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यह एक भ्रान्ति फैलायी गयी है कि कुंए का पानी शुद्घ नहीं हो सकता। कुंए कुछ हजार रुपये में खुद जाते थे लेकिन नलकूप से पेयजल की व्यवस्था के लिये करोड़ों की परियोजनायें बनती हैं। जाहिर है कि स्टीमेट बड़ा होगा तो कमीशन भी लम्बा मिलेगा। कमीशन के लिये जनजीवन के साथ वितंडा का सहारा लेकर किस तरह का छल किया जाता है इसकी बानगी है शुद्घ जल के नाम पर नलकूप परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जाना।
उत्तरप्रदेश के बलिया और बिहार के भोजपुर जिले के शाहपुर इलाके में आर्सेनिक से पिछले एक दशक में 2 हजार से ज्यादा मौत हो चुकी हैं। आर्सेनिक मिला पानी पीने से मैलानोसिस नाम की बीमारी हो जाती है। इस बीमारी में शरीर पर जगह-जगह काले धब्बे बन जाते हैं। बाद में यह मेटोसिस का रूप ले लेती हैं जिसमें धब्बे गांठ बन जाते हैं और उनमें मवाद भर जाता है। यह गांठें खतरनाक कैैंसर में तब्दील हो जाती हैं।
इस बारे में जब सर्वे किया गया तो चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आये। इसके मुताबिक जबसे नलकूप के पानी का लोगों ने ज्यादा प्रयोग किया है तबसे इस बीमारी ने पैर पसारना शुरू किया है। पश्चिम बंगाल के एक विश्व विद्यालय के पर्यावरण विभाग के प्राध्यापक डा.दीपांकर चक्रवर्ती ने बलिया और शाहपुर का मौके पर पहुंचकर इस बाबत सर्वे किया। नलकूप के पानी में क्यों आर्सेनिक होता है और कुंए के पानी में क्यों नहीं होता इसका उत्तर उनके सर्वे के निष्कर्षों में दिया गया है।
दीपांकर चक्रवर्ती का कहना है कि कुंए का पानी धूप और आक्सीजन के संपर्क में रहता है साथ ही उसके पानी में आयरन की अधिकता के कारण आर्सेनिक तलहटी में चला जाता है। तात्पर्य यह है कि कुंए का पानी नलकूप के पानी से कहीं ज्यादा सुरक्षित और शुद्घ है।
बुंदेलखंड में कुंओं की बहुतायत है। बुंदेलखंड पैकेज में बर्बाद हो रहे कुंओं के पुनरुद्घार की कार्य योजना पर विशेष जोर दिया गया था पर अभी तक इस नाम पर जो काम हुआ है उसका धरातल पर कोई प्रभाव नहीं दिख रहा क्योंकि भ्रष्टाचार के चलते इसमें कागजों पर काम दिखाकर बजट की बड़े पैमाने पर बंदरबांट अधिकारियों ने मिलकर की है। लोगों में भी यह अहसास है कि कुंआ आपातकालीन व्यवस्था के बतौर तो हो सकता है लेकिन रोजमर्रा में उनका इस्तेमाल अब संभव नहीं है। वजह कुंओं से पानी निकालना श्रमसाध्य होने के साथ-साथ यह भी मान लिया जाना है कि कुंए का पानी गुणवत्ता में ठीक न होने से मजबूरी में ही इस्तेमाल किया जा सकता है।
लेकिन बलिया और शाहपुर के सर्वे का निचोड़ इन्हीं दो जगहों तक सीमित नहीं है बल्कि नलकूपों का पानी पीने से जो समस्या पैदा हुई वह बुंदेलखंड में भी हो सकती है। इस कारण पीने के लिये कुंए का ही जल इस्तेमाल करने की आदत यहां विकसित करनी पड़ेगी।
कुंआ कीमती परिसंपत्ति : कुंओं का पुनरुद्घार इसलिये जरूरी है क्योंकि यह कीमती सरकारी परिसंपत्ति भई है। कुंए के निर्माण की लागत 1 लाख तक होती है। जालौन जिले में लगभग साढ़े 4 हजार कुंए हैं यानी 45 करोड़ रुपये की कुल परिसंपत्ति हुयी जिनका रखरखाव कर बेहतर दशा में लाने के लिये परियोजना बनायी जाये तो मात्र 2 करोड़ रुपये से काम चल जायेगा। क्या इस तथ्य की रोशनी में कुंओं के संरक्षण के लिये कोई प्रभावी पहल हो सकेगी।
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