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भारत में लोकतंत्र की उपलब्धियां कुछ कम नहीं हैं। लोकतंत्र का अर्थ है आम आदमी का शासन और देश के सबसे बड़े प्रदेश यूपी में कई बार मुख्यमंत्री बन चुके मुलायम सिंह और मायावती की सामाजिक, पारिवारिक पृष्ठभूमि देखें तो लगता है कि लोकतंत्र ने यहां अपनी अर्थसिद्घि चरितार्थ रूप में की है। उत्तरप्रदेश में ही नहीं देश के कई और सूबों में भी आम परिवार के नेता मुख्यमंत्री बनने में सफल हुए हैं। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद राष्ट्रपति पर ज्ञानी जैल सिंह का आसीन होना भी लोकतंत्र के चमत्कार के उदाहरण की एक बानगी है। लोकतंत्र के शुरूआती दौर में राज्यों में बनने वाली दूसरी पार्टियों की सरकार को केन्द्र की हुकूमत आये दिन बर्खास्त करती थी। जनमत के इस निरादर से संबंधित राज्यों की जनता में असंतोष खदबदाने लगा। जिसके बाद इस पर पानी डालने के लिये केन्द्र राज्य संबंधों की सीमा तय करने को सरकारिया आयोग गठित किया गया। भले ही इस आयोग की सिफारिशों को लागू न किया गया हो लेकिन आयोग की इच्छा के अनुरूप कालान्तर में केन्द्र द्वारा राज्य सरकारों को बर्खास्त करना मुश्किल होता गया। यह भी जनमत की एक जीत है जो लोकतंत्र का मुख्य तत्व है। दूसरी ओर हमारे लोकतंत्र में कई विकृतियां भी पनपीं जो समूची राजनैतिक व्यवस्था के लिये कलंक बन गयीं। दोषपूर्ण चुनाव प्रणाली इसमें मुख्य है। इस चुनाव प्रणाली की वजह से अपराधी तत्व विधायी संस्थाओं में पहुंचने में सफल हो जाते हैं। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिये समय-समय पर कई प्रयास हुए। हाल में उच्चतम न्यायालय ने किसी भी न्यायालय से दोष सिद्घ करार नेता के लिये यह वर्जना घोषित की है कि वह जब तक ऊंची कोर्ट से बरी न हो जाये तब तक किसी चुनाव में नामांकन दाखिल नहीं कर सकेगा। लालू यादव और रशीद मसूद जैसे बड़े नेता इस कानून के पहले शिकार बने। फिर भी राजनीति के अपराधीकरण में कोई बहुत बड़ी कमी शुरू हुई यह नहीं कहा जा सकता। लोकसभा चुनाव के लिये उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। कई प्रमुख पार्टियों ने ऐसे बाहुबलियों को उम्मीदवार बनाया है जिन पर दर्जनों संगीन मुकदमे कायम हैं। यह अपने गृह और कार्यक्षेत्र से दूर के निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार बनाये गये हैं फिर भी इनके जीतने की आशा की जा रही है। इस कारण यह नहीं कहा जा सकता कि इनमें जीतने की योग्यता इनके आतंक की वजह से है। ऐसा लगता है कि लोग बाहुबलियों को चुनाव में अतिरिक्त अंक देने के अभ्यस्त हो चुके हैं। जातिवाद और सांप्रदायिकता के आधार पर चुनाव भी लोकतंत्र के लिये एक बड़ा कलंक है। उत्तरप्रदेश के हाईकोर्ट ने जातिगत सम्मेलनों के आयोजन पर कुछ समय पहले रोक लगा दी थी जिसका संचार माध्यमों में जबर्दस्त स्वागत हुआ था लेकिन राजनीतिक दल तो भी नहीं सुधरे। हर निर्वाचन क्षेत्र में प्रमुख दल जाति और धर्म के कार्ड खेल रहे हैं। चुनाव में धन बल का जोर घटाने के लिये पिछले दो दशकों में चुनाव आयोग ने बड़ी मशक्कत की है लेकिन हालत मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की जैसी है। चुनाव आयोग की पाबंदियों से चुनाव प्रचार अभियान नीरस हो गये हैं। चुनाव के दिनों में हर जगह मुर्दनी जैसी छायी रहती है। इससे चुनाव के माध्यम