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थोपे हुए राजनीतिक सुधारों से बचंे

मुक्त विचार
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आज से करीब 10 वर्ष पहले अमेरिका के एक यहूदी पत्रकार की पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जिसमंे उसने किसी देश में पर्याप्त होमवर्क हुए बिना लोकतंत्र को थोपने के खतरे के बावत अमेरिकी प्रशासन को आगाह किया था लेकिन अपने न्यस्त स्वार्थो के कारण अमेरिका को इस पर अमल करना गवारा नहीं हुआ। खासतौर से भारत में तमाम राजनीतिक सुधारों की बौद्धिक विलासता के पीछे सीआईए की फंडिग है।
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति दर्शन मंे चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाना यानि रिकाल की व्यवस्था, राइट टु रिजेक्ट जैसे कई महान दिखने वाले प्रस्तावों के शामिल किया था। लोकनायक की नेकनीयती पर किसी भी तरह संदेह नहीं किया जा सकता लेकिन भावुक आदर्शवादी मानसिकता की वजह से वे राजनीतक सुधारों को लेकर अमेरिकी प्रपंच के झांसे में आ गये थे। जनता पार्टी सरकार बनने के बाद घोषणा पत्र कार्यान्वयन समिति के अध्यक्ष बनाये गये मधुलिमये इसी कारण संपूर्ण क्रांति को मूर्त रूप देने के इरादे से मुकरने को मजबूर हो गये जबकि मधुलिमये भी निस्वार्थ नेता थे। इसलिए यह नहीं माना जा सकता कि उन्होंने ऐसा किसी प्रलोभन या दबाव के वशीभूत होकर किया होगा।
हाल के दो वर्षो से फिर क्रांतिकारी राजनीतिक सुधारों के लिए आंदोलन का माहौल बनाने की मशक्कत हो रही है। इससे अन्याय और पक्षपात का स्रोत वर्ण व्यवस्था जनित माइंडसेट बदल जायेगा यह आशा कोई मूर्ख ही कर सकता है अथवा धूर्त लोग इससे समाज और देश का नक्शा बदल जाने का दिवास्वप्न दिखा सकते हैं जबकि हालत यह है कि सार्वभौम मूल्यों और नैतिकता के अनुरूप मानसिकता का समाज जब तक नहीं बनेगा तब तक इस देश की बंजर भूमि में कोई राजनीतिक सुधार फलीभूत होना संभव नहीं है। इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि जैसे-जैसे तथाकथित रूप से लोकतंत्र स्वरूपगत तौर पर मजबूत हुआ है वैसे-वैसे उसकी तासीर चुकती गयी है। आज सरकारें कारपोरेट घराने की बंधक हैं। जिसका खुलासा पेट्रोलियम मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा देश मंे खनिज तेल का उत्पादन बढ़ाने के लक्ष्य को लेकर अपनी असहायता जताते हुए कर चुके हैं। आर्थिक उदारीकरण के बाद शिक्षा और चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरतें ही नहीं रोटी जैसी अपरिहार्य जरूरत के लिए भी स्थितियां आम आदमी के हाथांे से जैसे बाहर निकल गयी हैं और अब तो कारपोरेट के उम्मीदवार माने जा रहे नरेन्द्र मोदी का जलबा सोशल साइट्स के माध्यम से उभारा जा रहा है जो अगर अंधे के हाथ बटेर लगने की तर्ज पर प्रधानमंत्री बन गये तो मुनाफाखोरों पर लगी रही सही बंदिशे भी हट जायेगी और आम आदमी दास बनकर ही जीने का अधिकार हासिल कर सकेगा। इस कारण आयातित राजनीतिक सुधारों के नारो से भ्रमित होने की वजाय हमें देश की विलक्षण परिस्थितियों के अनुरूप मौलिक संस्थागत व तकनीकी उपायों और मानसिकता बदलने वाली प्रभावी प्रक्रियाओं का आविष्कार करना होगा। यह विषय लंबा है और पश्चिमी वितण्डा से निरपेक्ष रहकर इस दिशा में सोचा जायेगा तो आम आदमी की ओर से भी कई ऐसे अभिनव प्रस्ताव आ सकते हैं जो भारत को मानवीय मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र के माडल के रूप में प्रस्तुत करने में सहायक हों। इस दिशा में दिमागी कसरत शुरू कर दी जानी चाहिए।

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