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सत्ता के चरण स्पर्श करती बेहया पत्रकारिता

मुक्त विचार
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खबर है कि इटावा में प्रदेश के एक प्रमुख दैनिक के संवाददाता ने लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव के चरण स्पर्श करके सैफई महोत्सव के बारे में दी गयी खबर पर माफी मांगी फिर भी शिवपाल सिंह नहीं पसीजे। राज्य सरकार ने सैफई महोत्सव के असुविधाजनक कवरेज के कारण कई मीडिया प्रतिष्ठानों पर दमन चक्र चलाया है। आश्चर्य की बात यह है कि राज्य सरकार की कार्रवाई के खिलाफ जनमानस में कोई मुद्दा नहीं बन पा रहा जबकि एक समय इंडियन एक्सप्रेस के खिलाफ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कार्रवाई करायी थी तो सारे देश में तूफान खड़ा हो गया था।
शिवपाल सिंह के सामने साष्टांग होने वाले संवाददाता के बारे में जान लें तो बदली परिस्थिति का कारण कुछ समझ में आ जायेगा। यह संवाददाता पहले किसी दूसरे वीआईपी जिले में था तो नेताओं और अधिकारियों से महीना बांधे था। उनके खरीदे टिकट पर सपरिवार हवाई यात्रायें करता था। संपादक को भी अच्छी खासी मंथली और तमाम सेवायें मुहैया कराता था। संपादक और संवाददाता दोनों को इस माहवारी और सुविधाओं की लत लग गयी थी जिसकी वजह से इटावा आने पर भी इसने वह धंधा जारी रखा। लेकिन समाजवादी पार्टी के नेता कुदरती तौर पर इतने दबंग हैं कि उन्हें हड़का पाये ऐसा तीसमार खां होना मुश्किल है। उधर इटावा पहुंचकर गली-गली में समाचार छापने और रोकने के लिये इसके द्वारा की गयी वसूली से लोगों को समूची पत्रकारिता से नफरत हो गयी थी। ऐसे अखबार वाले यदि जूतों से भी पिटें तो लोगों को क्यों हमदर्दी होगी।
जहां तक सैफई में हुए फिल्मी अप्सराओं और अभिनेताओं के रंगीले शो का प्रश्न है किसी भी लोकतांत्रिक और खासतौर से समाजवादी विचारधारा से अपना संबंध जोडऩे वाले नेता और पार्टी के शील के तो यह पूरी तरह खिलाफ है। इसलिये निष्पक्ष मीडियाकर्मी पहले वर्ष से ही सैफई महोत्सव की आड़ में हो रहे विलासी प्रदर्शन के आलोचक हैं लेकिन महीनों पहले हो चुके मुजफ्फरनगर दंगे का हवाला देकर इस वर्ष के आयोजन के औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों की भावनायें पाक साफ नहीं कही जा सकतीं। मुजफ्फरनगर दंगों का हवाला देकर सैफई महोत्सव को गलत ठहराने में कोई संगति नहीं थी। निश्चित रूप से यह एक गढ़ा हुआ मुद्दा था जिसके निशाने पर समाजवादी पार्टी थी। लोकसभा चुनाव को देखते हुए वर्ग विशेष को उसके खिलाफ भड़काने की ओछी हरकत इसमें शामिल रही। बिकाऊ पत्रकारिता के इस दौर में इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं है कि सपा विरोधी ताकतों से पैसा लेकर यह काम किया गया हो।
पिछले कुछ वर्षों में मीडिया का घनघोर पतन हुआ है। यह जन चेतना का निर्माण करने वाली विधा न रहकर घटिया मनोरंजन उद्योग का पर्याय बन गयी है। पहले पत्रकार जन्मजात होता था जिसमें लिखने पढऩे की ललक और समाज की बुराइयों से लडऩे का जज्बा होता था। कितना वेतन मिले कितना मानदेय मिले इससे सरोकार नहीं था। आज जो संपादक हैं उन्हें वेतन तो उनकी औकात से बहुत ज्यादा मिल रहा है लेकिन उनकी भूख इतनी ज्यादा है कि सुअर की तरह विष्टा खाने में भी उन्हें परहेज नहीं है। इलेक्ट्रानिक मीडिया में खासतौर से जिलों के स्तर पर रखे जाने वाले रिपोर्टरों की योग्यता का कोई ख्याल नहीं रखा जाता। न जिन्हें हिज्जे का ज्ञान है न वाक्य विन्यास आता है और न ही जिनकी कोई जनरल नालेज है और न ही विभिन्न मुद्दों पर खुद के किसी तरह के विचार हैं, उनसे किसी विषय पर निबंध लिखवा लिया जाये यह तो दूर की बात है। इन्होंने स्टेट में या दिल्ली के हेड की जेब में नोट की गड्डी डाली और मिल गयी माइक आईडी। 