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काली भेड़ों से छुटकारे की जरूरत

मुक्त विचार
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उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग द्वारा पिछड़ों के आरक्षण की हाल में लागू नयी व्यवस्था को बहाल रहने देने की मांग को लेकर छिड़े आन्दोलन की वजह से राज्य की सपा सरकार के लिये न निगलते, न उगलते जैसी स्थिति बन गयी है। भले ही सपा का आज जो भी प्रभुत्व है वह हाशिये पर पड़ी जातियों द्वारा मुलायम सिंह को टूटकर दिये गये समर्थन की वजह से हो लेकिन जहां तक मुलायम सिंह का सवाल है उन्हें इनसे कोई खास मोहब्बत नहीं है। वास्तविकता यह है कि मुलायम सिंह ने केवल खुद की एकाधिकारवादी सत्ता कायम करने पर ध्यान दिया है और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे शुरू से ही सामाजिक परिवर्तन के लिये संघर्ष के मामले में एक कदम आगे, दो कदम पीछे होते रहे। मुलायम सिंह को पिछड़ों से चिढऩे वाले वर्ग और नेताओं की सहानुभूति बतौर ब्याज इसीलिये मिलती रही कि उन्होंने अपनी पारखी नजरों से बहुत पहले ही यह जान लिया था कि नेताजी सामाजिक क्रान्ति के विस्फोट को सेफ्टी बाल्व की तरह बेअसर कर देने वाले उपकरण हैं जिससे उनके कारण यथास्थिति वाद के लिये किसी किस्म का खतरा नहीं है बल्कि प्रतिक्रान्ति के सबसे बड़े संवाहक माननीय नेताजी ही साबित होंगे। यह संयोग नहीं है कि अखिलेश सरकार ने पदारूढ़ होते ही अनुसूचित जाति, जनजातियों के लिये पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था समाप्त करने का कदम उठाने का काम सबसे पहले किया और अब वे पिछड़ों के हितों पर भी कुठाराघात कर बैठे हैं। राजनीति के सबसे बड़े कैरियरिस्ट मुलायम सिंह की सामाजिक न्याय की प्रतिबद्घता के साथ दगा करने की नीयत जनता दल के समय ही तब उजागर हो गयी थी जब वीपी सिंह द्वारा मण्डल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के बाद वे पिछड़ा विरोधियों के पाले में खड़े होने से नहीं हिचकिचाये थे। चन्द्रशेखर को समाजवादी के तौर पर चाहे जितना महिमामंडित किया जाये लेकिन वास्तविकता में वे सिर्फ कट्टर ठाकुरों की जमात के मुखिया भर थे जो तथाकथित निचली जातियों को सिर चढ़ाना किसी कीमत पर गवारा नहीं करते। यहां तक कि जनता दल विभाजित होने के बाद चन्द्रशेखर की उपस्थिति में बलिया में हुई सभा में मुख्यमंत्री होते हुए भी वहां के ठाकुरों ने मुलायम सिंह को जूते दिखाने की हद तक अपमानित करते हुए जातिवादी अहंकार का प्रदर्शन किया था। आज मुलायम सिंह बाबरी मस्जिद गिराये जाने के मामले में तत्कालीन राष्ट्रपति डा.शंकर दयाल शर्मा का हवाला देकर कांग्रेस पर निशाना साध रहे हैं जो धूर्तता की पराकाष्ठा है। शंकरदयाल शर्मा ने जब पहली बार 13 दिन के लिये अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार गठित करायी थी तभी प्रगतिशील नेताओं और बुद्घिजीवियों ने उनकी नीयत पर उंगली उठाई थी लेकिन उस समय मुलायम सिंह तो शंकर दयाल शर्मा के खिलाफ एक शब्द नहीं बोले थे। नरसिंहराव, शंकरदयाल शर्मा के युग की कांग्रेस से सोनिया गांधी का