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मुगलों की गवर्नेस

मुक्त विचार
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गवर्नेस की शुरूआत भारत में मुगलकाल से असली तौर पर हुई। उनके सामने चुनौती यह थी कि जिस देश में दो सम्प्रदाय जिनकी भारी आबादी हो और जो स्वाभाविक रूप से मौके-मौके पर एक दूसरे के सामने आ जाते हों के बीच एक स्थिर हुकूमत का प्रबंधन कैसे किया जाये। मुगल सारे हिन्दुओं को मुसलमान बनाकर समस्या का हल खोजने की दिशा में नहीं गये तो इसका कारण उनका विशिष्ट चरित्र था। मुगल बादशाहों ने अपने रुतबे के लिये जिल्ले इलाही का संबोधन ईजाद किया था। जिल्ले इलाही का अर्थ होता है अल्लाह की परछाईं। अल्लाह की परछाई हो ही नहीं सकती और इस्लामी मान्यता के हिसाब से ऐसा कहना कुफ्र है। मुगलों की एक धार्मिक पहचान थी बस इतने भर के वे मुसलमान थे। बाकी इस्लामी उसूलों से उनका कोई खास लेना देना नहीं था। वे पैदाइशी हुकुमरां थे और हुकूमत को बेहतर ढंग से चलाने के नुस्खे निकालने के लिये वे इस्लाम के दायरे से बाहर जाकर सोच पाते थे। इसलिये उनका मूल्यांकन यह सोचकर करना कि मुसलमान होने के नाते अग्राह्यï इस्लामी व्यवस्थाओं को उन्होंने थोपा था और इस आधार पर उन्हें बदलने की जद्दोजहद होना चाहिये सिरे से गलत है।
मुगलों के संबंध में दूसरी बात और साफ हो जानी चाहिये कि उनका अपने मूल वतन से कोई जेहनी रिश्ता नहीं रह गया था। जीना यहां मरना यहां की तर्ज पर वे अपने को पूरी तरह से हिन्दुस्तान के साथ बावस्ता कर चुके थे। साढ़े चार सौ वर्ष पहले मूल रेड इंडियन निवासियों का सफाया करके कब्जा जमाने वाले आज अमेरिकन प्राइड का परचम लहरा रहे हैं। अमेरिका में इस बात की कोई बहस नहीं हो रही कि वर्तमान व्यवस्थायें बहिरागतों की हैं इसलिये स्वीकार्य नहीं हो सकती। जीवंत देश और संस्कृति लम्बे समय में कई पड़ावों से गुजरती है और उसका इतिहास बदलता रहता है। मुगलों ने जो किया वह यहां की धरती से उपजी निष्पत्तियों पर आधारित है यानी उनकी व्यवस्थायें, कार्रवाईयां ओरिजिनल भारतीय हैं। जिस तरह से अमेरिका में साढ़े चार सौ वर्ष पहले बहिरागतों की व्यवस्थायें ही उसके मूल विरासत के रूप में स्थापित हो चुकी हैं वैसे ही मुगलकाल को प्रस्थान बिन्दु के तौर पर संज्ञान के लिये बिना भविष्य का रास्ता इस देश के लिये अपवाद नहीं हो सकता।
जो चुनौतियां मुगलकाल में थीं वह आज भी बरकरार हैं और उनसे निस्तार के लिये वैसे ही गवर्नेस कौशल की जरूरत है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के किसी यूटोपिया में जीते हुए आगे बढऩे की दिशा नहीं खोजी जा सकती। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किये जाने के बाद उन्हें इस स्थिति का इलहाम हुआ। तभी तो अब उन्हें सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के मुद्दे का राग छेडऩा बुरा लगने लगा है। राहुल गांधी के मुंह से धोखे में अगर मुजफ्फरनगर के नौजवान मुसलमानों के पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में होने की बात निकल जाती है तो नरेन्द्र मोदी का कलेजा फट जाता है। मुसलमानों के हमदर्द का उनके व्यक्तित्व का यह रूपांतरण आश्चर्यचकित करने वाला है। ऐसे में जिन लोगों ने नरेन्द्र मोदी के लिये यह सोचकर अपनी तमाम ऊर्जा अभी तक बर्बाद कर दी है कि जब उनका लौह पुरुष दिल्ली की गद्दी पर बैठेगा तो मुसलमान सबक सीख जायेंगे उनके मोहभंग के कष्ट का निवारण कौन करेगा। इसके पहले हिन्दुत्ववादी संगठनों के एक और लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी भारत की सत्ता की सिंहासन बत्तीसी पर बैठते बैठते हृदय परिवर्तन की झोंक में बह गये थे और उन्होंने जिन्ना के निष्पक्ष मूल्यांकन की गलती कर अपने जीवन भर के पुण्य गंवा दिये।
हिन्दू मुस्लिम अस्तित्व के लिये धर्म निरपेक्षता का मुहावरा बदलने की जरूरत है क्योंकि इससे पूरी स्थिति सही तौर पर व्यक्त नहीं हो पाती। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की शैली भी हिन्दुत्ववादी राजनीतिज्ञों की तरह सह अस्तित्व की अवधारणा के लिये गैर मुफीद है। उनकी उकसाने वाली भाषण और कार्यशैली सहअस्तित्व को मजबूत करने की बजाय अलगाव को जन्म देती है। मुगलों ने राजकाज में कई ऐसी परम्परायें विकसित की थीं जिससे दोनों समुदायों में मेल मिलाप बढ़े। इनमें गौवध रोकने के लिये उनकी सैद्घांतिक सहमति भी शामिल है। रहीम अकबर का सेनापति मुगलों के समय ही बन सकता था जिसने कृष्णभक्ति के पद्य लिखकर मुसलमान होने के बावजूद ईश्वर के मानवीकरण को तस्लीम किया था। फिर भी उसे काफिर नहीं ठहराया गया था। मुलायम सिंह यादव मेल मिलाप की कवायदों को बढ़ाने में शायद विश्वास नहीं रखते। उनके राजनीतिक हित तभी सधते हैं जब दोनों समुदाय एक दूसरे के खिलाफ आस्तीन चढ़ाये रहें। इसी नीयत की वजह से उन्होंने अयोध्या विवाद को चरम टकराव की परिणति पर पहुंचाया और आखिर में जब बाबरी मस्जिद शहीद हो गयी तो मस्जिद की सुरक्षा भेदने के लिये परिंदे को भी पर न मारने देने की डींग को भुला दिया।
सह अस्तित्व के अलावा भूमि बंदोबस्त व त्वरित न्याय जैसे बिन्दुओं पर भी मुगलों की गवर्नेस लाजवाब थी। धर्म निरपेक्ष दल भी जाति सत्ताओं के संचालित हैं जिसके कारण न्याय व्यवस्था को पंगु होने से नहीं रोक पाये। गवर्नेस के अन्य बिन्दुओं में भी उनकी हालत पस्त है। लुटेरी मानसिकता की वजह से वे स्थिर शासन का मंत्र भूल गये हैं।

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