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लीक से हटकर भी एक दुनिया है

मुक्त विचार
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आजकल व्यापार शहरों में होलसेल डीलर बनाये बिना, शोरूम खोलने और और जगह-जगह खूबसूरत बिक्री सेन्टर स्थापित किये बिना संभव नहीं है लेकिन नेटवर्किंग कंपनी एमवे ने इससे हटकर रास्ता चुना। बिक्री सेन्टर, शोरूम का कोई तामझाम इस कंपनी में नहीं है। फिर भी कारोबार में बिल्कुल कमतर नहीं। दूसरी ओर इस युग में जब बाजार की दुनिया में अपना सिक्का विज्ञापन को भगवान बनाये बिना चलाना संभव नहीं है, योग गुरु बाबा रामदेव ने इसका उलट किया। अब वे अपने आयुर्वेद उत्पादों का थोड़ा बहुत विज्ञापन जरूर करने लगे हैं लेकिन उन्होंने शुरूआत में अपना पूरा कारोबार बिना विज्ञापनों के जमाया था। इतना ही नहीं विज्ञापन की शेर समझी जाने वाली कोल्डड्रिंक कंपनियों पर उन्होंने अपने तौर तरीकों से जो बिजली गिराई उसके सामने विज्ञापन जगत की करिश्माई संप्रेषणीय शक्ति चूं बोल गयी।
एक और उदाहरण चीन का है। वह जब व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में आया उस समय बाजार में ग्राहकों का विश्वास जीतने के लिये कंपनियां इस बात का भरोसा दिलाती थीं कि कीमत भले ही ज्यादा हो लेकिन उनका प्रोडक्ट टिकाऊ सबसे ज्यादा है। ग्राहकों का भी माइंड सेट ऐसा था कि वे चीज के बारे में सबसे ज्यादा चलने के दावे पर फट से आकर्षित होते थे। चीन ने यह स्थिति बदलने की चुनौती कुबूल की। उसने अपने प्रोडक्ट को लेकर कहा कि टिकाऊ कितना है यह तो गारंटी नहीं है लेकिन टिकाऊ कहे जाने वाले उत्पादों से उसकी कीमत एक चौथाई है। चीन ने सस्ते का ऐसा जादू दिखाया कि तमाम नामी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भट्टा बैठ गया।
भले ही इस देश के मनीषियों ने ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या कहा हो लेकिन हकीकत यह है कि यहां सबसे ज्यादा मान्यता जगत में मिलने वाली सफलता का है। इस कारण यहां बाजार के उदाहरणों को अपनी बात कहने के लिये जानबूझकर चुना गया क्योंकि इन दृष्टांतों से भारतीय समाज को हमारी बात जल्दी समझ में आयेगी।
आज माहौल ऐसा बना है जिसमें लीक से हटकर खोजने का जज्बा और साहस देश के लोगों से गायब हो चुका है। बाजारवाद की तमाम चीजों से हमारे नैतिक प्रतिमानों, अस्मिता को भीषण आघात पहुंच रहा है। इसे स्वीकार करते हुए भी अलग हटकर सोचने या नये विकल्प की ओर उन्मुख होने का प्रस्ताव यह कहकर रद कर दिया जाता है कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में दुनिया में जो हो रहा है उससे अलग हटकर कुछ करना संभव नहीं है। जिस धुरी पर दुनिया नाच रही है या नचाई जा रही है उसी धुरी पर नृत्य करना हमारी मजबूरी है। भले ही ऐसा करना आत्मघात हो। डंकल प्रस्ताव और विश्व व्यापार संगठन के समर्पणकारी अनुबंधों पर हस्ताक्षर करने के विरोध के समय भी इसी दीनता का प्रदर्शन किया गया था और आज भी इसकी आड़ में आत्म विनाशक नीतियों को स्वीकृति देने का क्रम जारी है लेकिन शुरूआत में जिन दृष्टांतों का जिक्र हमने किया वे उन कोलंबसों की परंपरा की याद दिलाते हैं जो नये-नये द्वीप की खोज में समुद्र में अज्ञात सफर पर निकल जाते थे और वही लोग इतिहास निर्माता हुए। क्या बाबा रामदेव ने लीक से हटकर भी अपना कारोबार नहीं जमा लिया।