क्या लेना-देना। उस समय तो वे किसी दृश्य में थी नहीं बल्कि उन्होंने तो खुद और अपने परिवार को हमेशा के लिये राजनीति से दूर ले जाने का निर्णय कर लिया था। दिसम्बर 92 में बाबरी मस्जिद ढहाई गयी और इसी सन और महीने में इन्दिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में उच्चतम न्यायालय का यह फैसला आया कि पिछड़ों को आरक्षण देने का कदम पूरी तरह संविधान की भावना के अनुरूप है। इससे दलितों, पिछड़ों और मुसलमानों में तूफान खड़ा हो गया जिसके वेग के आगे नरसिंहराव सरकार के पैर उखड़ते नजर आने लगे। इस तूफान के केन्द्र बिन्दु रामो-वामो को अपने घर में ही पीटने के लिये उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने बसपा के साथ समझौता करके चुनाव लडऩा तय किया। नरसिंहराव की आत्मा वे जहां भी होंगे मुलायम सिंह को आशीर्वाद देती होगी क्योंकि उन्होंने मुसलमानों और पिछड़ों के साथ जो ऐतिहासिक विश्वासघात किया उसी की वजह से राव सरकार अल्पमत में होते हुए भी अपना कार्यकाल पूरा कर सकी और इसके बाद भाजपा की सरकार आने की भूमिका राव सरकार द्वारा कोने में जा गिरे अटल बिहारी बाजपेयी को सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार देकर फिर लाइमलाइट में लाने जैसे हथकंडों से तैयार हुई। आखिर यूं ही नहीं कहा जाता कि आदरणीय राव साहब धोती के नीचे खाकी पैन्ट पहने रहते थे।
पिछड़ों को अभी भी सरकारी पदों में उनकी आबादी के हिसाब से नाम मात्र की ही भागीदारी हासिल है। इसलिये नहीं कि वे योग्यता में किसी से कम हैं बल्कि उनके न्यून प्रतिनिधित्व की वजह परम्परागत सामाजिक ढांचे में दलितों, पिछड़ों के साथ हमेशा से किया गया भेदभाव है। सामाजिक संतुलन के लिये पिछड़ों और दलितों के उत्थान की प्रक्रिया को विशेष त्वरण के साथ तेजी से लागू करना न्याय का तकाजा है। योग्यता की बात इसलिये बेमानी है कि जो लोग अभी भी पदों व सम्पत्ति पर अपना एकाधिकार बरकरार रहने का दिवास्वप्न देख रहे हैं उन्होंने खुद ही कभी योग्यता को वरीयता नहीं दी। गैर आरक्षित वर्ग निजी क्षेत्र में आज भी पूरी तरह हावी है। फिर भी वहां की दुर्दशा इसकी गवाह है। मीडिया में आरक्षण के खिलाफ विष वमन होता रहा है लेकिन मीडिया में पत्रकारों की भर्ती योग्यता के आधार पर नहीं जिस आधार पर होती है वह सभी जानते हैं। इसीलिये आज तक पिछड़ों व दलितों के लिये मीडिया में प्रवेश के दरवाजे लगभग बंद हैं। भारतीय मीडिया से ज्यादा गंदगी पूरी दुनिया की मीडिया में कहीं नहीं है जहां जातिगत पक्षपात के आधार पर काठ के उल्लू पत्रकारिता की ऊंची कुर्सियों पर विराजमान किये जाते हैं। जिनका काम दलाली के कारण अपना जमीर बेचकर एक पक्षीय समाचार देने का होता है। मीडिया को लगता है कि आरक्षण की व्यवस्था से पिछड़ों दलितों को अगर जिम्मेदारी के पदों पर काम करने का अवसर मिल गया तो जन्मजात योग्यता के मिथक का भांडा फूट जायेगा। बहरहाल सामाजिक न्याय के लड़ाकों को अपने हक की लड़ाई तार्किक परिणति पर पहुंचाने के लिये अब सबसे पहले अपने अन्दर की काली भेड़ों से छुटकारा पाना होगा।

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