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पुलिस : मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की

मुक्त विचार
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आम लोगों की सुरक्षा के लिये बनायी गयी मशीनरी उनके लिये सबसे बड़ी समस्या बन गयी है। खाकी के मामले में मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की जैसे हालात बनते जा रहे हैं। पुलिस सुधार के मामले में जैसे-जैसे जागरूकता बढ़ी यह तंत्र और अधिक बीमार होता चला गया। उत्तरप्रदेश में हालात सबसे ज्यादा गंभीर हैं। खुद डीजीपी रिजवान अहमद ने पुलिस के भ्रष्ट होने की बात स्वीकार की है।
हाल में लखनऊ में हुए आईपीएस वीक के दौरान भी पुलिस के बारे में समाज में बन रही गलत धारणायें चिंता का विषय रही हैं। आत्मचिंतन किसी भी तंत्र के लिये एक अच्छी परंपरा है इस नाते यूपी आईपीएस एसोसियेशन की इस मामले में पहल का स्वागत होना चाहिये। दूसरी ओर कुछ महीने पहले उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर पुलिस की ओर से कहा गया था कि अदालत और समाज यह समझे कि पुलिस कर्मियों के भी कुछ अधिकार हैं। पुलिस की पीड़ा भी नाजायज नहीं लगती। कानून व्यवस्था पर बन आने के दौरान पुलिस तात्कालिक विवेक से जो तरीके इस्तेमाल करती है वह प्राय: शांति व्यवस्था के व्यापक हित में होते हैं। ऐसे मौके पर बल प्रयोग की नौबत की वजह कोई व्यक्तिगत पूर्वाग्रह नहीं होता फिर भी पुलिस के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो जाते हैं। ऐसे में पुलिस निर्भय होकर अपनी ड्यूटी को अंजाम कैसे दे।
उत्तरप्रदेश पुलिस के संदर्भ में नयी समस्याओं से रूबरू है। यहां पुलिस के इस्तेमाल से राजनीतिक उद्देश्यों की सिद्घि एक सफल हथकंडे के रूप में स्थापित हो चुकी है। पिछले कुछ दशकों में जो राजनीतिक शक्तियां उत्तरप्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर धूमकेतु की तरह असरदार हुई हैं उनका मुख्य ध्यान सत्ता में आते ही पुलिस व्यवस्था पर जाता है। नतीजतन भर्ती से लेकर स्थानांतरण व प्रोन्नति पोस्टिंग तक में यहां ऐसी प्रक्रियाओं की पैठ करायी गयी कि पुलिस एक जाति सेना और पार्टी विशेष के खाकी प्रकोष्ठ में तब्दील होकर रह गयी। ऐसी पुलिस से निष्पक्ष आचरण की आशा करना बेकार है। सरकार में सीधी पहुंच होने का भान खाकी को इतना मगरूर कर चुका है कि पुलिस में अनुशासन बीते युग की बात बनकर रह गयी है। सिपाही पुलिस दफ्तर में ही नहीं बंगले तक में अपने आईपीएस बास को बेइज्जत कर देता है और अफसर को बेबस होकर रह जाना पड़ता है क्योंकि उसे मालूम है कि बात बढ़ाई तो ट्रांसफर सिपाही का नहीं उसका होगा।
राजनीतिक भावना से काम करने वाले पुलिस अफसर दूसरे ढंग से भी सोच सकते हैं और तब शायद बेहतर नतीजे भी दे सकते हैं। वे सोचें कि अगर उनकी अपनी पार्टी सत्ता में है तो उनकी जिम्मेदारी है कि उन्हें उक्त पार्टी की सरकार के समय सार्वजनिक रूप से ऐसा आचरण करने से बचना चाहिये जिससे सरकार की छवि खराब होती है। न तो पार्टी की ओर से उन्हें इस बात की हिदायत देने की कोशिश की जाती है न वे खुद अपने आपसे यह सोचने की जरूरत महसूस करते हैं। मुझे याद है कि 1995 में जब मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं तो कुछ महीने बाद एक सज्जन ने मुझसे शिकायत की कि वे अनुसूचित जाति के हैं इसके बावजूद अभी तक उनकी ही सुनी जा रही है जो सदियों से हम लोगों का शोषण कर रहे हैं। वे वामसेफ से जुड़े रहे जिले में पदस्थ एक सीनियर अफसर से त्रस्त थे जिसने किसी सवर्ण से लेनदेन करके