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बात निकली है तो दूर तलक जायेगी -केपी सिंह

मुक्त विचार
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बात निकली है तो दूर तलक जायेगी। राहुल गांधी सस्ती लोकप्रियता बटोरने के लटकों झटकों के तहत मायावती पर यह आरोप लगा बैठे कि उन्होंने दूसरे किसी दलित नेता को तैयार नहीं होने दिया लेकिन दलितों के लिये उनकी यह खाली पीली चिंता अब उनके गले में अटक गयी है।
जो सवाल उठ रहे हैं उनके मद्देनजर राहुल गांधी को अपने गिरेबां में झांकना पड़ेगा। कांग्रेस ने स्वयं दलित नेताओं को कितना प्रोत्साहन दिया है। बसपा के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष राज बहादुर को कांग्रेस बड़े गाजे बाजे के साथ पार्टी में ले आयी थी लेकिन वे कुछ काम कर पाते इसके पहले ही हटा दिये गये। कांशीराम जब पहली बार इटावा से लोकसभा के लिये चुने गये थे उन्होंने डा.रामाधीन को अपना सांसद प्रतिनिधि बनाया था। कांशीराम अपने निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को समय देने की स्थिति में नहीं थे। इस कारण अपने और पार्टी के लिये जिसको सबसे ज्यादा भरोसेमंद माना उन्हें अपना यह सबसे महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा। जाहिर है कि डा.रामाधीन को वे अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तराशने का मन बना चुके थे। हालांकि बाद में परिस्थितियां बदलीं और मायावती के लिये उन्होंने रामाधीन को पार्टी से निकाल दिया। इसी पृष्ठभूमि के कारण दलित राजनीति का पुरोधा समझते हुए राहुल गांधी खुद प्रयास कर डा.रामाधीन को अपनी पार्टी में लाये। रामाधीन ने 55 वर्ष की उम्र में हिन्दी के गूढ़ भाषाई विषय पर पीएचडी की। साथ ही वे मौलिक अम्बेडकरवादी चिंतक के रूप में भी अपने ज्ञान से बहुत प्रभावित करते हैं। राहुल गांधी भी उनके इस पक्ष के बहुत कायल थे और शुरू में उन्होंने रामाधीन को पार्टी के थिंक टैंक में शामिल करने की इच्छा जतायी थी। आज रामाधीन को उन्होंने पार्टी के दलित विरोधी नेताओं के दबाव में कूड़ेदान में फेंक दिया।
दिग्विजय सिंह ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए दलितों के एजेंडे में टाप पर माने जाने वाले डायवर्सीफिकेशन के सिद्घांत पर मायावती से भी पहले अपने राज्य में अमल कराया। देश भर के चोटी के दलित विद्वानों के सेमीनार उनके कार्यकाल में मध्य प्रदेश में हुए। इसी कारण बाद में दलित राजनीति के गढ़ माने जाने वाले उत्तरप्रदेश का प्रभार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव के रूप में उन्हें सौंपा गया था पर पार्टी में निर्णायक हैसियत रखने वाले रूढिवादी वर्ग ने दिग्विजय सिंह को पचाना गवारा नहींकिया। नतीजतन उन्हें उत्तरप्रदेश से रुखसत कर दिया गया।
उत्तरप्रदेश के जिस बुंदेलखंड अंचल से बहुजन समाज पार्टी की शुरूआत हुई थी वहां से इस समय कांग्रेस के इकलौते विधायक की उनके अपने जिले में भी पार्टी की कमेटी के गठन में अनदेखी की गयी। कांग्रेस के परंपरागत नेतृत्व की निगाह में दलित मात्र सेवक हैं। उन्हें आज्ञा का पालन करना चाहिये वे आज्ञा नहीं दे सकते। दलित ही क्यों मुस्लिम व पिछड़े वर्ग के नेता भी कांग्रेस में आकर ठगे जाने जैसी हालत का सामना करने को मजबूर रहते हैं। उत्तरप्रदेश में जब कांग्रेस जीरो पर पहुंच चुकी थी उस समय सलमान खुर्शीद को कांग्रेस की बागडोर सौंपी गयी। उनकी मेहनत से कांग्रेस को 1999 के लोकसभा चुनाव में प्रतिष्ठापूर्ण संख्या में यहां सीटें मिलीं। उन्हें काम करने का पूरा अवसर मिलता तो 2007 के विधानसभा तक मुख्यमंत्री के रूप में उन्हें प्रोजेक्ट कर चुुनाव लडने पर कांग्रेस की राज्य में सत्ता में वापसी तक संभव थी लेकिन कांग्रेसियों ने यह गवारा नहीं किया। सुनहरे अवसरों को गंवा देने के कारण ही उत्तरप्रदेश में कांग्रेस पार्टी फिर इस समय गर्दिश के दौर से गुजर रही है।
