समाजवादी पार्टी के राज्य मुख्यालय पर कुछ दिनों पहले पार्टी के जेरे कयादत पिछड़ी जातियों का सम्मेलन हुआ जिसमें राष्टीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने गुजरे जमाने का पिछड़ों के लिये वह नारा याद दिलाया जिसे लोहिया जी ने गढ़ा था और यह नारा था पिछड़ों ने बांधी गांठ सौ में पावे साठ। पिछड़ों की आबादी उप्र में 60 फीसदी के लगभग है। लोहिया जी को तब यह नारा ईजाद करने की जरूरत महसूस हुयी जब संसद और विधानसभा में 20 फीसदी भी पिछड़े वर्ग के सदस्य नहीं होते थे । यह नारा पिछड़ी जातियों के सोये बल को जगाने में कारगर साबित हुआ और चैधरी चरण सिंह के नेतृत्व में बने लोकदल के बैनर पर नयी चेतना के बदौलत इन जातियों के उम्मीदवारों ने नये नये क्षं़ंे़त्रों में कामयाबी हासिल की । फिर भी पिछड़ी जातियां जितनी राजनीतिक ताकत या भागीदारी की हकदार थी उससे काफी पीछे बनी रहीं। उदाहरण जालौन जिले का ही लें जहो 1989 के पहले कभी यह कल्पना भी नहीं की गयी थी कि कुशवाहा और पाल बिरादरी के भी नेता जिले से एमएलए चुने जा सकते हैं। जब श्रीराम पाल व शिवराम कुशवाहा जीते तब कई मिथक टूटे। पहली बार हाशिये पर पड़ी इन जातियों का वजूद लोगों ने पहचाना। हाल में उरई सदर विधानसभा क्षेत्र में दयाशंकर वर्मा जीते तो यह चैकाने वाला चुनाव परिणाम था क्योंकि जिन जातियों को उम्मीदवारों की किस्मत का तारणहार मानने का रिवाज अभी तक चला आ रहा है उन्होने दयाशंकर वर्मा का कोई समर्थन नहीं किया था। रहस्य यह है कि कुर्मी जिनका जिक्र तक चुनावी चर्चाओं में नहीं हो रहा था वे इकतरफा दयाशंकर वर्मा के साथ रहे। केवल इस एक पिछड़ी जाति के एकजुट समर्थन से दयाशंकर वर्मा का बेड़ा पार हो गया। आश्चर्य की बात यह है कि इसके बावजूद कोई दल लोकसभा चुनाव की रणनीति में कुर्मियों को महत्व नहीं दे रहा है। लेकिन उरई की राजनीतिक परिस्थितियों की समीक्षा विषय नहीे है। बात है पिछड़ों दलितों और अल्पसंख्यकों की विधायी संस्थाओं में समुचित भागीदारी की जो उक्त चुनाव में ब्राह्मणों का उरई में सबसे ज्यादा रूझान कांग्रेस के रामाधीन की ओर था तो जालौन क्षेत्र में भाजपा के गौरीशंकर वर्मा की तरफ। मुसलमान भी उरई में बहुतायत में रामाधीन के साथ रहे। हां जालौन में जरूर दयाशंकर वर्मा का मुसलमानांे का वोट बहुमत में मिल गया था। वैश्य समुदाय की प्रथम वरीयता गौरीशंकर रहे थे जबकि कुछ बुद्धिजीवी वैश्यों ने रामाधीन का साथ दिया था। कोटरा आदि क्षे़़त्र में तो ब्राह्मण वोट दयाशंकर की तुलना में बसपा के श्रीपाल को ज्यादा मिले थे। ठाकुर व गूजर इस विधानसभा क्षे़त्र में भले ही नाममा़त्र के हों उन्हें भी चुनावी आंकलन में ऐसा सूरमा मानकर तौला जाता है जो तूफान की दिशा मोड़कर किसी की भी नैया पार लगाने की क्षमता रखते हैं। यह जातियां भी थोक में दयाशंकर वर्मा से अलग थीं। दयाशंकर फिर भी जीते तो इसका आजादी के कई दशकों तक न्यून