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शादी के बंधन से तोड़ा छुआछूत का भ्रम

मुक्त विचार
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सामाजिक क्रांति के अग्रदूत लल्ला बाबू।
सामाजिक क्रांति के अग्रदूत लल्ला बाबू।

सिकरी रहमानपुर के लल्ला बाबू सिंह आम ग्रामीण ही हैं परंतु वह सामाजिक एकता के वे प्रकाशपुंज कहे जा सकते हैं जो उन लोगों पर भारी पड़ते हैं जो जातिवाद के नाम पर ही खुद को चमकाने में लगे रहते हैं। क्षत्रिय होते हुए भी उन्होंने स्वच्छकार समाज की एक बेटी को जिस तरह अपनाया, उस तरह का हौसला कम लोग ही दिखा पाते हैं।

पढ़ाई-लिखाई से दूर रहने वाले लल्ला बाबू सिंह को जब गांधीजी की शिक्षाओं का ज्ञान मिला तो छुआछूत, जातिवाद जैसी बुराइयों को मिटाने में जुट गए। पहल उन्होंने स्वयं से की। हालांकि, शुरू में भय था कि लोग क्या कहेंगे परंतु दृढ़ प्रतिज्ञ लल्ला सिंह ने सब कुछ सहन करने की ठानी। गांव के ही बिरंची से उन्होंने बात की और कहा कि वह उनकी बेटी नीतू की शादी करेंगे। बिरंची यह सुन अचकचा गया क्योंकि लल्ला बाबू क्षत्रिय और वह स्वच्छकार समाज का। यही नहीं उसके परिवार के लोग मैला ढोते थे और शूकर पालन करते थे। सहसा वह भी विश्वास नहीं कर पाया।

पांच साल पहले लल्ला बाबू ने नीतू के लिए वर की तलाश शुरू की। कानपुर देहात के कांधी गांव का वीरन उन्हें नीतू के लिए उपयुक्त लगा। वह इंटर कॉलेज में कर्मचारी था, इसलिए उसके साथ आराम से गृहस्थी चलने में कोई संशय नहीं था। इसके बाद पत्नी श्यामकली के साथ उन्होंने नीतू का कन्यादान लिया और ठीक उसी तरह से शादी की, जिस तरह से लोग अपनी बेटी की शादी करते हैं। द्वारचार से लेकर आतिथ्य सत्कार तक सब कुछ करने में लल्ला बाबू को संतोष मिला। यह रिश्ता केवल यहीं तक सीमित नहीं रहा। आज भी जब रक्षाबंधन, दीपावली या अन्य कोई त्यौहार हो, नीतू गांव आने पर सबसे पहले उन्हीं के घर पर आती है। वे भी अपनी बेटी के मायके आने की तरह ही उसका स्वागत करते हैं। लल्ला बाबू स्वीकारते हैं कि पहले उन्हें लगा था कि कहीं उनके समाज के लोग बिरादरी से बहिष्कृत न कर दें परंतु वे भी उनकी भावना को समझ गए। कहीं कोई विरोध नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि जातिवाद, छुआछूत किसी अभिशाप से कम नहीं। जब तक समाज में समरसता नहीं होगी तब तक एकता कैसे आएगी।

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