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‘शेरनी’ बन दिया अबला को सताने वालों को जवाब

मुक्त विचार
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गीता चौधरी।
गीता चौधरी।

अबला से शेरनी बनने तक की बुंदेलखंड के जालौन जनपद की महिला फेडरेशन की अध्यक्ष गीता चौधरी की दास्तान बेहद मार्मिक है। 27 वर्ष पहले उनके पति का जब निधन हुआ तो उनके दोनों बच्चे काफी छोटे थे। उनका कलेजा तब बाहर निकल आया था जब पति की त्रयोदशी के दिन ही शिक्षक की नौकरी ज्वाइन करने के लिये उनका कॉल लेटर घर आया।
अकेली महिला के लिये अस्तित्व की रक्षा करना और बच्चे पालना कितना मुश्किल है यह उन्हें पति के निधन के बाद एक वर्ष में ही पता चल गया। ससुराल के लोग हमदर्दी जताते हुये मदद करने की बजाय उनके पति की 10 बीघा खेती पर नजरें गड़ाने लगे। जब तक गीता चौधरी अपने को असहाय समझती रहीं उन्हें जुल्म सहने पड़े लेकिन एक दिन उनका धैर्य जवाब दे गया। उनके पिता रतीराम घमूरी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे जिसकी वजह से वे भाकपा के बुजुर्ग नेता कैलाश पाठक को भी बचपन से ही अपने पिता की तरह आदर देती थीं। उनसे मदद मांगने पहुंची तो उन्होंने अपने अधिकारों के लिये मजबूती के साथ लडऩे का हौसला दिया। इसके बाद बाजी पलट गयी और कुछ ही वर्षों में ससुराल वाले नतमस्तक हो गये लेकिन कैलाश पाठक ने उन्हें प्रेरणा दी कि अगर व्यक्तिगत रूप से सुरक्षित होकर तुमने लड़ाई का रास्ता छोड़ दिया तो यह बेईमानी होगी। तुम्हें उस हर अबला को अपनी तरह शेरनी बनाना होगा जो सामाजिक विषमता और भेदभाव के कारण सतायी जा रही है।
गीता ने उनकी बात मान ली और इसके बाद उनके जीवन को एक ध्येय मिल गया। हाल के कुछ वर्षों में उन्होंने सरकारी तंत्र में महिलाओं से करायी जा रही बेगारी के खिलाफ मुहिम छेड़ी। मिड डे मील रसोइया, आंगनबाड़ी कार्यकत्रियों व आशा बहुओं से सरकारी विभागों में मामूली मानदेय पर काम कराना स्त्री के साथ भेदभाव की मानसिकता का नतीजा था। इनके मानदेय की बढ़ोत्तरी के लिये 15 बार उन्होंने सड़कों पर आंदोलन किया जिसकी गूंज लखनऊ और दिल्ली तक सुनायी दी। चार वर्ष पहले उन्होंने पात्र होते हुये भी बीपीएल व अंत्योदय कार्ड से वंचित रखे जा रहे परिवारों के लिये पूर्ति विभाग की नाक में दम कर दिया था। अंततोगत्वा प्रशासन को लहरियापुरवा में रह रहे पांच दर्जन से अधिक ऐसे परिवारों के लिये उक्त कार्ड जारी करने पड़े।
ईदगाह मोहल्ले में बीच बस्ती में शराब का ठेका खोल दिये जाने से महिलाओं के साथ अभद्रता की घटनायें होने की शिकायत जब उन्हें मिली तो वे प्रशासन से सीधे भिड़ गयीं। उनका कहना है कि वे यह ठेका बस्ती में रहने नहीं देंगी। गीता चौधरी बताती हैं कि अब उनके दोनों लड़के चाय-नाश्ते का एक अच्छा होटल चला रहे हैं। उनकी शादी हो गयी हैं और वे सुख-चैन से गृहस्थी चला रहे हैं। अब वे पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त हैं। इस कारण निश्चिंत होकर उन्होंने अपना जीवन शोषित महिलाओं व किसी भी तरह के अन्याय के खिलाफ लोहा लेने के लिये समर्पित कर दिया है।

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