कांग्रेस के धूर्त नेताओं के लिये बदलाव के किसी रास्ते पर आगे बढने से रोकने का सबसे बड़ा यह हथियार बन चुका है कि वे मकान मालिक और किरायेदार का मुद्दा उठा देते हैं। दूसरी पार्टियों से आये शोषित वर्ग के नेताओं को पीछे धकेलने के लिये उसके तहत यह दलील दी जाती है कि वे किरायेदार हैं। उन पर भरोसा किया तो यह पार्टी को नाजुक मौके पर दगा दे देंगे। जनता के बीच विश्वसनीयता खो चुके लम्पट नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्थिति सुधरते ही दोबारा अग्रिम पंक्ति में स्थान दिलाने में यह नारा बेहद कारगर साबित हुआ। दरअसल नेतृत्व की पंक्ति में पिछड़ा, दलित व अल्पसंख्यक नेताओं के आगे आने की वास्तविक रूप से शुरूआत मंडल क्रांति के बाद से हुई। नेतृत्व के लिये होड़ बढने पर परंपरागत रूप से वर्चस्ववादी वर्गों ने उनको बाधित करने के लिये उक्त दलील गढ़ ली जिसे राहुल गांधी मान्यता दे रहे हैं।
राहुल गांधी ने अपने ब्राह्म्ड्ढाण होने की सार्वजनिक दुहाई सगर्व देने की जरूरत जबसे महसूस की है तबसे कांग्रेस में शोषित उपेक्षित तबके के नेताओं के लिये स्थितियां ज्यादा मुश्किल हो गयी हैं। उत्तरप्रदेश में कांग्रेस मुख्यालय के बड़े बाबू कहे जाने वाले संगठन मामलों के प्रभारी जनार्दन द्विवेदी को हावी किया जाना पार्टी के वैचारिक विचलन का परिचायक है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में जिम्मेदारी संभालने के बाद सभी स्तरों पर दलित, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व महिलाओं को 55 फीसदी आरक्षण देने की नीति घोषित कर सामाजिक न्याय के आधार पर पार्टी की नये सिरे से सर्जरी का जो उपक्रम किया था राहुल गांधी ने उसकी उल्टी गिनती शुरू कर दी है। राहुल गांधी अपने स्वार्थी सलाहकारों के बहकावे में सतही क्रांतिकारिता दिखाने के तमाम प्रसंगों से जनमानस की निगाह में मजाक का विषय बन चुके हैं। हालत यह है कि उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करने के बाद से कांग्रेस से बहुत तबका खिसकने लगा है। उत्तरप्रदेश में सांगठनिक पराभव की वजह से ही अलीगढ़ और रामपुर में हुई उनकी रैलियां सुपरफ्लाप रहीं और अब उन्होंने राज्य में आगामी रैलियों को टाल दिया है।
मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किये जाने और बसपा, सपा का देश के सबसे बड़े सूबे में वर्चस्व स्थापित होने के पहले कांग्रेस में यह माना जाता था कि जब ब्राह्म्ड्ढाण साथ होंगे तो दलित और मुसलमान स्वतरू पाटी के पिछलग्गू बन जायेंगे। मायावती ने यह धारणा उलट दी। उत्तरप्रदेश में जहां दलित हैं उसके पीछे ब्राह्मण, ठाकुर, मुसलमान इत्यादि हैं। राहुल गांधी कांग्रेस को पुरानी लाइन पर चलाना चाहते हैं। क्या अब ऐसी स्थिति है कि दलित उनके पिछलग्गू बनकर कांग्रेस की झोली में आ जायेंगे। राहुल गांधी की दलित चिंता से यह सवाल यक्ष प्रश्न बन गया है।

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