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ऐसे पहली बार छपा राष्ट्रीय स्तर पर

मुक्त विचार
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अस्सी के दशक में किसी कस्बे में होश संभालने वाला किशोर या युवक पत्रकारिता को अपना कैरियर बनाने की सोच भी नहीं सकता था लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अखबार नवीसी उन दिनों भी कोई गैर महत्व की विधा हो। उन दिनों पत्रकारों को मेहनताना भले ही नाममात्र का मिलता हो लेकिन समाज में व्यवस्था और प्रशासन विरोधी तेवरों के कारण उन्हें हीरो की तरह सम्मान मिलता था। मेरी इस क्षेत्र में दिलचस्पी एक नितान्त संयोग ही रही। जिन दिनों मैं आठवीं कक्षा में था देश अणु बम बनाये या न बनाये यह बहस गरम थी मैं भी इसे लेकर जज्बाती था और एक दिन अपनी भावनायें मैंने कलम लेकर कागज पर उतार दी। यह लेख की शक्ल में दैनिक भास्कर में छप गया और लोग मुझे पत्रकार कहने लगे। पत्रकारिता के मायने उन दिनों भिंड जैसे छोटे शहर में जहां मैं पढ़ रहा था सयाने तक नहीं जानते थे लेकिन यह भाव बोध मेरे अन्दर दूसरों से चला गया कि पत्रकार जो भी हो लेकिन समाज में विलक्षण प्राणी के बतौर नवाजा जाता है। इसके बाद वयस्क होने के पहले ही मैं मुंबई से प्रकाशित हिन्दी करन्ट का मध्य भारत क्षेत्र का संवाददाता बन गया। चूंकि पत्रकारिता को नौकरी के रूप में अपनाने की कोई रूपरेखा उन दिनों स्पष्ट नहीं थी इसलिये ग्वालियर जाकर अखबार की नौकरी करने को भले ही मैं उत्साहित या प्रेरित नहीं हुआ लेकिन जब अपने बड़ों से चर्चा में सुना कि हिन्दी करेन्ट में जाने माने पत्रकार काम करते हैं और उसमें फस्र्ट पेज पर कोई स्टोरी छपना बड़े गौरव की बात है तो मैं इसके लिये महत्वाकांक्षी हो उठा। जल्दी ही मैंने करेन्ट के मिडिल पेज पर जो फस्र्ट पेज से कम महत्वपूर्ण नहीं था जगह पा ली। यह 1978 की बात है। स्टोरी मुन्नी नाम की एक महिला डकैत की आपबीती से सम्बन्धित थी जिसने पुलिस से पकड़ी जाने के बाद मुझे भिंड की कोतवाली में अपनी दास्तान सुनायी। उन दिनों भिंड के ेएसपी श्रवण कुमार दास थे जो इन्दौर के रहने वाले थे। स्टोरी जिस समय छपी वे इन्दौर में ही थे और करेन्ट के कारण उस समय अपने जानने पहचानने वालों से उन्हें बहुत बधाइयां मिलीं। भिंड लौटते ही खुशी से अभिभूत श्रवण कुमार दास ने मुझे अपने बंगले पर बुलाकर नाश्ता कराया। 2005 मेंं जब वे मध्य प्रदेश के डीजीपी थे मैं किसी सिलसिले में भोपाल में उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि पहली बार तुम्हारी स्टोरी की वजह से ही उन्हें अपने पूरे सर्किल में हीरो के रूप में स्थापित होने का मौका मिला। बहरहाल लेकिन अभी करेन्ट के फस्र्ट पेज पर जगह पाने की अपने सपने की मंजिल पाना मेरे लिये बाकी था और 1979 में मेरी यह तमन्ना भी तब पूरी हुई जब चौधरी चरण सिंह अपनी सरकार के विश्वासमत प्राप्त करने के पहले ही हुए पतन के बाद भिंड में जनसभा को संबोधित करने पहुंचे। मैंने उनकी जनसभा को ऐसे चौंकाने वाले एंगिल से कवर किया कि करेन्ट ने उसे प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित किया। मुझे दूर-दूर तक लोग जान गये और कई अखबारों के आफर मेरे पास आये। भले ही मैं पढ़ाई खत्म न हो पाने की वजह से किसी अखबार में पूर्णकालिक पत्रकार बनने नहीं गया लेकिन मेरा हौसला बढ़ा तो कार्यशैली में निखार आया और मैं हर हफ्ते पहले पेज पर जगह पाने की होड़ करने लगा। 1980 के लोकसभा चुनाव में भिंड के गोहद कस्बे में तत्कालीन उपप्रधानमंत्री जगजीवन राम से उनकी कार के अंदर सिर घुसाकर इंटरव्यू लेने की कोशिश करने की वजह से मुख्यमंत्री वीरेन्द्र सकलेचा से मेरी बहस हो गयी हालांकि बाबूजी यानि जगजीवनराम ने मेरी उम्र देखकर बहुत दुलार के साथ मुझसे बात करके मेरी इच्छा पूरी की। कहने का तात्पर्य यह है कि पत्रकारिता में ऊंची छलांग के लिये पर्याप्त अनुभव होने की प्रतीक्षा करना जरूरी नहीं है बल्कि यह काम प्रशिक्षण के दौरान ही किया जा सकता है। यह दूसरी बात है कि इस समय माहौल बदल गया है। नया पत्रकार भी प्रसिद्घि की बजाय पहले दिन से ही पैसे के लिये जागरूक रहता है। (आगे भी जारी……)

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