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मुजफ्फरनगर से शुरू होकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैले साम्प्रदायिक दंगो के दावानल से सबक लेने की जरूरत है ताकि भविष्य में इस तरह की पुनरावृति को कम से कम किया जा सके। अफसोस इस बात का है कि आजादी के बाद लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को निरंतर गतिशील रखकर देश में सभ्य नागरिक समाज के निर्माण का जोरदार उपक्रम किया गया। इसके बावजूद इम्तिहान का मौका आने पर लोग और समाज जहांे के तहां खड़े नजर आये।
कानून के समक्ष समानता
भारतीय सविधान में कानून के समक्ष सभी की समानता को बुनियादी सिद्धांत के रूप में स्थापित किया गया है। लेकिन भारतीय समाज के काम करने का परंपरागत तौर तरीका इसके उलट है। जातिगत व साम्प्रदायिक टकराव में इस सोच की सबसे बड़ी भूमिका है। आसाराम बापू के खिलाफ यौन उत्पीड़न का मामला जब सामने आया तो बार-बार उनके संत होने की दुहाई देकर कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को निष्प्रभावी कर उन्हें अनुचित संरक्षण दिलाने की कोशिश की गई। अुनसूचित जाति के किसी व्यक्ति को किसी पिछड़े गांव में आज भी अगर कोई सवर्ण जाति का दबंग उत्पीडि़त करने के लिए जूते मारे तो रोजमर्रा की छोटी मोटी बात कहकर तथाकथित सभ्य लोग मामले को रफा दफा करा देेते हैं। इसके विपरीत अगर अनुसूचित जाति के किसी व्यक्ति ने सवर्ण बिरादरी के लफंगे को भी जुतिया दिया तो यह इतने बड़े चेलेंज के रूप मंे पूरी बिरादरी में संज्ञान लिया जायेगा कि हत्या के रूप में उसका बदला लेने की मनोभूमि तैयार हो जाये। इसके बाद हत्यारे का अपनी बिरादरी में पराक्रमी के रूप में महिमा मंडन अनिवार्य है। यहां तक कि अब तो कस्बा देहात में भी अगर किसी उद्दंड के साथ मीडिया कर्मी का लेबिल इस जगत के किसी महन्त द्वारा चस्पा कर उसे संगीन आपराधिक बारदात के आरोप से बचाने की कोशिश की जाये तो पुलिस और प्रशासन के हाथ पैर फूल जाते है। जाति और सम्प्रदाय के वर्चस्व का वजन भी किसी आपराधिक आरोप में कार्रवाई के संबंध मंे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। हैसियत के आधार पर कानून के मुंह देखे रवैये ने स्थितियां काफी खराब की हैं। इसीलिए बिहार में जातिगत सेनाये बनी थी तो मुजफ्फरनगर में दो पक्षो का निजी विवाद साम्प्रदायिक फसाद की जड़ बन गया।
मीडिया ट्रायल
कुछ वर्षो से आपराधिक मामलों मंे मीडिया ट्रायल परंपरा का रूप लेता जा रहा है। आपराधिक मामलों के विचारण में यह स्थापित सिद्धांत रहा है कि किसी सबज्युडिश मामले में अदालत के बाहर ऐसे किसी तथ्य या धारणा को प्रचाारित नहीं किया जायेगा जिससे न्यायाधीश का किसी पक्ष विशेष के हित लाभ के लिए प्रभावित होने का अंदेशा हो साथ ही हर मुकदमें मे जिरह के संबंध मंे भी स्पष्ट सिद्धांत है कि विचारणीय आरोप बिन्दुओं से असंगत कोई सवाल नही उठाया जा सकता। मीडिया ट्रायल मेें इन दोनों ही मर्यादाओं को भंग किया जा रहा है। आयुषी तलवार हत्याकांड मंे मीडिया की इस भूमिका के कारण विवेचना एंेजेसी व न्यायालय की क्षमताएंे संदेह के दायरे में पहुंच गई जिनका दूरगामी परिणाम निश्चित रूप से अनिष्टकारक होगा। आसाराम के मामले मंे भी इलेक्ट्रानिक चैनलों पर हुई डिबेट विषय को भटकाने के लिए प्रतीत हुई और इस उपक्रम में असंगत जिरह से जनमानस मंे ऐसे जख्म कुरेदे गये जो विग्रहकारी थे। मुजफ्फरनगर दंगा जैसे संवेदनशील प्रकरणों में मीडिया ट्रायल और खतरनाक साबित हो सकता है। इसके पहले भारत पाक के बीच तनाव के मामले में जो मीडिया शो कराये गये उन्होंने देश के वातावरण को जाने अनजाने में संवेदनशील बनाने में बड़ी भूमिका अदा की। देखना यह होगा कि मुजफ्फरनगर का विस्फोटक अंजाम जनमानस में इसी के अवचेतन प्रभाव का नतीजा तो नहीं है।
अराजक नहीं अनुशासन का दर्शन है इस्लाम