रही। लोकतं़त्र के लिये यह अभिशाप की स्थिति थी। लोहिया जी पिछड़ी जाति के नहीं थे लेकिन न्याय के लिये प्रतिबद्धता ने उन्हें पिछड़ों के हक की लड़ाई लड़ने को प्ररित किया। वीपी सिंह भी पिछड़े नहीं थे लेकिन उन्होने भी अंतरात्मा की पुकार पर पिछड़ों की आवाज उठाना अपना फर्ज समझा। न्याय के तकाजे को पूरा करने में हर किसी को हर्ष होना चाहिये। भूमि सुधार हुआ तो जमींदारी उन्मूलन के जरिये भूमिपतियों की सीलिंग से ज्यादा जमीनें छीनकर भूमिहीनों को बांट दी गयी। पिछड़ों को अधिकार देने से इसी तरह राजनीतिक इजारेदारी टूटी। इस परिवर्तन का विरोध प्रतिगामिता है। राजनीतिक दलों का कर्तव्य है कि वे प्रतिगामी प्रवृतियों को हतोत्साहित करें। कम से कम वे नेता जो पिछड़ों के मसीहा बनते हैं उन्हें तो इस मामले में कोई भ्रम नहीं होना चाहिये। लेकिन समाजवादी पंार्टी के नेता जब ब्राह्मण महासभा या अन्य सवर्णों के सम्मेलन में बोलते हैं तो लगता है कि वे राजनीतिक इजारेदारी की पुरानी व्यवस्था को बचाने की सौगंध उठा रहे हों। यह दोमुंहा पन है और नेताओं व पार्टियों को इससे चाहिये। वंचित जातियों का प्रतिनिधित्व विधायी संस्थाओं में बढ़ाने का अभियान अंतरिम कार्रवाई है लेकिन मुख्य लक्ष्य जाति विहीन नये समाज को गढ़ना है जो तब बनेगा जब ऐसे लोग चुने जाने लगेंगे जो सार्वजनिक जीवन में सभी का विश्वास जीतने की कार्यशैली में निपुण हों। कल्याण सिंह के मुख्यमं़ित्रत्वकाल में लखनउू के बख्शी का तालाब इलाके में भाजपा के ब्राह्मण नेताओं की बैठक हुयी थी जिसमें इस बात पर भड़ास निकाली गयी थी कि एक समय प्रदेश की विधानसभा में 125 तक विधायक ब्राह्मण जाति के चुने जाते थे । उनके साथ साजिश हुयी जिससे उनकी संख्या घटती चली गयी। प्रश्न यह है कि इसमें साजिश क्या हुयी। जब सदन में विधायकों की संख्या तय है तो जिन जातियों के लोग जागरूकता की कमी के कारण पहले चुनाव प्रक्रिया से दूर रहते थे वे दावेदारी के लिये आगे आने लगे तो आधिक्य वाली जातियों की संख्या घटना लाजिमी है। जब ब्राह्मण इस मामले में अड़ने की कोशिश करते हैं तो सबसे ज्यादा अफसोस होता है क्योंकि भारतीय समाज में ब्राह्मण अकेली ऐसी कौम जिसने हमेशा से यह साबित किया है कि उनमें समाज के सभी वर्गो को अपने साथ जोड़ने की अदभुत क्षमता है। अगर वे अपना जातिगत जोर दिखाने की रणनीति पर चले तो उनके खिलाफ ध्रुवीकरण तेज होगा लेकिन अगर अपने पूर्वजों का अनुसरण कर वे सबकी श्रद्धा हासिल करने का प्रयास करें तो वे सर्वमान्य होकर हर जगह जीतेंगे। दूसरे समाज के लोगों को भी उनकी इस कामयाबी से पे्ररणा मिलेगी। वर्तमान माहौल में इससे वे एक बार फिर युग निर्माता के बतौर पूजे जायेंगे। ब्राह्मण समाज में इस पर मंथन होना चाहिये क्योंकि देश के लोकतांत्रिक भटकाव को खत्म करने के लिये अब उन्हीं से उम्मीदें बची हैं।
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