लीक पर चलने का बहाना इसलिये लिया जा रहा है कि हम प्रतिबद्घता विहीन होने की अपनी नंगई को ढांपे रखना चाहते हैं। दुनिया में हर कौम है जिसकी कुछ बुनियादी मान्यतायें हैं यानी जिसमें कुछ मौलिक है, ओरिजिनल है जिसे खोकर वह तथाकथित प्रगति की राह पर आगे नहीं बढऩा चाहतीं। कट्टरवादी, अतिवादी, उग्रवादी और आतंकवादी कहकर मुख्यधारा के विश्व के द्वारा तिरस्कृत की जा रही यह कौमें अपने ओरिजिनल को संरक्षित रखने के प्रतिकार और विद्रोह की मानवीय फितरत का प्रतिनिधित्व करती हैं। ओरिजिनल खोकर तो मानव रोबोट में बदल जायेगा और शायद भारतीय समाज भी मानवीय चेतना से परे होकर रोबोट भंडार के रूप में बचा रह गया है।
डीजल, पेट्रोल ही आधुनिक दुनिया का इंजिन चला रहा है। इतना ही नहीं आम आदमी की नियति भी खनिज ईंधन से बंध गयी है। इसकी कीमतों में भयावह दर से की जा रही वृद्घि से महंगाई का झूला तो आसमान की बुलंदियों पर पहुंच ही रहा है, आम आदमी के तो अस्तित्व पर इसके चलते बन आयी है। अगर हम अपनी शर्तों पर जीयें तो क्या ऐसी नीतियां नहीं बन सकतीं जिनसे दूसरे गैर जरूरी क्षेत्रों में कर उगाही बढ़ाकर संसाधन जुटायें ताकि डीजल पेट्रोल के मूल्य स्थिर रखने के लिये इनकी कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा अनुदान की व्यवस्था रख सकेें। यह हो सकता है लेकिन किया नहीं जा रहा। माना कि पेट्रोल, डीजल के लिये हम आयात पर निर्भर हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर हमारा कोई जोर नहीं है पर अगर ऐसा है तो निजी और ज्यादा खपत वाली महंगी गाडिय़ों को बढ़ाने जबकि सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को ध्वस्त रखने का काम क्यों किया जा रहा है। निश्चित रूप से यह शरारत है। तीस लाख, चालीस लाख तक की छोटे शहरों में हमने ओडी, लैंडरोवर जैसी निजी गाड़ी अफोर्ड करने वाले लोगों को तो पेट्रोल की कीमत एकदम 200 रुपये लीटर भी बढ़ जाये तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन बाइक वाला जिसकी जीविका का भी वाहन कई मायनों में माध्यम है उसकी तो आमदनी तक का हिसाब गड़बड़ा जायेगा। अगर बहुतायत जनता के प्रति शासक वर्ग फिक्रमंद होता तो दुनिया में सबसे ज्यादा महंगा डीजल, पेट्रोल भारत में न बिकता। पांच लाख रुपये से ऊपर की गाडिय़ों पर कराधान बढ़ाकर और सप्ताह में एक दिन बिना ईंधन चलित वाहनों के चलने का संकल्प शासन प्रशासन के अधिकारियों द्वारा तय कर नयी संस्कृति के निर्माण की पहल की जा सकती थी जिससे खनिज ईंधन की निजी खपत में कमी लाने का रोडमैप तैयार होता।
बहुत ही क्षोभ होता है जब आज कस्बाई शहरों तक में विवाहघरों में 13-14 साल की लड़कियों को खाद्य और पेय सामग्री सर्व करते देखा जाता है। क्रिकेट के क्षेत्र में चीयर्स गर्ल से लेकर किशोरियों को वेटर बनाने तक की नवसृजित परंपरा क्या भारतीय संस्कृति के बुनियादी मूल्यों से मेल खाती है। नारी स्वतंत्रता से संबंधित अवधारणाओं को लेकर अमेरिका को कोई पेटेंट नहीं कर दिया गया है जो रूढि़वादी करार दिये जाने के डर से बाजार के स्वार्थ के लिये उनके द्वारा स्त्रियों को अपमानित करने के लिये चलाये जाने वाले हर रिवाज को हम मान लें। नारी स्वातंत्र्य के प्रगतिशील उपक्रम के पीछे दैहिक उपभोग को बढ़ावा देने की क्या चालें हैं इसे बेनकाब और ऐसे उपक्रमों को अस्वीकार करने का काम जरूरी हो सकता है जब हम अपनी नैतिकता के प्रति सचेत हों। लैंगिक स्वतंत्रता का पश्चिमी माडल यौन अपराधों की बाढ़ का जनक है। कानून बनाकर इस पर अंकुश की कल्पना मृगमरीचिका है। तमाम क्षेत्रों में विवेकहीनता के चलते अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के काम खुद के द्वारा करते हम पहचान सकते हैं। कुल मिलाकर लीक से हटकर भी कई रास्ते हैं। अगर लीक गलत है तो उन्हें ढूंढने और उन पर चलने का साहस दिखायें।

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