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तो चीन में क्या पैसा पेड़ों पर उगता है

मुक्त विचार
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चीन में भ्रमण करते जद यू राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और प्रदेशाध्यक्ष सुरेश निरंजन।
चीन में भ्रमण करते जद यू राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव और प्रदेशाध्यक्ष सुरेश निरंजन।

जनता दल यू के प्रतिनिधिमंडल ने हाल में चीन की सरकार के मैत्री आमंत्रण पर वहां की १३ से १९ सितम्बर तक सात दिन की यात्रा की है। शरद यादव के नेतृत्व वाले इस प्रतिनिधिमंडल में सुरेश निरंजन भइयाजी भी शामिल थे। जो मूल रूप से जालौन जिले के रहने वाले हैं और कई वर्षों से उत्तर प्रदेश जनता दल यू के अध्यक्ष हैं। चीन में उन्होंने जो कुछ देखा उसके बारे में मैंने उनसे कई जिज्ञासाएं कीं, जिनके बड़े दिलचस्प जवाब मिले।
मेरा पहला सवाल यह था कि चीन में विदेशियों को बेहद शक की निगाह से देखा जाता है और हर समय उनकी पहरेदारी की जाती है। भले ही वे मेहमान के तौर पर क्यों न गए हों? क्या आपके सिर पर भी चीन की जनसेना के लोग वहां के प्रवास के दौरान सवार रहते थे? भइयाजी ने कहा कि हो सकता है पहले ऐसा होता रहा हो, लेकिन हम लोगों को जब तक चीन में रहे एक भी दिन ऐसा नहीं लगा कि हमारी जासूसी कराई जा रही है या टोकाटाकी जैसी स्थिति का भी सामना हम लोगों को नहीं करना पड़ा। इसके पहले भइयाजी ने चीन की राजधानी बीजिंग, शंघाई शहर और औद्योगिक नगरी कंझाऊ जैसे शहरों की भव्यता का वर्णन किया। जहां हर रोज रात में दीपावली जैसी जगमगाहट रहती है। हर शहर में नदी है, जिनका पानी स्फटिक की तरह स्वच्छ है। नदी से बड़े पैमाने पर माल परिवहन और यात्री परिवहन होता है। हर नदी के किनारे कई खूबसूरत पिकनिक स्पॉट बने हुए हैं, जहां सैलानियों की भीड़ रहती है। इस पर मैंने उनसे फिर सवाल दाग दिया कि आपको वहां विदेशी सैलानी नजर आए या नहीं, अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों के आने से चीन को कितनी आमदनी सालाना हो जाती है? भइयाजी ने बताया कि मैंने चीन के अधिकारियों से पर्यटन से होने वाली आय के बारे में तो नहीं पूछा लेकिन मुझे वहां के पर्यटक स्थलों पर खासी संख्या में यूरोप व अन्य मुल्कों के लोग दिखाई दिए।
चीन की लौह गोपनीयता को लेकर अपनी जिज्ञासाओं का अंत करने के बाद मैं उनके साथ जुट गया आर्थिक क्षेत्र में उसके द्वारा दिखाई गई महारत का रहस्य जानने में, कम्युनिस्टों को व्यापारी और मुनाफा विरोधी माना जाता है, लेकिन यह विरोधाभास है कि चीन ने मुनाफा बटोरने में अमेरिका सहित सारे पश्चिमी देशों के कान काट रखे हैं। मुझे लगता है कि चीन में इंफ्रास्ट्रक्चर की समय से पहले जो व्यवस्थाएं की जाती हैं उसमें इस रहस्य की कुंजी रखी हुई है। मैंने उनसे विद्युत उत्पादन के मामले में भारत और चीन की स्थिति का अंतर पूछा तो उन्होंने बताया कि चीनी अधिकारियों से इस पर चर्चा हुई थी तो जानकारी हुई कि भारत में जहां अभी तक केवल डेढ़ लाख मेगाटन बिजली का उत्पादन हो रहा है वहीं चीन में १५ लाख टन बिजली पैदा की जाती है। भारतीय दूतावास के अधिकारियों ने भी चीनी सूचनाओं की पुष्टि की। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या इतनी ज्यादा बिजली पैदा करने में सक्षमता आणविक ऊर्जा केंद्रों के विस्तार की वजह से हुई? इस पर भइयाजी का कहना था कि आणविक बिजलीघर तो चीन में इक्का-दुक्का ही हैं। बिजली का मुख्य स्रोत चीन में थर्मल पावर स्टेशन ही हैं। पर्याप्त बिजली मिलने की वजह से ही चीन में जनरेटर के दर्शन कहीं नहीं होते। कारखानों के लिए तो भरपूर बिजली मिलती ही है। शहरों की सजावट के लिए भी बिजली की कमी नहीं है। अकेले शंघाई शहर में बिजली की खपत २० हजार मेगाटन प्रतिमाह है। फैक्ट्रियों की भरमार के बावजूद भइयाजी व जनता दल यू के अन्य नेताओं को चीन में कहीं प्रदूषण नजर नहीं आया। वहां फैक्ट्रियों के अपद्रव्यों का प्रबंधन शायद उच्च कोटि का है। यही वजह है कि शहर के बीच से होकर बहने के बावजूद फैक्ट्रियों के उत्प्रवाह से किसी चीनी नदी में मलिनता पैदा होने की कोई शिकायत नहीं देखी जाती।

