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भुला दिया भदेख के राजा परीक्षित का त्याग

मुक्त विचार
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प्रथम स्वाधीनता संग्राम के दौरान जिन लोगों ने मातृभूमि की आन, बान, शान के लिए अपने आपको मिटा देने में संकोच नहीं किया उनमें भदेख के राजा परीक्षित का नाम भी शीर्ष पंक्ति में रखा जा सकता है। फिरंगियों द्वारा बाद में तोप के गोले बरसाकर उनकी गढ़ी को ध्वस्त कर दिया गया था जिसके भग्नावशेष आज भी उस गुजरे दौर की मूक गवाही देते प्रतीत हो रहे हैं। हालांकि, आजादी के इतने दिनों बाद भी न यहां कोई आयोजन कर राजा परीक्षित के देश के प्रति योगदान को वर्तमान पीढ़ी को बताने की आवश्यकता महसूस की गई है और न ही उनकी गढ़ी के भग्नावशेषों को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने जैसा कोई कदम उठाया गया। राष्ट्रभक्तों की इस उपेक्षा को लेकर स्वाधीन भारत की सरकारें कटघरे में खड़ी नजर आती हैं।
बुजुर्ग इतिहासकार देवेंद्र कुमार सिंह बताते हैं कि जनपद जालौन के कुठौंद विकास खंड के अंतर्गत आने वाला भदेख गांव आज भले ही हाशिये पर नजर आता है लेकिन किसी समय यह २६ गांवों की रियासत का मुख्यालय था। २२ नवंबर १८०५ को ग्वालियर के दौलतराव सिंधिया और ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य मुस्तफापुर में एक संधि हुई जिसके मुताबिक भदेख गांव ईस्ट इंडिया कम्पनी को दे दिया गया। कम्पनी सरकार अपना राजस्व वसूलने में बड़ी क्रूर थी। चाहे रियासत में महामारी हो या अकाल, उसकी तरफ से कोई रियायत नहीं थी। दूसरी ओर राजा परीक्षित दयालु स्वभाव के थे। आपदा के समय लगान वसूली के लिए रियाया पर कड़ाई करना उन्हें गवारा नहीं होता था। इस कारण राजा परीक्षित पर कम्पनी सरकार की देनदारी बढ़ती गई और सरकारी अधिकारी, कर्मचारी बार-बार उनके यहां पहुंचने लगे। स्वाभिमानी राजा परीक्षित को ईस्ट इंडिया कम्पनी के इस रवैये से बहुत ही जलालत महसूस होने लगी और धीरे-धीरे उनके मन में बगावती भावनाओं का तूफान उठना शुरू हो गया।
१८५७ में जैसे ही क्रांति का शंखनाद हुआ राजा परीक्षित को मौका मिल गया। अक्टूबर के महीने में तात्या टोपे से प्रभावित ग्वालियर राज के सैनिक कई टुकड़ियों में अलग-अलग दलों में जालौन की ओर आने लगे थे। ये सब उस समय तक जालौन के बाहर लगभग एक माह रुके रहे जब तक कि तात्या टोपे जालौन नहीं आ गए। इस पूरे समय परीक्षित ने ग्वालियर के सैनिकों की रसद, घोड़ों के लिए चारा, भूसा आदि की व्यवस्था की। कुछ समय बाद कानपुर पर पुनः अधिकार के लिए तात्या टोपे के साथ जब ग्वालियर की सेना गई तब उके साथ भदेख नरेश के सैनिक भी गये थे। ६ दिसम्बर १८५७ को कानपुर में क्रांतिकारियों और फिरंगियों के बीच निर्णायक संग्राम हुआ, जिसमें दुर्भाग्य से क्रांतिकारियों को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
राजा परीक्षित को इससे गहरा सदमा लगा और जहर खाकर उन्होंने आत्म बलिदान दे दिया। क्रांतिकारियों के शिवर में जब उनकी मौत की खबर पहुंची तो तात्या टोपे सहित सभी दिग्गज हतप्रभ रह गए। बाद में तात्या टोपे ने उनकी विधवा रानी चंदेलन जू से सम्पर्क किया। उनकी सलाह से चंदेलन जू ने अपने एक प्रमुख के पुत्र को गोद ले लिया क्योंकि राजा निःसंतान चल बसे थे और उसे उत्तराधिकारी घोषित कर पवित्र धरती से उखाड़ने के अधूरे अरमान को पूरा करने में तत्पर हो गयीं। कैप्टेन टरनन को इसकी सूचना मिली तो उसने भदेख पर अधिकार के लिए तोपों के साथ बड़ी सेना भेजी। इस तरह उसने रानी को कैद करा लिया और तोप के लोगों से पूरी गढ़ी ढहा दी। कम्पनी सरकार ने बाद में उनकी पूरी रियासत नीलाम कर दी। परमार्थ संस्था के सचिव संजय सिंह का कहना है कि भदेख के राजा परीक्षित का स्मारक आजादी के बाद बनवाया जाना चाहिए था। इस पर गौर न कर सरकारों ने बहुत बड़ी चूक की है।
वयोवृद्ध समाजसेवी परम सिंह चतुर्वेदी भी राजा परीक्षित और रानी चंदेलन जू देव जैसे देशभक्तों की कीर्ति गाथा को विस्मृत किये जाने से आहत हैं। उन्होंने इस सम्बंध में पूर्व में इस क्षेत्र से विधायक और होमगार्ड मंत्री रहे हरिओम उपाध्याय से भी यहां पर राजा परीक्षित का स्मारक बनवाने के लिए पहल करने की बात कही थी। हालांकि, सूबे में सियासी परिवर्तन हो गया परंतु अभी तक राजा परीक्षित को उचित सम्मान और उनकी याद में स्मारक बनाए जाने का प्रयास शुरू नहीं हो सका है।

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