से जनता में राजनैतिक चेतना का जो उत्थान होता था वह रुक गया है लेकिन काले धन के जरिये चुनाव जीतने के हथकंडों में कमी नहीं आयी है। जो धन साधन संपन्न हैं उन्होंने चुनाव आयोग की पाबंदियों को धता बताकर मतदाताओं को निर्वाचन के समय नगद रुपया वितरित करने तक का रास्ता खोज लिया है। भले ही ये बात घोषित रूप से स्वीकार न की जाये लेकिन यह बात सही है कि तमाम उम्मीदवार धन बल का करिश्मा दिखाकर चुनाव मैदान जीतने में सफल हो रहे हैं। यहां तक कि रिलायन्स कंपनी व अन्य कारपोरेट के उम्मीदवार जिनकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं है संसद में पहुंचने में सफल हुए हैं। इसके कारण कारपोरेट घराने इतने ताकतवर हो गये हैं कि संप्रभु सरकार उनके सामने पानी मांगती नजर आ रही है। भारत के पेट्रोलियम मंत्री कहते हैं कि जो पेट्रोलियम मंत्री अमुक कारपोरेट कंपनी के इशारे पर नहीं नाचता वह अपने पद पर नहीं रह पाता। यह आरोप नहीं सच्चाई है। लोकतंत्र का स्वरूप भले ही चमकदार हो लेकिन उसकी तासीर पूरी तरह जनविरोधी रुख लेती जा रही है। ऐसी ताकतें मजबूत होती जा रही हैं जिनका उद्देश्य लोगों का अमानवीय शोषण कर अपनी इजारेदारी बढ़ाना है। देश में पूंजी का केन्द्रीयकरण और आय की विषमता जैसी आज है वैसी पहले कभी नहीं हुई। अगर इस स्थिति में बदलाव न हुआ तो हमारा पूरा सिस्टम ध्वस्त हो जायेगा लेकिन कोई सुधार सिर्फ कानून या नियम बनाने से नहीं हो सकता। नियम और कानूनों की सीमायें हैं उस सीमा से ज्यादा नियम कानून बनाने से तकनीकी उलझाव बढ़ता है जिससे ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है कि किसी भी उपक्रम का कोई नतीजा न निकले। जैसे भारत की न्याय व्यवस्था की हालत जिसमें तकनीकी पेचीदगी के चलते खाक पति से हजारों करोड़ रुपये की जायदाद इकट्ठी करने वाले नेता भी आय से अधिक संपत्ति के मामले में अंततोगत्वा अदालतों से बरी हो रहे हैं। इंग्लैंड जैसे देश में जहां कोई लिखित कानून नहीं रहा लेकिन महान परंपराओं के विकास से उसने अपने लोकतंत्र को बेहद समृद्घ परंपराओं का निर्माण विधायी संस्थायें नहीं समाज करता है। इस कारण अगर स्थितियां सुधारनी हैं तो समाज की संस्थाओं का नैतिक उत्थान करके उन्हें मजबूत करना होगा। समाज की संस्थायें जिस रूप में भी जिंदा हैं। भले ही वह खाप पंचायतें क्यों न हों। वे कानून और अदालतों से ज्यादा प्रभावी हैं। कोई उनके खिलाफ जाने का साहस आसानी से नहीं करता। पहले भी तमाम गलत काम लोग इसलिये नहीं करते थे कि उनका सामाजिक बहिष्कार हो जाता था। तकनीकी शासन के दौर में कानून को मजबूत बना नहीं पाये जबकि सामाजिक हस्तक्षेप को समाज नाम की संस्था को निरंतर कमजोर करते हुए हमने समाप्त कर दिया। अब हमें इन गलतियों को पहचानना होगा। महात्मा गांधी ने उस समय जब विदेशी कपड़ा पहनना स्टेटस सिंबल था विदेशी कपड़ों की होली जलाने का अभियान चलाया और इसमें सारे अभिजात्य वर्ग को भागीदारी के लिये प्रेरित किया। इसी प्रक्रिया की देन थी कि अभिजात्य वर्ग ने विदेशी शासक वर्ग के मोह और डर को झटक दिया। नैतिक बल से उसमें ऐसा आत्मबल पैदा हुआ कि वह किसी भी भौतिक लाभ का बलिदान करने को तत्पर हो गया। आज फिर ऐसे ही नेताओं की जरूरत है जो त्याग की प्रक्रियाओं के माध्यम से जनता को नैतिक उत्थान की ओर अग्रसर कर सके।
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