चीन की ऊंची अट्टालिकाओं का दृश्य।
चीन की ऊंची अट्टालिकाओं का दृश्य।

जाम जिसने भारत में जनशक्ति की ऊर्जा और समय की भारी बर्बादी कर रखी है, उसकी समस्या भइयाजी को चीन में नदारत दिखी। भइयाजी ने बताया कि एक तो पूरे चीन में सड़कों का संजाल काफी घना है, दूसरे देहाती मार्ग तक फोर और सिक्स लेन हैं। ओवरब्रिज भी हर चौराहे पर बने हैं और कई-कई मंजिल के हैं। इस कारण जाम का सवाल ही नहीं है। हालांकि पीक ऑवर्स में शाम को चार से छह बजे के बीच के समय में उन्होंने महसूस किया कि ट्रैफिक का रश बढ़ने की वजह से कुछ इलाकों में गाड़ियों को रफ्तार धीमी रखकर आगे बढ़ना पड़ता है। चीन की आबादी भारत से बहुत ज्यादा है। भारत में रोना रोया जाता है कि भीषण आबादी के कारण घर और फैक्ट्रियां बनाने में सारी जमीनें कवर हो चुकी हैं। अब पेड़ कहां लगें, लेकिन भइयाजी ने बताया कि चीन में हरियाली का फैलाव बेहद विस्तृत है। हर नगर में सड़क के दोनों किनारों पर वृक्षों की कतार बहुत ही घनी है। इसके अलावा वहां वृक्ष मैदान के बाद पहाड़ों तक अपने झुरमुट फैलाए दिखाई देते हैं।
शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर मैंने उनसे पूछा कि इन क्षेत्रों में भी क्या प्राइवेट सेक्टर को घुसपैठ करने की अनुमति भारत की तरह चीन में दी गई है तो भइयाजी ने बताया कि हमारा प्रतिनिधिमंडल चीनी अधिकारियों से यह जानकारी नहीं ले पाया, लेकिन उन्होंने अपनी ओर से इस बारे में जिस तरह चर्चा की, उससे मेरा अनुमान यह है कि चीन में शिक्षा और स्वास्थ्य पूरी तरह पब्लिक सेक्टर में है। कानून व्यवस्था के सम्बंध में उन्होंने बताया शायद चीन में स्वतः अनुशासित इतना ज्यादा हैं कि पुलिस की जरूरत बहुत कम है। हम लोगों को यदाकदा ही वहां पुलिसकर्मी दिखाई दिए। न्याय प्रशासन के बारे में मैंने पूछा क्या वहां भी मुकदमे अनंतकाल तक चलते हैं और अदालतों में विलम्बित मुकदमों की भरमार है, तो भइयाजी ने कहा कि इन नुक्तों पर भी चीनी अधिकारियों से उनकी औपचारिक चर्चा नहीं हो पाई, लेकिन उन्होंने अपनी तरफ से यह जरूर जानकारी दी कि हमारे यहां हर मुकदमा निस्तारित करने का समय निर्धारित है। अंदाजा है कि समयबद्ध निस्तारण पर जोर की वजह से वहां विलम्बित मुकदमों की संख्या न्यून ही होगी।
चीनी समाज के बारे में चर्चा हुई। सीमा विवाद को लेकर भारत और चीन की सरकारों में शुरू से तल्खी बनी हुई है। क्या इसका प्रतिबिम्ब चीन जाने वाले भारतीयों के साथ चीनियों के व्यवहार में परिलक्षित होता है, इस जिज्ञासा पर भइयाजी का उत्तर यह था कि वहां २० वर्ष से व्यवसाय चला रहे कुछ भारतीय व्यापारियों से बात हुई। उन्होंने कहा कि चीनियों में भारतीयों के प्रति लगाव सा है। संकट का मौका आने पर हमें यहां के लोगों से जिस तरह से मदद मिली उससे पराए देश में रहने के कारण