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रसातल में हिन्दी पत्रकारिता

मुक्त विचार
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हिन्दी पत्रकारिता राष्ट्रभाषा को मरणशैया पर पहुंचाने वाला जहर बन गयी है। कुछ वर्ष पहले जब हिन्दी अखबार व इलैक्ट्रानिक चैनल तेजी से अपने पाठक और दर्शकों की संख्या बढ़ा रहे थे तो लोगों ने आभास पाया था कि वैश्वीकरण में चले अंग्रेजी के अंधड़ से पार पाकर यह संवाहक राष्ट्रभाषा की शक्ति में वृद्घि के नये युग का सूत्रपात कर रहे हैं लेकिन अब यह विश्वास भ्रम सिद्घ होकर रह गया है। आज हिन्दी पत्रकारिता पतन की अन्तिम कगार की ओर बढऩे को अग्रसर है। एक समय था जब हिन्दी अखबारों में संपादक बौद्घिक और नैतिक आभामंडल से आलोकित होते थे और उनमें अपने वैचारिक आग्रह के लिये मालिकान का प्रतिवाद करने की दृढ़ता व साहस होता था। ऐसे टकराव में जनमानस की सहानुभूति संपादक के साथ होती थी। उन संपादकों की छत्रछाया में धरातल तक ईमानदार कलम के धनी और मूल्यों में विश्वास रखने वाले पत्रकार तैयार होते थे लेकिन आज स्थिति उलट चुकी है। आज जिन अखबारों में मालिकान की लगाम ढीली है उनमें अनर्थ की इंतहा हो रही है। उगाही करने वाले लोगों को पत्रकार का तगमा देकर समाचारों की विश्वसनीयता का दिवाला आज के संपादक निकाल रहे हैं। कभी संपादकीय विभाग में हस्तक्षेप की वजह से मालिकान खलनायक माने जाते थे आज पत्रकारिता की अंदरूनी दुनिया से जो लोग परिचित हैं उनका मानना है कि जहां प्रबंधन की पैनी नजर संपादकीय टीम पर है उन्हीं मीडिया संस्थानों में कुछ साफ सुथरा काम हो पा रहा है।
यह बिन्दु वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू द्वारा पत्रकारिता के लिये लाइसेंस की व्यवस्था के सुझाव के सन्दर्भ में विचार के लिये प्रासंगिक है क्योंकि हिन्दी में पत्रकारिता जगत की दुर्दशा का कारण डिग्री डिप्लोमा के आधार पर संपादकीय प्रभारी की कुर्सी तक पहुंचे प्रतिबद्घता विहीन लोग ही हैं। छोटे अखबारों या चैनल की बात नहीं मशहूर ब्रांड वाले हिन्दी के मीडिया घरानों में संपादकीय प्रभारी उन लोगों को पत्रकार बना रहे हैं जो सुबह से शाम तक ब्लेकमेलिंग के धंधे को ही पत्रकारिता का पर्याय मानते हैं। जहां तक उनमें योग्यता का प्रश्न है ज्यादातर संपादकीय प्रभारी यह भी लिहाज नहीं करते कि जिसे आईडी थमा रहे हैं उसे भाषा का भी ज्ञान है या नहीं और जीके के मामले में वह कम से कम औसत लोगों से तो बेहतर जानकारी रखता ही हो। अंग्रेजी के एक प्रसिद्घ अखबार ने हिन्दी में भी समाचार पत्र निकाल दिया। उसके संपादक ने एक जिले में पत्रकारिता और लेखन से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न रखने वाले माफिया को जिला संवाददाता बना डाला। जाहिर है कि बड़ा ना जुड़ा होने के बावजूद संपादक की इसी करतूत की वजह से उक्त प्रकाशन का हिन्दी अखबार दम तोडऩे को मजबूर हो गया। एक अखबार में अपने जिला संवाददाता से कहा गया कि वे अपने व्यक्तिगत आचरण में बहुत सतर्कता बरतें। उन्हें औसत नैतिकता से कुछ कार्य व्यवहार का प्रदर्शन करना चाहिये क्योंकि वे अपने जिले में प्रकाशन के ब्रांड अम्बेसडर हैं। अगर वे उत्कृष्ट आचरण का नमूना प्रस्तुत करेंगे तो ब्रांड की गरिमा जन विश्वास में अधिक से अधिक पुष्ट होगी। मालिकान के सामने उस अखबार के एक संस्करण के संपादकीय प्रभारी ने भी इस संदर्भ में उपदेशों का बघार लगाने में कसर नहीं छोड़ी लेकिन जिन जिला संवाददाताओं ने इस पर अमल की बेवकूफी की वे कुछ ही दिनों में अखबार से बाहर हो गये क्योंकि संपादकीय प्रभारी को उनसे नाजायज फरमाइशें पूरी होने की उम्मीद नहीं थी। संपादकीय प्रभारी ने इसके बाद जिले में जिन ब्रांड अम्बेसडरों का चयन किया न तो वे कलम में और न ही आचरण में किसी तरह की उत्कृष्टता