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उमा भारती, आसाराम बापू और रूल आफ ला

मुक्त विचार
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आसाराम बापू के खिलाफ एक निरीह बालिका के यौन उत्पीडऩ का आरोप सामने आने के बाद साध्वी उमा भारती ने उनके पक्ष में क्लीन चिट देने वाला बयान जारी कर दिया। बालिका और उसके गरीब मां बाप के कथन से धर्म का चोला ओढ़े व्यक्ति का चाहे भले ही वह शैतान ही क्यों न हो बयान ज्यादा वजन रखता है। यह धारणा पुराणों के युग से चली आ रही है और आश्चर्य यह है कि आम आदमी को सत्ता के केन्द्र में पहुंचाने का दावा रखने वाली लोकतांत्रिक व्यवस्था और कानून के राज के युग में भी इसकी जड़ें कितनी गहरी हैं। उमा भारती जो कई बार पार्टी के रुख से नाराज होकर यह कहते हुए कोपभवन में जा चुकी हैं कि चूंकि वे पिछड़ा समुदाय से हैं और भाजपा में वर्ण व्यवस्थावादी मानसिकता हावी है जिसकी वजह से उनकी उन्नति से जलकर उनके खिलाफ पार्टी में षड्यन्त्र होते हैं जिसे वे बर्दाश्त नहीं करेंगी। इस तरह के आरोपों की लपेट में अटल बिहारी बाजपेयी तक को उन्होंने शामिल किया है। वे उमा भारती भी साधु संत नामधारी हो जाने से किसी को तपाक से सच्चरित्रता का प्रमाण पत्र देने को मजबूर हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ब्रेन वाशिंग कितनी प्रभावशाली चीज होती है। चेतना के स्तर पर इसी तरह के अवरोध की वजह से उमा भारती ने अपने जीवन के स्वाभाविक प्रवाह को अवरुद्घ किया जिसकी कुंठा ने उनकी प्रतिभा को विकृत करने में भूमिका अदा की और एक प्रतिभाशाली सार्वजनिक व्यक्तित्व के इस हश्र से समाज को उनके द्वारा संभावित लाभ का महत्वपूर्ण अवसर गंवाना पड़ा।
राम जन्मभूमि आन्दोलन के समय धर्म सत्ता और धर्म संसद नामक पारिभाषिक शब्द ईजाद किये गये थे। उमा भारती के आसाराम बापू के बचाव में बयान का संदर्भ लेते हुए इस परिघटना पर पुन: चर्चा की आवश्यकता है। धार्मिक क्षेत्र में विधि विधान का कोई महत्व नहीं रहा जिसके पास गुरुता और प्रभुता रही उसी के शब्द कानून मानने की अवधारणा प्रचलित की गयी। यही वजह है कि सन्यासी और साध्वी के लिये मनुस्मृति में जिस आचार व्यवहार का प्रावधान है उसे रौंदकर भी कोई स्वयंभू सन्यासी, साध्वी बना रह सकता है। उमा भारती इसका उदाहरण हैं जो सांसारिक पद की अभिलाषा रखती हैं और विराजमान भी हुईं फिर भी उनका साध्वी का तमगा नहीं छिन पाया। शंकराचार्य के लिये प्रावधान है कि आजीवन ब्रह्म्ïाचारी ही इस पद पर आसीन हो सकता है लेकिन विश्व हिन्दू परिषद की धर्म संसद ने कई पुत्रों वाले एक स्वयंभू शंकराचार्य को भी मान्यता देने में संकोच नहीं किया। महामण्डलेश्वर सहित सारे धार्मिक पद हिन्दू धर्म व्यवस्था में ब्राह्म्ïाणों के लिये आरक्षित हैं लेकिन गैर ब्राह्म्ïाणों को इन उपाधियों के प्रयोग की अनुमति देने का अनर्थ भी धर्म संसद द्वारा किया गया। साक्षी महाराज जैसे विहिप द्वारा घोषित महामंडलेश्वरों ने धार्मिक पदों की कैसी अवमानना करायी यह बताने की आवश्यकता नहीं है। अगर धार्मिक सत्ता किसी विधान से अनुशासित होती तो आज मन्दिरों व मठों में इतनी जायदाद संबद्घ है कि किसी हिन्दू परिवार का बच्चा अशिक्षित नहीं रहता, किसी गरीब हिन्दू की मौत उपचार के अभाव मेंं नहीं हो पाती और महंतों के अखाड़ों से पहले की तरह हिन्दू पट्ठे तैयार होते रहते जो किसी भी बाह्य आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब देने में सक्षम होते लेकिन मन्दिर की जायदादों को लोगों ने निजी बना लिया महन्तों ने विवाह कर परिवार बसा लिये। फिर भी कोई मुंह नहीं खोल पाया जबकि आधुनिक कानून के राज में एक प्रधानमंत्री को भी 420 के मामूली अपराध में कटघरे में खड़ा होना पड़ा तो स्वाभाविक है कि अराजकता को ही व्यवस्था का पर्याय मान बैठे लोगों को यह रास न आये। बिना जांच के केवल इसलिये कि आसाराम बापू धर्म का चोला ओढ़े हैं उमा भारती ने निर्दोष करार दे दिया यह कितना खतरनाक है। पुलिस की जांच में सरसरी तौर पर आसाराम बापू पूरी तरह झूठे साबित हो रहे हैं। जाहिर है कि उमा भारती ने जाने अनजाने में अन्याय को प्रोत्साहित करने का काम किया है जबकि वे खुद को वर्ण व्यवस्था के अन्याय का शिकार बताती रही हैं। आज देश के आगे न बढ़ पाने की मुख्य वजह रूल आफ ला को दरकिनार कर धर्म सत्ता और धर्म संसद के बहाने अराजकता की व्यवस्था को स्थापित करने का हो रहा प्रयास है। कानून के राज की अवधारणा में लोगों की आस्था कैसे बढ़े और अपने पुराने माइंड सेट से वे कैसे उबरें यह आधुनिक और प्रगतिशील सोच वाले नेतृत्व के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती है।

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