जो डर और असुरक्षा का भाव रहता है उससे हम लोग मुक्त हैं। चीन में न अधिकारी अंग्रेजी में बात करते हैं न व्यापारी। भइयाजी ने बताया कि १५ सितम्बर को बीजिंग में भारतीय दूतावास में हिंदी दिवस का कार्यक्रम आयोजित किया। एक चीनी प्रोफेसर, जो हिंदी के अच्छे जानकार थे, उन्होंने भी सम्बोधित किया। उन्होंने इस बात को लेकर हम लोगों की चुटकी ली कि चीन में तो कोई अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेजी का दामन थामने की कोशिश नहीं करता, लेकिन भारतीयों में न जाने क्या वजह है, वे अंग्रेजी की बजाय स्वदेशी भाषाओं में बात करने में शर्म महसूस करने लगते हैं। भइयाजी के अनुभव भारत में चीन को लेकर पेश की जाने वाली तस्वीर से एकदम अलग रहे। हो सकता है कि अच्छे आतिथ्य सत्कार का प्रभाव भइयाजी पर हो, लेकिन तथ्यात्मक जानकारियां तो गलत नहीं हो सकतीं। चीन में सड़कों और ओवरब्रिज पर खर्च करने के लिए इतना धन कहां से आया। वहां कम्युनिस्ट निजाम था। पश्चिमी अर्थ विशेषज्ञ कहते हैं कि कम्युनिस्ट देशों में आर्थिक विकास दर का चक्का जाम हो जाता है क्योंकि निजी सम्पत्ति का अधिकार न होने और श्रम करने की बाध्यता के कारण वहां उत्पादन सीमित रहता है। अगर यह सही होता तो चीनी सरकार के पास इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए इतना काम कराने के लिए प्रचुर संसाधन कहां से जुट जाते।
भारत में तो प्रतिस्पर्धात्मक व्यापार प्रणाली को लागू हुए दो दशक गुजर चुके हैं। इसके पहले भी यहां कोई नियंत्रित अर्थव्यवस्था नहीं थी तो भी भारत सरकार संसाधनों के मामले में इतनी गरीब क्यों है कि जब अंग्रेजों के समय बनी महत्वपूर्ण सड़कों के पुल ढह जाते हैं तब भी नये पुल बनाने के लिए उसके पास पैसा नहीं होता। नये बाईपास और ओवरब्रिज बनाने के लिए धन आए कहां से। भारत के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को तो संसाधनों की कमी के कारण कहना पड़ा कि पैसा पेड़ों पर नहीं उगता, यहां तो इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए सरकार को अपनी फैक्ट्रियां बेचनी पड़ रही हैं। फिर भी उसकी सामर्थ्य जवाब दे गई और निजी कम्पनियों के हवाले उसे सड़क निर्माण व यातायात व्यवस्था करनी पड़ी, जिससे आवागमन में भी लोग मुनाफाखोरी का दंश झेल रहे हैं।
नियंत्रित अर्थव्यवस्था और मुक्त अर्थव्यवस्था की बहस कितनी थोथी है, यह बात भारत और चीन की तुलना से स्पष्ट होती है। भारत के पिछड़ने के तमाम और कारणों पर परदा डालने के लिए मुक्त अर्थव्यवस्था को जिस तरह रामवाण के रूप में पेश किया गया है वह आगे चलकर इसी वजह से छलावा सिद्ध होगा। मूलभूत व्यवस्थाएं ठीक किए बिना हम मुक्त या प्रतिबंधित कोई भी निजाम बनाएं वांछित नतीजे नहीं दे सकते।

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