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उत्तराखंड की त्रासदी के सबक

मुक्त विचार
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उत्तराखंड की प्राकृतिक आपदा को एक ऐसी अपरिहार्य दुर्घटना साबित करने का कुचक्र शुरू हो गया है जिससे लोगों को भ्रांति हो जाये कि यह तो होना ही था, इसे टालना किसी के बस में नहीं था जिस वजह से कोई इसके लिये दोषी नहीं है। आपदा में हुयी अकाल मौतों की संख्या को कम से कम दर्शाना कपटपूर्ण कवायद का दूसरा पहलू है जिसके लिये अपने ही विधानसभाध्यक्ष को झुठलाने मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सामने आ गये। तीसरे सिस्टम दुरूस्त होता तो इस आपदा पर बहुत कम नुकसान में नियंत्रण हो जाता इस सत्य को स्थापित करना ताकि आपदा नियंत्रण के आयातित ज्ञान और उपकरणों के लिये अंर्तराष्ट्रीय कारोबारी भारत में अपने बाजार को एक और खिड़की ख़ोल सकें।
उत्तराखंड की आपदा को अवश्यम्भावी सिद्ध करने की प्रस्तावना के तहत पहले भारतीय वैज्ञानिकों की ओर से तैयार वे सेटेलाइट चित्र जारी किये गये जिनसे जाहिर हुआ कि न तो कोई बादल फटा न सरोवर टूटा केदारनाथ के पास 2 ग्लेशियरों के पिघलने से आकस्मिक तौर पर विनाशलीला शुरू हुयी। इसके बाद अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन नासा द्वारा 25 दिन पहले ही केदारनाथ के पास हिमनदों के पिघलने के चित्र जारी किये जाने की खबर आयी । बताया गया कि नालायक भारतीय वैज्ञानिकों ने इसे संज्ञान में नहीं लिया वरना आपदा नियंत्रण तंत्र को समय रहते सक्रिय किया जा सकता था।
आपदा को लेकर असंगत सूचनाओं का अंबार सुनियोजित साजिश के तहत लगाया जा रहा है जिससे मतिभ्रम की ऐसी स्थिति पैदा हो जाये कि असली मुददों से लोगों का ध्यान बंट जाये और इसमें काफी हद तक बाजार व सत्ता के धूर्तों को कामयाबी भी मिली है लेकिन शुभ संकेत यह है कि कुछ लोग जो ज्ञान की महारत रखने का दावा नहीं करते प्रपंच की इस बाढ़ में विवेक को सहेजे हुये वे बातें उठा रहे हैं जो उठनी ही चाहिये। टुकड़ो टुकड़ो में हो रही इस तरह की सारी बहसों का निचोड़ एक ही है कि आध्यात्मिक आवश्यकताओं को हाशिये पर डालकर विलासिता के आग्रह के प्रति अंध समर्पण के लिये अस्तित्व का खतरा ही उपस्थित करेगा। हिमालय में जहां साधना और वैराग्य के लिये जाने की परंपरा थी वहां हनीमून को पहुंचने का चलन शुरू कर दिया गया। ऐसे सुविधाभोगियों के लिये ही पहाड़ों को डायनामायट से तोड़कर चैड़ी सड़कें बनाने की जरूरत पड़ी ताकि उनकी फर्राटेदार गाडि़यों के लिये कोई रूकावट न रहे। इन्हीं के आराम के लिये नदियों के तटों पर महलनुमा होटल खड़े करने की जरूरत पड़ी । बिजली पैदा करने के लिये कितने प्राकृतिक संसाधनों की जरूरत होती है यह जानते हुये भी समर्थ लोगों की जीवन शैली इस तरह से ढाली जा रही है कि जितने में पूरे शहर को रोशन किया जाता है उतनी यूनिट एक ही कोठी में खप जाये। उत्तराखंड में पर्यावरण के लिये निरापद पन विद्युत परियोजनाओं का तांता इन हालातों में कभी रूकेगा यह नहीं माना जा सकता । इसके बाद भी यह कहा जायेगा कि आपदा की होनी तो होकर ही रहती।
विज्ञान के आविष्कार समूचे मानवीय जीवन को सुखी बनाने के नाम पर हो रहे हैं लेकिन हालत यह है कि जैसे -जैसे विकास का पहिया दौड़ रहा है आम लोग और ज्यादा अभावग्रस्त होते जा रहे हैं। उपभोगवादी संस्कृति ने चंद लोगों के ऐशो आराम के लिये पूरी मानवता के बलिदान को बढ़ावा दिया है । अब इसका विकल्प खोजा हो जाना चाहिये । शांति और संुख की अनुभूतियां शारीरिक नहीं मानसिक होती हैं। इस सत्य की पहचान लें तो अमीर और गरीब सब जीवन निर्वाह की पद्धति पर एक धरातल पर खड़़े हो सकते हैं। उत्तराखंड की त्रासदी का यह सबक दुनियां को कुछ बदल सके तो नयी सुबह का आगाज हो सकती है।

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