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चर्चित चारा घोटाला कांड में 17 साल तक अदालत में हुई कानूनी जद्दोजहद के बाद सीबीआई के विशेष न्यायालय ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव समेत 45 लोगों को अपने बहुप्रतीक्षित फैसले में दोष सिद्घ करार दिया है। इनमें आठ लोगों को तीन वर्ष की सजा सुना दी गयी है जबकि लालू समेत 37 अन्य अभियुक्तों को सजा का ऐलान तीन अक्टूबर को होगा। तब तक उनको बिरसा मुंडा जेल में भेज दिया गया है। यह फैसला चाईबासा कोषागार से 37करोड़ 70 लाख रुपये फर्जी तरीके से निकालने के मामले में सुनाया गया है।
न्याय के बारे में कहा जाता है कि वह न केवल होना चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिये कि न्याय हुआ है। अगर ऐसी स्थिति कायम रहती है तो फिर किसी फैसले को लेकर टिप्पणियां नहीं होतीं लेकिन चारा घोटाला मामले को लेकर यह स्थिति नहीं कही जा सकती। फैसले के तुरन्त बाद कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने कहा है कि लालू साजिश के शिकार हुए हैं। सोशल साइट्स पर भी कई ऐसी प्रतिक्रियायें आयी हैं जिनमें फैसले के प्रतिवाद की भावना झलकती है।
भारत जैसे देश में जहां सामाजिक उपनिवेशवाद की व्यवस्था चलती रही है। न्याय पालिका से लेकर हर क्षेत्र में वर्गीय दृष्टिकोण निरपेक्ष दृष्टि पर हावी नजर आता है जिसकी वजह से सर्वमान्य फैसला यहां कई बार संभव नहीं हो पाता। भ्रष्टाचार में भारत दुनिया में सबसे आगे चल रहे देशों में शुमार है लेकिन न्याय के मामले में मुंह देखी की स्थिति होने की वजह से अधिकांश प्रभावशाली लोग दंडित नहीं हो पाते। मुलायम सिंह यादव के खिलाफ आय से अधिक सम्पत्ति का मामला उनके पिछले मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में चला था। दो सदस्यीय पीठ ने इसकी सुनवाई की थी। मीडिया में खबरें आयी थीं कि इनमें से एक न्यायाधीश को मुलायम सिंह ने प्रभावित कर लिया है। इसके लिये कई साक्ष्यों के साथ चर्चा हुई। प्रभावित बताये जा रहे न्यायाधीश के एमबीबीएस बेटे को वैकेन्सी न होते हुए भी सरकारी डाक्टर बनाने का कदम उन्हें प्रभावित करने की प्रत्यक्ष मिसाल बताया गया। जज साहब ने भी फैसले की घड़ी में अभूतपूर्व काम किया। बहुसदस्यीय पीठ के सदस्य एक ही दिन अपने फैसले सुनाते हैं लेकिन प्रभावित बताये जा रहे जज ने अपने सहयोगी का फैसला सुनाये जाने के कुछ दिन बाद अपना फैसला सुनाया। यही नहीं वे जज साहब रिटायर हुए तो एक आयोग के मुलायम सिंह सरकार द्वारा मंत्री पद के दर्जे के साथ सभापति बना दिये गये। इससे यह बात प्रचारित हो गयी कि मुलायम सिंह पर जो मुकदमा चल रहा है वह दमदार है तभी जज साहब को प्रथम दृष्टया संदिग्ध लगने वाली परिस्थितियों के तहत मुलायम सिंह सरकार ने अनुग्रहीत किया था। इन हालातों के बीच जब उक्त मामला अपील में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो जनमानस जैसी उम्मीद कर रहा था। वैसा कुछ नहीं हुआ। सीबीआई द्वारा सुबूत न जुटा पाने का बहाना बनाकर मुकदमा खत्म करने की अर्जी पेश कर दी गयी। सुप्रीम कोर्ट में मुलायम सिंह के खिलाफ उक्त मुकदमे के एन्टी क्लाइमेक्स ने लोगों को झटका दिया और जनमानस में यह माना गया कि तकनीकी रूप से जो न्याय हुआ उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। यह संयोग है कि मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद जब परिवर्तन के लिये एक निर्णायक जंग छिड़ी थी तो मुलायम सिंह ने सामाजिक न्याय के खेमे में मुकरे गवाह की भूमिका निभाई थी जिसकी वजह से वे वर्चस्ववादी वर्ग के कृपांक के हकदार हो गये थे और इसी की बदौलत कारसेवकों पर गोली चलवाने के उन पर चस्पा तथाकथित कलंक को अनदेखा कर स्वांगी रामभक्तों ने कई बार अपनी सहानुभूति व कपटपूर्ण गुप्त समर्थन से उन्हें सत्ता दिलायी जबकि लालू यादव सामाजिक न्याय के स्टैंड पर दृढ़ता से कायम रहते हुए वर्चस्ववादियों की हठधर्मिता को ललकारते रहे जिससे वे खलनायक के रूप में इस तरह उक्त तबके के मन में नक्श हैं कि उनके प्रति वर्चस्ववादियों की नफरत की ज्वाला कभी बुझ ही नहीं सकती। चारा घोटाला मामले में जो फैसला आया है उसमें मुखर वर्ग की प्रतिक्रिया सच्चा न्याय होने की भाव विभोर भावना के अनुरूप नहंीं है बल्कि उनके उत्साह और खुशी में अंदर के प्रतिशोध की तृप्ति की झलक है। यही कारण है कि सजायाफ्ता होकर लालू समाज में अलग-थलग होने की बजाय एक बड़े तबके की सहानुभूति के पात्र बन गये हैं।
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