का प्रदर्शन करने में सक्षम थे। नम्बर एक होने का दावा रखने वाले उस हिन्दी अखबार के संपादकीय प्रभारी के पसंदीदा ब्रांड अम्बेसडर कंपनी के साथ-साथ राष्ट्र भाषा की नाक कटवाने में भी कोई कसर बाकी नहीं रख रहे। उनके जीके का आलम यह है कि वे 12वीं शताब्दी में कलेक्टर नियुक्त करा देते हैं। शैली तो दूर की बात भाषा और वर्तनी का ज्ञान तक उन्हें नहीं है। जो समाचार एडवरटोरियल ेंमें हजारों रुपये के पेमेंट पर छपना चाहिये उसके लिये कुछ सौ रुपये जेब में डालकर वे अखबार में बाईलाइन छपवा लेते हैं क्योंकि उसका कमीशन पाकर संपादकीय प्रभारी प्रबंधन के साथ गद्दारी करने में बिल्कुल नहीं डरते। बुंदेलखंड के बेतवा और केन जैसी नदियों के खनन के लिये कुख्यात जिलों में हिन्दी अखबारों के जिला ब्रांड अम्बेसडर एक से पांच तारीख के बीच बालू माफियाओं के दरवाजे पर भिखारी की तरह बैठे नजर आते हैं। इसीलिये सुप्रीम कोर्ट की आंखों में धूल झोंककर अवैध खनन का कार्य दुर्गा शक्ति नागपाल प्रकरण के बाद और ज्यादा तेजी पकड़ गया लेकिन अखबारों में रामराज नजर आ रहा है।
एक अखबार के जिला संवाददाता का यह धंधा है कि किसी अपराधी पर अगर पुलिस कार्रवाई करे तो वह पत्रकार महोदय के सामने पर्याप्त भेंटपूजा के साथ शरणागत होते ही उस अखबार का किसी गांव का रिपोर्टर घोषित हो जाता है। प्रेस काउंसिल की रूलिंग है कि पत्रकार उत्पीडऩ के रूप में तभी किसी मामले को संज्ञान में लिया जायेगा जब उसके खिलाफ कोई कार्रवाई खबर लिखने की वजह से हो रही हो लेकिन उक्त अखबार अपने जिला संवाददाता की मनमानी के लिये इसे आवश्यक नहीं समझता। नतीजा यह है कि एक जिले में अपराधियों ने पुलिस को पस्त करने के लिये उस अखबार के जिला संवाददाता को अपना मसीहा बना लिया है। अखबार कोई छोटा मोटा नहीं है बल्कि एक बड़ा ब्रांड है। फिर भी उसे अपनी साख की परवाह नहीं है। आज पत्रकारिता का इतना आतंक है कि लोग अखबारों और चैनलों की मनमानी के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसका विपरीत असर नहीं हो रहा है। उक्त अखबार के खिलाफ ऐसे जिले में आम जनमानस में बेहद घृणा झलकने लगी है। एक अखबार के जिला संवाददाता ने सार्वजनिक मंच से प्रतिद्वंद्वी प्रत्याशी से पैसा लेकर चुनाव के पहले दूसरे प्रत्याशी को जीतने न देने की घोषणा शुरू कर दी। व्यवसायिक नैतिकता के खिलाफ इस तरह के आचरण पर प्रबंधन द्वारा अंकुश लगाने की जागरूकता न होने की वजह से संबंधित समाचार पत्र की साख दो कौड़ी की हो चुकी है जबकि प्रबंधन का कहना है कि वे अपने उस संवाददाता पर इसलिये कार्रवाई नहीं कर सकते कि उनका सर्कुलेशन और रिवेन्यू उसी की वजह से सबसे ज्यादा है। यानि हिन्दी अखबार अपने रिवेन्यू के लिये डकैती तक डलवाने में परहेज नहीं करना चाहते। जाहिर है कि ऐसे में तथ्यों की प्रमाणिकता की बात करना फिजूल है। यही वजह है कि हिन्दी अखबार प्रसार में कितना भी आगे निकल जायें लेकिन प्रमाणिकता के मामले में अंग्रेजी की मीडिया के सामने उनकी कोई औकात नहीं है। पहले लोग हिन्दी अखबार पढक़र अपनी भाषा सुधारते थे लेकिन आज मंथली पर जिला संवाददाता बनाने के संपादकीय प्रभारियों के रिवाज के चलते एक भी समाचार प्रूफ की दृष्टि से शुद्घ छप जाये तो बहुत बड़ी गनीमत है। हिन्दी अखबारों में वर्तनी भ्रष्ट रहती है, वाक्यांश भ्रष्ट रहते हैं और शैली तो कुछ होती ही नहीं है। इसी कारण हिन्दी की मीडिया अपनी भाषा की शक्ति की बजाय उसके लिये अभिशाप बन रही है। अगर मालिकान इसमें सुधार की क्षमता नहीं रखते तो उन्हें मीडिया कंपनी के धंधे से नमस्ते करके कोई दूसरा व्यवसाय कर लेना चाहिये जिसमें ज्यादा मुनाफा भी मिलेगा और व्यवसाय के दृष्टिकोण से अधिक पारंगत लोग मिलने से उनकी इज्जत भी ज्यादा होगी।

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