उनके हितों पर कुठाराघात करने में कसर नहीं रखी थी। उनका कहना था कि उस अधिकारी ने यह भी नहीं सोचा कि अभी तक उसके साथ जातिगत मानसिकता के कारण कितनी बार भेदभाव हुआ है जिसकी वजह से ही वंचित जातियों के अफसरों को अपने पसीने की कमाई से वामसेफ जैसा संगठन बनाना पड़ा था। आज जब उनका संघर्ष तार्किक परिणति पर पहुंचा जिसमें कुछ दिन के लिये दलित नेत्री को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है तो वे ऐसे काम करें जिससे सरकार की लोकप्रियता और मजबूत हो ताकि समाज में स्थायी बदलाव लाया जा सके। यह पीड़ा मायावती के हर बार मुख्यमंत्री बनने के साथ वामसेफ से जुड़े रहे अफसरों के मुकरे गवाह जैसे कारनामों की वजह से दबे कुचले समाज में गहराती रही और आखिर में बहुजन आंदोलन अपनी मंजिल से भटक कर सामाजिक यथास्थितिवाद की खाई से गर्क में हो जाने को अभिशप्त हो गया।
खाकी का नया चेहरा तो लखनऊ में अपनी सरकार होने के अहसास के चलते इससे भी दो कदम आगे निकल गया है। पुलिस अब केवल डग्गामार वाहन चलवाने, जुआ खिलवाने तक सीमित नहीं है बल्कि स्वयं को सत्ता का असली प्रतिनिधि मानने वाले पुलिस कर्मी लूट करने, डकैती डालने और हत्या की वारदात को अंजाम देने में भी पीछे नहीं हैं। खाकी के जबर्दस्त अपराधीकरण का एक नया अध्याय लिखा जा रहा है। इस पुलिस के सहारे दमन

और आतंक का ऐसा राज स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि सत्ताधारियों की निरंकुशता के खिलाफ कोई चूं करने का साहस नहीं कर सके। अगर मानसिक रूप से स्वस्थ और चैतन्य समाज होता तो इन हालातों में जन असंतोष की पराकाष्ठा से सरकार का एक दिन चलना मुश्किल हो जाता। लेकिन लम्बे समय तक गुलामी की मानसिकता में जीने के कारण संस्कार भ्रष्ट हो चुके समाज के वर्तमान सत्ताधारियों की इस धारणा में ही विश्वास दिखता है कि शासन चलाने का अधिकार उसी को होना चाहिये जिसमें कलेजा हो। कलेजा के मुहावरे की साकार अभिव्यक्ति को समाज केवल शासकों के मनमानेपन में देखता है और जाहिर है कि ऐसे शासन का मुरीद होना उसकी कमजोरी है।
पुलिस वीक में आगरा के आईजी आशुतोष पांडेय ने मुजफ्फरनगर दंगों में हुई चूक को लेकर जो रिपोर्ट पेश की उसमें बताया गया कि हत्या के एक मामले में छह एफआईआर दर्ज की गयी थीं जिनमें घटनास्थल अलग, वादी अलग और समय अलग के साथ-साथ घटनास्थल अलग-अलग थाना क्षेत्र में दर्शाया गया था। आशुतोष पांडेय की रिपोर्ट में इसी तरह के कई चौंकाने वाले चूक के तथ्य शामिल हैं। प्रदेश की पुलिस अब इसे गाइड लाइन की तरह इस्तेमाल करने पर विचार कर रही है। लेकिन जिस पुलिस के काम करने का तरीका इतना अंधाधुंध हो उसे डीजीपी रिजवान अहमद के अलावा कोई सर्वोत्तम पुलिस नहीं कह सकता। मौजूदा निजाम में पुलिस एकदम प्रोफेशनल नहीं रह गयी। कल्याण सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में उत्तरप्रदेश की इसी पुलिस से एसटीएफ का गठन किया गया था जिसने निशाना बनाकर उस समय के एक के बाद एक मोस्ट वांटेड अपराधियों का सफाया कर दिया था। उस समय उत्तरप्रदेश की पुलिस के लिये कहा गया था कि इसकी परफारमेंस स्काटलैंड यार्ड से भी बेहतर है। अब उत्तरप्रदेश पुलिस को क्या हो गया है।
