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पहले स्वतंत्रता संग्राम के सूरमाओं की स्मृतियां जालौन क्षेत्र में बिखरी पड़ी हैं। आजादी के पहले ब्रिटिश शासन में तो जालौन को जिला मुख्यालय का दर्जा छीनकर अंग्रेजों ने नीचा दिखाया ही था लेकिन इसके बाद स्वदेशी शासन में भी जालौन के गौरव की परवाह नहीं की गयी। क्रांतिकारी वीरांगना ताईबाई के रनिवास को जमींदोज होने के लिए छोड़ दिया जाना इसका सबसे बड़ा नमूना है।
ताईबाई मराठा राजवंश से संबंधित थीं। शुरू से ही अंग्रेजों की अधीनता से मुक्ति पाने की भावना रखने के कारण उत्तराधिकार के अंग्रेजों द्वारा उत्पन्न झगड़े के सिलसिले में ताईबाई तात्या टोपे के संपर्क में आयीं। उन्होंने ताईबाई के 5 वर्षीय पुत्र गोविंद राव को जालौन की गद्दी पर बैठाकर और उन्हें राज्य की संरक्षिका घोषित कर क्रांतिकारी सरकार के गठन की घोषणा कर दी। इसके बाद ताईबाई ने कानपुर पर पुन: अधिकार के लिए राजकोष से 3 लाख रुपए तत्काल दिये। एक माह से भी कम समय में ताईबाई ने एक बड़ी सेना का गठन कर तात्या टोपे के साथ भेजी। कानपुर की लड़ाई में तात्या टोपे के पराजित होकर लौट आने के बाद भी ताईबाई ने हिम्मत नहीं हारी। उनके द्वारा व्यक्तिगत जेवर बेचकर तैयार की गयी नयी सेना को साथ लेकर तात्या टोपे द्वारा चरखारी पर आक्रमण कर उसे जीता गया। जालौन, कनार, कालपी, आटा, उरई, महोम्मदाबाद, कोटरा, और कोंच इलाके में ताईबाई ने अंग्रेजों का कोई निशान नहीं रहने दिया। इसके बाद किस्मत के दगा दे जाने से एक के बाद एक मोर्चे पर क्रांतिकारियों की पराजय का सिलसिला शुरू हो गया। ताईबाई, उनके पति और पुत्र को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें राजद्रोह छेडऩे के आरोप में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी। मुंगेर बिहार में निर्वासित जीवन में ताईबाई की मृत्यु हुई।
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