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सड़कें टूटने का नहीं कोई हिसाब-किताब

मुक्त विचार
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जालौन जिले में बालू खनन से जितनी आय नहीं होती उससे ज्यादा की सड़कें टूट जाती हैं। सरकार को हिसाबी किताबी होना पड़ेगा। साथ ही यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि सड़क निर्माण का बुनियादी तौर पर संबंध बालू परिवहन से नहीं है। लोगों को तीव्र आवागमन की सुविधा प्रदान करने के लिये सड़क बनाने की आवश्यकता का आविष्कार हुआ पर हो उलटा रहा है। जिन सड़कों पर 10 वर्ष पहले एक घंटे में गंतव्य तय हो जाता था उन पर अब पूरा दिन गुजारने के बाद भी मंजिल मिल जाये यह गारंटी नहीं रही। यही नहीं बसें जिनसे आम आदमी सफर करते हैं आबादी बढऩे के साथ बढऩा चाहिये लेकिन हर रूट पर उनकी संख्या पिछले दो दशकों की तुलना में घट कर आधी रह गयी है। सड़कों की इस दशा से भौतिक विकास के साथ-साथ मानवीय उत्थान पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है।
बेतवा की लाल मौरंग सबसे अच्छी मानी जाती है जिसकी वजह से कदौरा और डकोर क्षेत्र में जहां बेतवा के बालू खनन खंड हैं सड़कें सर्वाधिक खराब हैं। इटौरा बबीना सड़क हो या कुइया रोड सब जगह सफर में नारकीय अनुभव का भोक्ता बनना पड़ता है। जोल्हूपुर कदौरा मार्ग तो मौरंग ट्रकों के परिवहन की वजह से विश्व की सबसे खराब सड़क में शुमार करार दिया जा चुका है। यहां तक कि आटा से कालपी तक बहुत मजबूती से बनायी गयी फोरलेन को भी ओवरलोड मौरंग ट्रकों ने भेद दिया है। अब तो रामपुरा माधौगढ़ क्षेत्र में पचनद से खनन कर गुजर रहे वाहनों के कारण सड़कों की हालत बुरी है। मध्य प्रदेश में काली सिंध और क्वारी, चंबल की बालू लादकर ट्रक जालौन जिले की सीमा से कानपुर भेजे जा रहे हैं। इस कारण जिले के मध्य प्रदेश से जुड़े रोड भी तबाह हो गये हैं। बालू लदे वाहनों के परिवहन ने महाराजपुरा, निनावली जागीर जैसे पुल बन जाने के कारण मध्य प्रदेश आवागमन के लिये उभरे नये रूटों का भी सत्यानाश कर दिया है। जिस जिले में चारों तरफ यातायात की नब्ज जाम हो चुकी हो और फिर भी लोग बर्दाश्त कर रहे हों उसमें सिविक सेंस की उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में मतदान की गुणवत्ता सुधरेगी, स्वच्छ लोकतंत्र कायम होगा यह कल्पना छलावे के अलावा कुछ नहीं है। लोगों के रहन-सहन के स्तर को उस लायक बनाना चाहिये कि उस भौतिक परिवेश में उनके बौद्धिक संस्कारों को अपेक्षा के अनुरूप आकार दिया जा सके। देश में मानव संसाधन विभाग जरूर बना दिया गया है लेकिन ऐसा लगता है कि व्यवस्था के कर्ताधर्ताओं में मानव संसाधन विकास के उद्देश्यों को लेकर किसी तरह की चिंता नहीं है।

बहरहाल अब चूने से बनने वाले मकानों के युग में तो नहीं लौटा जा सकता जिससे निर्माण कार्यों के लिये बालू की उठान और परिवहन लाजिमी है लेकिन सड़क सुरक्षा के साथ इस मामले में संतुलन बनाना होगा। फिलहाल तो यह किया जा सकता है कि मुख्य जिला सड़क, अन्य जिला सड़क और संपर्क मार्ग श्रेणी की सड़कों पर बालू परिवहन के लिये सिर्फ ट्रैक्टरों को ही इजाजत दी जाये। बल्कि राज्य मार्ग पर भी ट्रकों से बालू परिवहन प्रतिबंधित होना चाहिये। केवल फोर लेन और सिक्स लेन पर ही ट्रकों से बालू परिवहन हो। जहां डंपर, दस टायरा और अन्य ऐसे ही उच्च भार वाले वाहन चलते हों उस मार्ग की सड़क के मानक और उन्नत किये जायें।

पुलों की समय सीमा पर फिर से हो विचार

जालौन जिले में 1982-83 में उरई-राठ सड़क पर मुहाना के पास 100 वर्ष की गारंटी के लिये बनाया गया पुल बुरी तरह क्षतिग्रस्त है फिर भी पुल के पुनर्निर्माण की कोई योजना नहीं बन रही है। ऐसे कई पुल हैं जो उस समय बनाये गये थे जब अनुमान नहीं था कि हर साल ट्रकों की इतनी ज्यादा संख्या बढ़ेगी और डंपर व दस टायरा जैसे परंपरागत ट्रकों से कई टन ज्यादा लोड के वाहनों का आवागमन उन्हें झेलना पड़ेगा। लोक निर्माण विभाग के अभियंताओं की बुद्धि इतनी कुंद है कि वे इस समस्या को लेकर जागरूक नहीं हो पा रहे। सरकार को ऐसे सारे पुलों की समय सीमा की समीक्षा करनी चाहिये जिनसे होकर अत्यधिक भार क्षमता वाले वाहनों का आवागमन होता है और उनकी वास्तविक मियाद का आंकलन कर समय रहते नयी व्यवस्था करने की नीति बनायी जानी चाहिये। अंग्रेजों के समय नालों पर बने सभी पुल ध्वस्त होने के कगार पर हैं फिर भी नये के निर्माण को मंजूरी देने के लिये कोई हादसा होने या सालों तक लोगों के आवागमन की स्थितियां अभिशप्त बन जाने का इंतजार किया जा रहा है। यह हालात नालायक गवर्नेस के सबसे बड़े नमूने साबित हो रहे हैं। इस पर जरूर गौर फरमाया जाना चाहिये।

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