शासन की सबसे मूल पहचान पुलिस की दशा है जो उत्तरप्रदेश में अराजकता का पर्याय बन चुकी है। पुलिस कर्मियों के नैतिक उत्थान की प्रक्रिया अपनाने की बजाय कोशिश हो रही है कि खाकी की मानसिकता को विदेशी आक्रमणकारी सेना की जैसी लुटेरी और बर्बर प्रवृत्तियों में ढाला जाये। पुलिस कर्मियों में दिन में ही पीना शुरू कर देने की बुरी आदत तेजी से जोर पकड़ती जा रही है। ज्यादातर पुलिस कर्मी टैंकर बन गये हैं ऐसे में उनमें सुधार की हर गुंजाइश समाप्त होती जा रही है। पीने के बाद पैसा कमाने के लिये जरायम तक कर डालने का दुस्साहस उनमें पनप रहा है। पुलिस कर्मियों ने पीने की बुराई को दूर करने के लिये क्या हो सकता है इस पर कोई गंभीर चिंतन नहीं हो रहा। निजी स्तर पर भी अफसर इसके लिये कहीं कोई पहल नहीं कर रहे। एक समय पुलिस में ऐसे तत्वों को चिन्हित करने का अभियान चला था जो अपराधों में लिप्त रहते हैं। पुलिस की यह काली भेड़ें इसके तहत चिन्हित कर बर्खास्त की गयी थीं लेकिन अब यह अभियान बंद कर दिया गया है। पुलिस कर्मियों के आचरण पर निगरानी रखने की व्यवस्था सबसे सूक्ष्म और सख्त होनी चाहिये क्योंकि पुलिस जैसी होगी शासन की पहचान लोगों में वैसी ही बनेगी। आज साधारण सिपाही तक करोड़पति है। उनके पास धन वैभव की कमी नहीं है। इंसपेक्टरों के पास तो महानगरों में बेशकीमती प्लाट व कोठियां हैं। वे रीयल स्टेट कारोबार में लगे हुए हैं। एंटी करप्शन, विजीलेंस, ईओडब्लू जैसे कितने महकमे प्रदेश में सक्रिय हैं लेकिन इसके बावजूद लूट के माल से मोटे हो रहे पुलिस कर्मी किसी की निगाह में नहीं आते यह आश्चर्य का विषय है। पुलिस कर्मियों के लिये अपनी परिसंपत्तियों का रिटर्न नियमित रूप से दाखिल करने की बाध्यकारी व्यवस्था हो और बेशुमार जायदाद बनाने वाले पुलिस अफसरों की जांच के लिये अलग से तंत्र गठित किया जाये। यही नहीं इस तंत्र को वार्षिक लक्ष्य दिया जाये कि कम से कम इतने पुलिस अफसरों के खिलाफ उसे मुकदमे चलाने ही होंगे।
पुलिस को स्वायत्तता देने का राग प्राय: अलापा ही जाता है लेकिन स्वायत्ता के सिक्के का दूसरा पहलू भी है जिसे देखकर लगता है कि अगर पुलिस को स्वायत्तता मिल जाये तो शायद स्थिति और बदतर हो जायेगी। मैं ऐसे पुलिस अफसरों से परिचित हूं जिनकी व्यक्तिगत ईमानदारी व कार्यकुशलता में संदेह नहीं हो सकता। लेकिन जिनके अन्दर पूर्वाग्रह यह है कि पुलिस हुकूमत का प्रतीक है जिससे हर पुलिस कर्मी अन्य नागरिकों की तुलना में ऊपर है उसे कोई दंड नहीं दिया जाना चाहिये। नतीजा यह है कि चाहे किसी पुलिस कर्मी ने किसी निर्दोष को पीट-पीट कर मार डाला हो लेकिन अगर जांच उन्हें मिली तो उन्होंने उसे आसानी से बरी कर दिया। यहां तक कि निर्भय गूजर जैसे दुर्दांत डकैत को हथियारों की खेप पहुंचाने वाले पुलिस कर्मी तक उनकी मेहरबानी से बचते रहे। जाहिर है कि ऐसे अफसरों पर कोई नियंत्रण न रह गया तो पुलिस कितनी जल्लाद हो जायेगी इसका भी अनुमान किया जाना चाहिये।
पुलिस इतना संवेदनशील विभाग है कि इसके सुधार मुख्य चुनावी मुद्दा होना चाहिये। जिस राज्य की शांति व्यवस्था ही ठीक नहीं है वहां सरकार बेकार है। भ्रष्ट पुलिस के रहते शांति व्यवस्था ठीक होना संभव नहीं है। होना तो यह चाहिये कि जो राजनीतिक दल पुलिस को बिगाडऩे से बाज न आये उन्हें चुनाव में दंडित करके पूरी राजनीतिक बिरादरी को संदेश दिया जाये। पुलिस को राजनीतिक तंत्र के अधीन ही रहना चाहिये लेकिन राजनीतिक नेतृत्व ऐसा न हो जो पुलिस को जाति की सेना और पार्टी का उपकरण बनाने की कोशिश करे। पुलिस के दुरुपयोग के आधार पर अगर एक बार राजनीतिक तंत्र को मतदाताओं ने सजा दी तो ऐसी नजीर बनेगी कि स्थितियां हमेशा के लिये पटरी पर आ जायेंगी। लोकसभा चुनाव सन्निकट है उत्तरप्रदेश की जनता के लिये एक मौका है। संस्थागत सुधारों से ज्यादा गहरे परिवर्तन की आशा नहीं की जा सकती। यह काम प्रभावी जनमत ही कर सकता है।

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