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बदलाव के पीछे कितने अदृश्य और अप्रत्यक्ष कारक होते हैं इसे समझने के लिये व्यापक दूरदृष्टि चाहिये। स्वामी विवेकानंद ने अध्यात्म को अपना कार्यक्षेत्र चुना था। यहीं से उन्होंने गुलामी के दुर्ग पर विचारों के बमों का प्रक्षेपण किया। पहले तो शिकागो में विश्व धर्म परिषद में अपने प्रवचन से डंका पिटवाकर आत्म विस्मृत हो चुकी भारतीय चेतना को बहाल किया, उसे आत्म गौरव का अनुभव कराया। इसके बाद उन्होंने लगातार लोगों की चेतना में यह बात डाली कि वेदांत का सर्वोच्च लक्ष्य है मुक्ति। इस लक्ष्य को खोजने के लिये नये भारत को सामने आना होगा। यह भारत आयेगा मोचियों में से, मजदूरों की झोपडिय़ों से, वंचितों से, निरीह समाज से। अंततोगत्वा जिनको उन्होंने लक्षित किया था वह भारत-राष्ट्र की मुक्ति की लड़ाई में गांधीजी के साथ जन आंदोलन बनकर सामने आया।
आज सारा देश भ्रष्टाचार की समस्या की वजह से त्रस्त है। भ्रष्टाचार मिटाने का सपना दिखाकर रातोंरात एक पार्टी राष्ट्रीय क्षितिज पर उभरी। लेकिन कानून बनाने से, कुछ संस्थाओं के निर्माण करने से क्या भ्रष्टाचार का अंत हो जायेगा। परिस्थितियों के निर्माण में भौतिक कारणों से ज्यादा बड़ी भूमिका आध्यात्मिक कारणों की होती है और उनमें विद्यमान विसंगतियों का उपचार अध्यात्म के जरिये ज्यादा कारगर तरीके से हो सकता है। स्वामी विवेकानंद के कृतित्व की यह सनद आज भी प्रासंगिक लगती है।
आज उरई जैसे शहर में एन्डीवर गाडिय़ां 200 होंगी। अटल बिहारी बाजपेयी ने बड़ी निजी गाडिय़ों की फैक्ट्री को उत्पाद कर में छूट प्रदान की थी। क्या कभी उन्होंने सोचा था कि नंबर एक में इन गाडिय़ों को खरीदने की क्षमता रखने वाले देश में कितने लोग हैं। इसका सर्वे करायें। उन्होंने यह नहीं सोचा क्योंकि यह सर्वे हो जाये तो उरई में कोई आदमी उस पात्रता का नहीं निकलेगा जो एन्डीवर गाड़ी खरीद सके। चंद लोग यह गाड़ी देश भर में खरीद सकते थे जिनके लिये फैक्ट्रियां देश के अंदर स्थापित नहीं की जानी चाहिये थी। ऐसी अनेक चीजें हैं जो इतनी महंगी हैं कि देश भर में चंद वैध लोग ही उनको क्रय कर सकेें लेकिन उनकी आम बिक्री हो रही है। सरकार ने पहले से सोच रखा था कि उनकी बिक्री की आवश्यकता के लिये न केवल वह भ्रष्टाचार को अनदेखा करे बल्कि उसे पनपाये।
यह उपभोगवाद का नतीजा है जो संयम, सादगी, इन्द्रिय निग्रह और अपरिग्रह के बुनियादी आध्यात्मिक उसूलों के खिलाफ है जिसे सुनियोजित ढंग से बढ़ावा दिया गया। पहले व्यवस्था अन्यायपूर्ण थी, भ्रष्ट थी क्योंकि वह भेदभाव और सामाजिक आधार पर शोषण को प्रेरित करती थी लेकिन इस व्यवस्था का आदमी बहुत ईमानदार था उसका नैतिक स्तर बहुत ऊंचा था। आज व्यवस्था को बाह्य कानूनों से तथाकथित तौर पर स्पष्ट और पारदर्शी बनाया जा सकता है लेकिन व्यक्ति का नैतिक उत्थान कैसे किया जाये जिसका चरित्र पतन हो चुका है यह एक बड़ी चुनौती है जिस पर सुधारवाद के नये मसीहाओं ने कोई ध्यान नहीं दिया है।
महात्मा गांधी ने त्याग के मूल्य को पहचान कर इसे व्यक्ति के नैतिक उत्थान के सबसे बड़े मंत्र के बतौर आविष्कृत किया था क्योंकि वे सार्वजनिक जीवन में एक ऐसे परिवेश में काम कर रहे थे जिसमें स्वामी विवेकानंद जैसे सन्यासी और संत अवतार ले रहे थे। महात्मा गांधी ने विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर उनकी होली जलायी। बड़े आदमियों को जिनके लिये विदेशी वस्त्र पहनना स्टेटस सिंबल था इस बात पर तैयार करना आसान काम नहीं था। यह इसलिये हुआ कि महात्माजी ने खुद तो वस्त्रों का ही त्याग कर दिया। महात्माजी ने बड़े-बड़े घरों के लोगों को चरखे पर अपने हाथ से काते सूत के वस्त्र पहनने के लिये तैयार कर दिया। यह आध्यात्मिक क्रांति थी। संकल्प और त्याग व्यक्ति में कानून से नहीं पनपते। आध्यात्मिक परिवेश इसके लिये एकमात्र शर्त है इसलिये स्वामी विवेकानंद आज ज्यादा प्रासंगिक हो गये। उनकी वर्तमान जयंती पर भ्रष्टाचार मिटाने की तड़प के लिये आध्यात्मिक रार पर समाधान तलाशने की चर्चा शुरू होनी चाहिये।
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