धर्मनिरपेक्षता एक आधुनिक परिपक्व विचारधारा का नाम है और सर्वधर्म सदभाव कुशल शासन का गुण जिसकी बुनियाद इस देश में अग्रंेजों के आने के काफी समय पहले मुगल युग में रखी गई थी। यह बात इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि सपा सुप्रीमों मुलायम सिह यादव का शासन व्यवस्था का वैचारिक फलक कभी इतना विराट नहीं रहा कि उक्त मानकांे की उच्चतम तो क्या सामान्य कसौटी पर भी उनके शासन के कार्य व्यवहार को परखने का कोई औचित्य प्रस्तुत किया जा सके। गांव के एक पार्टी बंद धुरंधर की तरह मुलायम सिंह सम्प्रदाय विशेष को अपने पक्ष में गोलबंद करने के लिए जिस तरह के घटिया तौर तरीकों का इस्तेमाल करते हैं उसे धर्मनिरपेक्षता का जामा पहनाने वाले बुद्धिजीवी हद दर्जे के धूर्त हैं। अतीत में अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए सीआईए की फंडिग से दुनियाभर में जो मदरसे चलाये गये उनके विनाशकारी नतीजों के सामने आने के बाद अब इसका ठीकरा अमेरिका द्वारा इस्लाम के मत्थे फोड़ा जा रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय रंगमंच पर जो काम इस्लाम को अराजकता के दर्शन के रूप में प्रचारित कराने के लिए अमेरिका द्वारा किया जा रहा है। वही काम देश के सबसे बड़े सूबे में मुलायम सिंह कर रहे हैं। वस्तुस्थिति यह है कि सभ्यताओं के टकराव की जो बात पश्चिम द्वारा की जा रही है उसकी जड़ में इस्लाम में अनुशासन पसंदगी की प्रवृत्ति है। बाजार के हस्तक्षेप ने जिस तरह से मानवीय सभ्यता के बुनियादी उसूलों को हताहत करने का अभियान छेड़ रखा है अध्यात्म से सरोकार रखने वाले किसी भी संस्थान के लिए वह नाकाबिले बर्दास्त है। अगर यह सच सामने आ जाये तो दुनिया भर की पुरानी धार्मिक सभ्यतायें बाजार के खिलाफ जिहाद छे़ड़ती दिख सकती है। अमेरिका का इस्लाम को अराजक दर्शन के रूप में प्रस्तुत करने का साम्राज्यवादी स्वार्थ है तो मुलायम सिंह निजी माफिया तंत्र की मजबूती के लिए अपनी भूमिका को अंजाम दे रहे हैं। लोगों के अचेतन में आखिर असलियत की गूंज सुन ही ली जाती है शायद इसी का नतीजा है कि तथाकथित मुल्ला को बेनकाब करने के लिए सारी मुस्लिम तंजीमें खुलकर सामने आ गई हैं। इस बार सपा में आजम खां की रार कहां तक जायेगी यह भी जिज्ञासा का बड़ा प्रश्न है।
फिर पढ़ें वर्गीय द्वंद का अध्याय
मुलायम सिंह की तीसरा मोर्चा बनाने की कवायद में माकपा के नेता प्रकाश करात के साथ उनका हालिया मधुमिलन भी काबिले जिक्र है। यह प्रसंग ऐसे अवसर पर सामने आया है जब भारत चीन के बीच सीमा पर शह और मात का खेल चल रहा है। माकपा की लाइन चीन के साथ हमदर्दी की है क्योंकि उसकी निगाह में सीमा विवाद औपनिवेशिक काल के षणयंत्रों का नतीजा है जिसमें आजाद भारत की सरकार की भूमिका भी कहीं न कहीं हठधर्मितापूर्ण है। दूसरी ओर मुलायम सिंह चीन पर इस समय शक्तिमान की मुद्रा मंे हमलावर तेवर अपनाये हुए हैं। नीतिगत स्तर पर तीसरे मोर्चे की सरकार बनने के बाद केर बेर का यह संग देश को किस घाट पर ले जाकर पटकेगा ? दरअसल भारत के कम्युनिस्टों ने जाति को सुपरफीसियल स्ट्रक्चर कहकर इस यथार्थ को जानबूझकर नजरअंदाज किया जबकि व्यवहार में इसी कमजोरी से ग्रसित होने की वजह से वे अपने में वर्ग चेतना का विकास नहीं कर पाये। मंडल क्रांति के समय की सामाजिक द्वंदात्मकता के दौर में भारती कम्युनिस्ट पार्टी के एक बड़े नेता का परिवार बिहार मंे अयोध्या की दिग्विजय यात्रा पर निकले शंकराचार्य का अभिनंदन करते पाया गया था। निर्णायक मौकों पर भारतीय कम्युनिस्टों की जाति से अपने को डी क्लास न कर पाने की कलई कई बार खुली यही कारण है कि वे अपनी प्रमाणिकता गवां चुके हैं। मुलायम सिंह यथास्थिति वाद के ऐसे मोहरे हैं जिन्होंने सामाजिक क्रांति की धार को हर मोड़ पर भौंथरा किया है और जाति मोह में आमूल क्रांति के लिए सबसे बड़े अवरोधक बनने को अभिशप्त भारतीय कम्युनिस्टों को इसीलिए मुलायम सिंह का साथ बहुत सुहाता है जबकि मुलायम सिंह मौका पड़ने पर इनकी भी फजीहत से कभी नहीं चूके। कहावत है कि सौ-सौ जूते खायें तमाशा घुसकर देखें।
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