‘कैरियर’ की नयी परिभाषा लिख डाली नीरजा ने
बालिकाओं को पढ़ाती नीरजा।
अन्य युवक युवतियों से अलग हटकर कस्तूरबा बालिका विद्यालय जालौन की वार्डेन नीरजा तिवारी ने ‘कैरियर’ की वास्तविक और सार्थक परिभाषा गढ़ डाली। उपेक्षित बच्चों के लिए कुछ करने की लगन उन्हें महानगर से देहातनुमा कस्बे में खींच लायी। 3 साल में यहां उन्होंने गरीब परिवारों की ड्राप आउट बालिकाओं को न केवल शिक्षा की मुख्य धारा से वापस जोड़ा बल्कि उन्हें अपने बेहतर भविष्य के लिए आगे बढऩे की दिशा में आत्म विश्वास से लबरेज कर दिया।
मूलत: कानपुर की रहने वालीं नीरजा तिवारी के पिता सुदूर राज्य में नौकरी करते हैं। उनकी शिक्षिका मां ने उनकी परवरिश इस तरह की कि उनमें हाशिये पर खड़े लोगों के लिए जज्बा बचपन से ही घर कर गया। वे कानपुर में एक निजी कंपनी में आकर्षक वेतन पर काम करती थीं लेकिन गरीब बच्चों के लिए कुछ करने का मौका सामने आने पर उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी। भले ही यहां कम वेतन मिलता है लेकिन वे खुश हैं क्योंकि जिन्हें वास्तव में जरूरत है वे उनके लिए काम कर रही हैं। यह अहसास उनके लिए बहुत महत्व रखता है।
शोभा, शानी, श्वेता, पूजा आदि यहां पढऩे वाली बालिकाओं में से किसी के अभिभावक रिक्शा चलाते हैं तो किसी के ईंटा गारा देते हैं। इसके बावजूद नीरजा के मन में उनके लिए कोई हीन भाव नहीं बल्कि पूरा अपनत्व है। शुरू से ही लीक से हटकर करने की ललक की वजह से उन्होंने उर्दू में बीएड के समकक्ष मुअल्लिम की डिग्री हासिल की है। मुस्लिम परिवारों की लड़कियों को कस्तूरबा विद्यालय से जोडऩे में यह ‘अतिरिक्त योग्यता’ उन्हें काफी काम दे रही है। अफरोज नाम की लड़की का उसके घरवालों ने उनके उर्दू जानने की वजह से ही कस्तूरबा में दाखिल कराया। बाद में किसी कारण से वे बच्ची को वापस ले जाने लगे तो अफरोज ‘दीदी’ से ही पढऩे के लिए अड़ गयी। नीरजा को पिछले साल दिल्ली के एक कान्वेंट से आफर मिला था लेकिन उन पर प्रलोभन कारगर नहीं हुआ। नीरजा का कहना है कि वे अपनी तनख्वाह का एक प्रतिशत हिस्सा अलग से जमा करती हैं। उनकी योजना है कि आठवीं पास कर लेने के बाद भी यहां की अत्यंत प्रतिभाशाली बालिकाओं की शिक्षा का क्रम टूटने नहीं देंगी। उनका खर्चा वे इसी फंड से उठायेंगी।
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