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सिर उठाने लगे अतृप्त महत्वांकांक्षाओं के प्रेत

मुक्त विचार
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नरेन्द्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाये जाने के बाद पूरे देश में राजनीतिक उथल पुथल का दौर शुरू हो गया है। मोदी के पीछे अंबानी ग्रुप के नेतृत्व में कारपोरेट लाबी अपने मायावी जाल के साथ हवा बांधने के लिए खड़ी है। पिछले कई महीनों से सोशल साइट्स पर प्रचारकों की एक पूरी फौज पैसा खर्च करके खड़ी कर दी गई है। मीडिया तो वैसे भी कारपोरेट लाबी की बंधुआ है। मुस्लिम शासन के समय से अपनी बहादुरी का नकाब उतर जाने के कारण जिन कायरों के दिलों में इतिहास का बदला लेने की भावनाएं जमा हैं और वे विरासत की तरह पीढ़ी दर पीढ़ी इसके क्रोमोसोम माइंडसेट के तौर पर ट्रांसफर करते रहे हैं जिससे एक बड़ा तबका अचेतन ग्रंथि की गिरफ्त में रहने के लिए अभिशप्त हो चुका है। उसके लिए भी अपनी भावनाओं को सतह पर लाने का माहौल है। लेकिन वितंडा का यह घटाटोप कितना क्षणभंगुर है नये राजनीतिक घटना चक्र ने इसको साफ कर दिया है। राजग को मूर्त रूप देने वाली पार्टियां बीजू जनता दल, तृणमूल काग्रेस और अब जनता दल यू नयी राजनीतिक ताकत को आकार देने में जुटे हैं। यह सिलसिला आगे बढ़ता है तो इस टोली में करूणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, येदुरप्पा भी शामिल हो सकते है। शरद यादव से लेकर शरद पवार तक अतृप्त महत्वांकाक्षाओं के जीते जागते प्रेत है जो एक बार प्रधानमंत्री का ताज सिर पर रखवाने की ख्वाहिश लिए राजनीतिक संसार में भटक रहे हैं। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती भी इसी प्रजाति के नेताओं में है हालांकि उनका सामंजस्य नई गोलबंदी में बन पायेगा यह बात कठिन लग रही है। भाजपा वैसे भी राष्ट्रीय दल का तगमा लिये होने के बावजूद राष्ट्रीय व्याप्ति के संदर्भ में अपनी विकलांगता के कारण बैशाखियों का सहारा लेने को मजबूर है तो अब काग्रंेस की हालत भी कुछ ऐसी ही हो गई है। ऐसे में क्षेत्रीय दल अगर अपनी खिचड़ी अलग पकाने लगे तो मोदी के समर्थकों की भावुक उम्मीदें टूटने से कोई नहीं रोक सकता। क्षेत्रीय दल यह जानते हैं कि समवेत होकर भी वे लोकसभा में अपनी दम पर बहुमत नहीं जुटा पायेगें। उनकी रणनीति यह है कि इस बार समर्थन देने की वजाय राष्ट्रीय दलों से समर्थन लेने की अपनी हैसियत बना सकें। उनकी तिकड़म ने अंदरखाने में राष्ट्रीय दलों की हवा खराब कर रखी है। इस आपाधापी में अपने लिए घात लगाये बैठे मुलायम सिंह को शायद अब अपनी धर्मनिरपेक्षता की कलई खुलने का ज्यादा संकोच नहीं रह गया है। उनकी पहली उम्मीद भाजपा है जिसकी वजह से कुछ महीनों पहले उन्होंने आडवाणी को अपना प्रेरणा पुरूष घोषित कर दिया था अब वे इस माहौल में भी नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कुछ कहने से बच रहे हैं। उनकी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता राजेन्द्र चौधरी ने यद्यपि मोदी पर कुछ तंज कसकर यह जिम्मेदारी पूरी करने का आभास दिलाया है लेकिन बात बन नहीं पा रही। साफ है कि मुलायम सिंह भाजपा के समर्थन से स्वयं की प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को टटोलने में लगे है जिससे वे लगातार पथ भ्रष्ट होते जा रहे है। उनके खेल को मुसलमान नहीं समझ पा रहे होंगे अगर मुलायम सिंह ऐसा सोचते हैं तो वे यह जान ले कि इस मामले में मुसलमान नहीं वे खुद ही नादान है और चुनाव में इसकी वजह से उन्हें भारी झटका झेलना पड़ सकता है। मुलायम सिंह के बेनकाव होने से कोई अगर सबसे ज्यादा खुश है तो वह काग्रेस है जिसका गणित यह है कि भाजपा द्वारा नरेन्द्र मोदी को आगे लाने से अगर मुसलमानों का पूरी तरह ध्रुवीकरण उसके पक्ष में हो गया तो खिसकती बाजी फिर उसकी मुट्ठी में आ जायेगी। वोट कटवा के रूप में मुलायम सिंह से उसे जो खतरा है मुलायम सिंह खुद ही उसका निवारण करने में लगे है। इस तरह राजनीति में नये समीकरण व ध्रुवीकरण के खेल से जितनी अनिश्चितता बढ़ रही है रोमांच भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।

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