8 लाख रुपये देकर भर्ती होने वाले गंवार सिपाही की तरह के तेवर यह भी पत्रकार का तमगा मिलते ही दिखाने लग जाते हैं। यदि डिग्री कालेज कवरेज करने पहुंचे तो जिस तरह सिपाही प्रोफेसर जैसे गरिमामय व्यक्तियों से भी बेअदबी से पेश आना अपनी शान समझता है वैसे ही यह पत्रकार भी करते हैं।
जिस अखबार की अखिलेश यादव ने बेइज्जती की वह अपने कलेजे पर हाथ रखकर बताये कि इसके पहले दिवंगत हो चुके उसके प्रधान संपादक के समय क्या ऐसा था कि हर खबर और फोटो छापने के लिये उसके पत्रकार गली के गुंडों की तरह रंगदारी वसूल करने निकलते हों। आज कारोबारियों के लिये पत्रकारिता के नये अवतारों की वजह से सही तरीके से धंधा करना मुश्किल है। अगर उनका महीना नहीं बांधा तो एसपी तक उसके साथ चले आयेंगे और व्यापारी के खिलाफ एक मुकदमा लिख देंगे। अफसरों का काम भी आज सरकार की रेवेन्यू बढाना नहीं मीडिया के कहने से मुकदमे लिखना और खत्म करना हो गया है क्योंकि वे भी दिन भर घूसखोरी के अलावा कुछ नहीं करते। अपनी नौकरी वे झूठी पत्रकार वार्ताओंं के जरिये साधे रहते हैं।
सपा के सुप्रीमो मुलायम सिंह तो बड़ी मासूमियत से सारे पत्रकारों की भद सार्वजनिक कार्यक्रमों में पीट ही देते हैं जब वे कहते हैं कि उनसे जो भी पत्रकार मिला उसे उन्होंने मनचाही जगह बंगला दिला दिया। ध्यान रहे कि लखनऊ के पत्रकार अपने रहने के लिये नहीं किराये पर उठाने के लिये बंगले एलाट करा रहे हैं। मुलायम सिंह ने कहा कि वे पत्रकारों का हर काम करने को तैयार रहते हैं। जिनके काम रह गये हों वे उनसे अकेले में मिलकर बता दें काम हो जायेंगे। काम यानी पैसा लेकर ट्रांसफर पोस्टिंग।
पत्रकारिता की एक नैतिक संहिता भी है। पहले आफ दि रिकार्ड बातचीत कोई छापता नहीं था। इस कारण अफसर पत्रकारों से वे बातें साझा करते थे जो अधिकारिक रूप से नहीं कही जा सकतीं। पत्रकार उनकी बात को उनके नाम से नहीं छापते थे लेकिन सिद्घान्त और व्यवहार के बीच की कई विसंगतियां उन्हें पता चल जाती हैं जिनसे समाज को दिशा देने वाला विश्लेषण वे तैयार कर लेते थे। आज यह लक्ष्मण रेखा मिट गयी है। बहला फुसलाकर निजी बातचीत भी खुफिया रूप से रिकार्ड करके प्रसारित कर दी जाती है। यह तथाकथित निर्भीक पत्रकारिता कितनी थोथी है यह बात मुलायम सिंह के गत मुख्यमंत्रित्व काल में उजागर हो चुकी है जब आईबीएन-7 ने उत्तरप्रदेश के विधायकों और मंत्रियों का स्टिंग आपरेशन प्रसारित किया और उस पर विधानमंडल की जांच समिति गठित हो गयी उसने जब आईबीएन-7 से सीडी तलब की तो उसमें टेम्परिंग निकली। आईबीएन-7 के संपादक राजदीप सरदेसाई ने कहा कि उनके रिपोर्टर ने यह स्टिंग नहीं किया था। उन्होंने किसी दूसरे से सीडी खरीद ली थी जिससे यह चूक हुई। बहरहाल उन्हें माफी मांगनी पड़ी बड़े पत्रकार थे इसलिये बच गये वरना विशेषाधिकारों के उल्लंघन के आरोप में जेल पहुंच गये होते। सनसनी, अपराध, ग्लैमर बेचकर दुकानदारी चलाने का धंधा बन गया है आज पत्रकारिता। ऐसी पत्रकारिता लोगों की श्रद्घा व विश्वास हासिल नहीं कर सकती। इस कारण पत्रकारों पर अत्याचार हों तो कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं होती।

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