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क्या क्रांति की प्रसव पीड़ा शुरू हो गयी है?

मुक्त विचार
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अमेरिकी वितंडावाद ने मनमोहन सिंह को विश्व के महारथी अर्थशास्त्री के रूप में देश के अंदर प्रोजेक्ट किया है और वे प्रधानमंत्री के रूप में 10 वर्षों से भारत के भाग्य विधाता बने हुए हैं लेकिन भारतीय मुद्रा की डालर के मुकाबले पिछले कुछ सप्ताह से जिस तरह नैया डूब रही है और उसे बचाने के हर दाव में मनमोहन सिंह मात खा रहे हैं उससे उनकी विशेषज्ञता का भांडा फूट गया है। मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से न तो रोजगार सृजित हुआ न आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ी और न ही महंगाई की छलांग को थामा जा सका। आम आदमी के लिये पहले से कई गुना अधिक दारुण स्थितियां बन गयी हैं। शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी सुविधायें तक हासिल करना अब उसके लिये दुष्कर हो गया है जिसका मतलब है कि आम लोगों के लिये अस्तित्व का घोर संकट है।
रुपये के घनघोर अवमूल्यन को लेकर आर्थिक मामलों के कुछ जानकार सुनहरी संभावनाओं का विकल्प प्रस्तुत करके मनोवैज्ञानिक तौर पर भले ही राहत पहुंचा रहे हों लेकिन जमीनी हकीकत के बरक्स देखा जाये तो वास्तव में इस अजाब का कोई ठोस समाधान दूर-दूर तक नदारद है। रुपये का मूल्य कम होने से निर्यात बढ़ानेे की गुंजाइश बतायी जा रही है लेकिन सवाल यह है कि निर्यात के लिये गुणवत्तापूर्ण उत्पाद के मामले में हमारी कोई तैयारी ही नहीं है। जहां तक जापान, कोरिया, चीन का सवाल है उन्होंने कई क्षेत्रों में एस्क्लूसिव उत्पादन करके इसके लिये पहले से जमीन तैयार कर रखी थी और इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय बाजार का रुख अपनी ओर मोडऩे के लिये सुनियोजित ढंग से अपनी मुद्रा की कीमत में गिरावट की स्थितियां पैदा की थीं जबकि यहां मुद्रा अवमूल्यन का संकट दैवीय आपदा की तरह सिर पर आ गिरा है।
मनमोहन सिंह ने अपने कार्यकाल में आर्थिक विकास का जो गुब्बारा फुलाया था वह भी पिचक चुका है। दरअसल महारथी मोम का पुतला निकला। मनमोहन सिंह अब हतबुद्घि इंसान के अलावा कुछ नहीं हैं। अंग्रेजी को सर्वोच्च प्राथमिकता देने का नतीजा है वर्तमान विनाशकारी परिस्थितियां। भाषा के साथ संबंधित नियंता समाज का दृष्टिकोण भी उसके अधीन संचालित हो रहे समाज पर आरोपित हो जाता है। एक चीज किसी के लिये हितकारी हो सकती है लेकिन अगर हमारे और उसके हित में प्रतिस्पर्धा का संबंध है तो उसके रिमोट कंट्रोल से हमारा चलना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह होगा और इस मामले में यही हुआ है। उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियों के कर्ताधर्ता अमेरिकी दैत्य के लिये हम उसका निवाला हैं। अंग्रेजी के माध्यम से वह ब्रेनवाश करके हम लोगों को अपने ही हितों के विरुद्घ उपकरण बना रहा है। फरेब पर आधारित अमेरिकी अर्थव्यवस्था नैतिक ढांचे को तहस-नहस करने वाली है। उपभोगवाद का इसका दर्शन हमारे आध्यात्मिक चेतना के विरुद्घ है। फिर भी इसके प्रतिरोध की बात तो दूर अंधानुकरण किया गया। चंद लोगों को अकूत मुनाफा लूटने का अवसर देने का प्रावधान इसमें है जिससे अभाव और गरीबी तो बढ़ेगी ही। नैतिक व्यवस्था से विश्वासघात मौलिक सृजनात्मकता को नष्ट करती है जो उत्पादन के मामले में किसी तरह की विशिष्टता प्रदर्शित करने मेंंहमारी असमर्थता के रूप में परिलक्षित हो रहा है। अब देश को बचाना है तो नैतिक व्यवस्था की बहाली पर ध्यान देना होगा जो वैश्विक निर्भरता को कम से कम करने पर ही संभव है। भूमंडलीकरण के इस युग में यह नहीं हो सकता ऐसा कहने वाले मूर्ख हैं। दूसरी ओर यह भी हो सकता है कि भारत की इस दुर्दशा के पीछे कुदरती निजाम अपना खेल खेल रहा हो। माक्र्स ने कहा था कि औद्योगिकीकरण चरम सीमा पर पहुंचने के बाद वर्ग विभाजन का सीधा पाला खिंचेगा और फलस्वरूप क्रांति होगी। सोवियत संघ व चीन में औद्योगिकीकरण के पहले ही क्रांति हो गयी थी। इस कारण माक्र्स का यूटोपिया अपने अंजाम पर नहीं पहुंच सका लेकिन भारत में स्वत: घटनायें माक्र्स की अवधारता के अनुरूप आकार ले रही हैं। आर्थिक उदारीकरण ने आम आदमी को अभाव के रसातल मेंं पहुंचा दिया है। व्यापक सर्वहारा समाज के निर्माण की भूमिका तैयार हो रही है। ऐसा सर्वहारा जिसके सामने दो ही विकल्प होंगे या तो मरो या मार डालो। क्या भारत से वर्गविहीन समाज के निर्माण के माक्र्स के सपनों के अनुरूप विश्व की शुरूआत के लिये प्रसव वेदना की परिस्थितियां सम्मुख हैं।

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