालौन उम्दा हरी मटर के उत्पादन का गढ़ बन गया है। कुठौंद और महेबा में कुम्हेड़ा की खेती जलवा दिखा रही है। जाहिर है कि अगर यहां के किसानों को प्रशासन व सरकार से अपेक्षित प्रोत्साहन मिले तो पूरे देश के किसानों के लिये वे उन्नत खेती के ध्वजावाहक बन सकते हैं। अफसोस इस बात का है कि कुर्सियों पर बैठे लोगों को अपनी जिम्मेदारी की परवाह नहीं हैं।
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