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हमेशा अवर्षण से जूझने के लिये अभिशप्त रहे बुंदेलखंड में पानी के संकट की विकरालता आने वाले दिनों में और बढऩे की आशंका है जिसकी साफ वजह है कि पानी के उपभोग में निरंतर हो रही बढ़ोत्तरी। आधुनिक जीवन शैली में निजी उपभोग में पानी की जरूरत को और बढ़ा दिया है तो बुंदेलखंड में विद्युत परियोजनाओं से लेकर अन्य औद्योगिक, व्यवसायिक गतिविधियां तेजी से परवान चढ़ रही हैं जिनमें पानी की बहुत ज्यादा मांग होती है। साथ में खेती में आ रहे बदलाव भी मांग बढ़ाने में शामिल हैं।
एक वक्त था जब बुंदेलखंड में शुष्क खेती की नीति लागू की जाती थी। इसका मतलब था ऐसे जिन्सों को बोया जाना जिनमें कम से कम पानी की जरूरत हो लेकिन आज शुष्क खेती का नारा फना हो चुका है। खेती को लाभकारी बनाने के लिये नये द्वीपों की खोज में निकले उद्यमी किसानों ने मैंथा व इसी तरह की अन्य जिन्सों को अपनाना शुरू कर दिया है जिनमें मुनाफा तो बहुत है लेकिन बेतहाशा सिंचाई की भी जरूरत होती है। 2007 के घनघोर सूखे के समय मैंथा की खेती पर इस इलाके में प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव पर विचार हुआ था लेकिन इसे व्यवहारिक नहीं माना गया।
दरअसल वक्त के बदलने की फितरत पर लगाम लगाना मुमकिन नहीं है। वक्त तो अपने स्वभाव के मुताबिक बदलेगा ही, हमें नये वक्त की जरूरत के मुताबिक ढलना होगा। आज बुंदेलखंड के कई जिलों में पिछले एक दशक की तुलना में सरकारी और निजी नलकूप दस गुना तक ज्यादा हो गये हैं। भूगर्भीय जल के दोहन की बढ़ती रफ्तार खतरे का अलार्म बजा रही है। इससे बचाव कैसे हो यह फिक्र जल प्रबंधन की कारगर रणनीति पर अमल की चेतावनी गुंजा रही है जिस पर गौर करना होगा।
भूगर्भीय जल भण्डार को बरकरार रखने के लिये जल संचयन की जिम्मेदारी संजीदगी से पूरा करने की जरूरत है। पुराने तालाबों, कुंओं के रखरखाव पर ऐसी नयी संरचनाओं के निर्माण के लिये जितने काम की जरूरत है। वास्तविकता के पटल पर इस दिशा में हो रहे प्रयासों में बहुत अन्तराल है। महिलाओं के पानी पर पहले अधिकार की आंदोलन ने बंजर में लहलहाती फसल खड़ी करने के करिश्मे जैसे माडल तैयार किये हैं। पानी पंचायतें और जल सहेलियों की कतारें अगर गांव-गांव में खड़ी हो जायें तो शायद संकट के निवारण में एक बड़ी कामयाबी मिल सकती है। कच्ची नहरों की पुरानी व्यवस्था से पानी की फिजूलखर्ची बहुत होती है लेकिन फिर भी नहरों के पक्कीकरण, लाइनिंग की परियोजनाओं को मंजूरी में सुस्ती का आलम छाया हुआ है। हैण्डपम्प की जगह पाइप्ड पेयजल परियोजनायें पानी की बचत के लिये मुफीद हैं पर सैद्घांतिक सहमति धरातल पर मूर्त रूप ले सके इसके लिये ठोस पहलकदमी नहीं हो रही। राजनैतिक फायदे के लिये अंधाधुंध हैण्डपम्प लगाने का क्रम अभी भी जारी है।
बारिश के पानी से भूमिगत जल भण्डार बढ़ाने के लिये निजी प्रयासों की श्रंखला में रूफ वाटर हार्वेस्टिंग के काम में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई जा रही जो विडम्बना का विषय है। कम से कम शहरी निकायों को तो नये भवनों के मानचित्र इसकी व्यवस्था के बिना मंजूर न करने की पाबंदी पर कड़ाई से अमल कराना ही चाहिये। पानी की कमी से प्रभावित रहने वाले ग्रामीण क्षेत्रों में बतौर प्रयोग स्वयंसेवी प्रयासों के तहत ग्रामीणों को इसके लिये प्रेरित किया गया। अच्छे नतीजे आने के बावजूद सरकारी स्तर पर इसको आगे न बढ़ाया जाना खेद का विषय है।
पानी के बिना जीवन के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती फिर भी इससे जुड़ी चुनौतियां राजनैतिक और सामाजिक आन्दोलनों की कार्र्यसूची में शीर्ष स्थान प्राप्त नहीं कर पा रही हैं यह आश्चर्य का विषय है। नई पहल करने वाले लोग ही स्वाभाविक नेता होते हैं। आम लोग अपनी महत्वाकांक्षा को इस दिशा में मोडक़र सच्चे नेता का स्वरूप उभारने के लिये आगे आने की सोचें।
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