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मोदी : राह नहीं आसां

मुक्त विचार
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जन संचार के साधनों के विकास से इसका इस्तेमाल करने में सक्षम लोगों को आज के युग में जन चेतना को हाईजैक करने में कामयाबी मिल रही है। मीडिया जैसी पवित्र संस्था इसके प्रभाव से विचलन का शिकार होकर बिकाऊ और बाजारू हो गयी है। बुर्जुआ लोकतंत्र केवल मुहावरे में लोगों का, लोगों के द्वारा और लोगों के लिये व्यवस्था होती है। बुर्जुआ लोकतंत्र निर्दोष जनमत से नहीं बल्कि बितंडावाद से गढ़े गये जनादेश के इशारे पर नाचता है। बितंडा की ताकत का नमूना पोलैंड में तब देखने को मिल चुका है जबकि कम्युनिस्ट शासन की समाप्ति के तत्काल बाद वहां पहला चुनाव कराया गया। इसमें ऐसे उम्मीदवार ने जन संचार के साधनों का भरपूर इस्तेमाल करके 25 फीसदी वोट हथिया लिये जो काफी पहले अमेरिका में जाकर बस गया था और जिसका बरसों से पोलैंड से कोई नाता नहीं था पर जो बहुत बड़ा पूंजीपति था। ऐसे देश में जहां लम्बे समय तक कैडर क्लास चलाकर वर्गीय समाज में चलने वाले षड्यन्त्रों के प्रति जनता को जागरूक किया जाता हो। एक ही झटके में उसका खर्चीले प्रचार अभियान के झांसे में आ जाना प्रचार की मायावी ताकत का स्वयंसिद्घ प्रमाण है।
मोदी को रातोंरात राष्ट्रीय स्तर पर अपराजेय नेता के रूप में स्थापित करने में भी मीडिया व जनसंचार के अन्य माध्यमों की बड़ी भूमिका है जिसके लिये कई महीनों से महंगी व्यूह रचना की जा रही है। न्यायाधीश अपनी अदालत में पेश मुकदमे का निपटारा स्वतंत्र विवेक से करना सुनिश्चित करने के लिये पुराने समय में यह परंपरा बनाये थे कि वे न तो लोकल न्यूज पेपर देखेंगे और न ही किसी न्यूज पेपर में लोकल की न्यूज को पढ़ेंगे। माना जाता था कि अखबारों के हस्तक्षेप से जज मुकदमे के बारे में कोई पूर्व धारणा बनाने को मजबूर हो सकते हैं जो कि हो सकता है वास्तविक तथ्यों से परे हो। इस कारण ऐसा परहेज उनके लिये जरूरी समझा जाता है। चुनाव के मामले में मतदाता जज की भूमिका में ही तो होते हैं। पता नहीं कारगर लोकतंत्र के संचालन के लिये कोई यह क्यों नहीं सोच रहा कि ऐसी व्यवस्था बनायी जाये जिससे धंधेबाज प्रचार माध्यमों को जो कि आज मीडिया के रूप में विद्यमान हैं। चुनाव के दौरान मतदाताओं पर मनमुताबिक असर डालने की गुंजाइश न मिल पाये।
बहरहाल इस समय राष्ट्रीय क्षितिज पर मोदी का घटाटोप छाया हुआ है जिसका नतीजा है कि विभिन्न क्षेत्रों की नामवर हस्तियां और तमाम दलों के कद्दावर नेता भाजपा शरणम् गच्छामि होने लगे हैं। रा के पूर्व चीफ संजीव त्रिपाठी, पूर्व थल सेनाध्यक्ष वीके सिंह, पूर्व केन्द्रीय गृहसचिव आरके सिंह, पूर्व पेट्रोलियम सचिव आरएस पांडेय और शायद जल्द ही देश की पहली महिला आईपीएस किरन बेदी भी इसी पंक्ति में हों उक्त सम्मोहन पाश में जकड़े जाने की नियति का शिकार हो रहे हैं। वहीं वीएस येद्दियुरप्पा, रामविलास पासवान, उदित राज, अनुराधा पटेल, प्रदेश के कृषि मंत्री आनंद सिंह के बेटे कीर्तिवर्धन सिंह, कौशल किशोर, सांसद जगदम्बिका पाल आदि राजनेताओं की भी लंबी फेहरिस्त है जो मोदी के नेतृत्व को या तो कबूल कर चुके हैं या तो कबूल करने वाले हैं जबकि इनमें से कई विचारधारा के स्तर पर भाजपा के विपरीत ध्रुव पर खड़े रहे हैं।
मोदी के करिश्मे की एक वजह तो शायद यह है कि अन्य पार्टियों के शासन में जिस तरह से दिशाहारा सोच और अराजकता का प्रदर्शन हुआ उससे विचलित मतदाताओं ने अब सर्वोच्च प्राथमिकता गवर्नेस को देने का फैसला कर लिया है जिसमें मोदी सबसे अव्वल हैं पर सवाल यह है कि गुजरात की तरह राष्ट्रीय जिम्मेदारी में भी मोदी वैसी दृढ़ता से काम कर पायेंगे जो कि उनकी स्वीकार्यता की मुख्य वजह बन गयी है। उत्तरप्रदेश के कैबिनेट मंत्री मनोज पांडेय का मोदी पर हमला इस संदर्भ में कहीं न कहीं दृष्टव्य है। मनोज पांडेय ने मोदी की सरकार और प्रशासन में ब्राह्म्ïाणों का कोई वजूद न होने को उन्हें कटघरे में खड़े करने का मुख्य आधार बनाया है। उनका आरोप है कि मोदी और राजनाथ सिंह मिलकर भाजपा में ब्राह्म्ïाणों का अस्तित्व समाप्त करने में लगे हैं। गौर करने वाली बात यह है कि मोदी को ब्राह्म्ïाण विरोधी साबित करने की पाण्डेय की यह मुहिम छोटा मुंह बड़ी बात जताकर नजरअंदाज नहीं की जा रही बल्कि इसे गंभीरता से लिया जा रहा है। इस मामले में भाजपा का पिछला घटनाक्रम साक्ष्य के तौर पर संज्ञान लिया जा रहा है। अटल बिहारी बाजपेयी भाजपा के शिखर पुरुष थे लेकिन उनके उत्तराधिकारी के रूप में उभर रहे लालकृष्ण आडवाणी ने जब जिन्ना प्रकरण से खुद का काम तमाम कर लिया तो यह स्थान डा.मुरलीमनोहर जोशी को हासिल हो गया। डा.जोशी को पार्टी अध्यक्ष बनने के बावजूद राजनाथ सिंह के मुकाबले बहुत भारी भरकम आंका जा रहा था और प्रधानमंत्री के पार्टी की ओर से आगामी दावेदार के रूप में उन्हीं के नाम पर मोहर लग जाने की पूरी आशा हो गयी थी लेकिन मोदी राजनाथ के उभार के बाद अब वे जोशी कहां हैं उनकी हालत इतनी कातर है कि वे अपने पसंद के संसदीय क्षेत्र से लडऩे की अनुमति पाने तक को गुहार लगाने के लिये विवश हैं। यह संयोग नहीं है कि राष्ट्रीय स्तर से लेकर प्रांतीय स्तर तक ब्राह्म्ïाणों के बड़े कद के नेता जिनमें कलराज मिश्र जैसे लोग शामिल हैं। इस समय भाजपा में बोनसाई बना दिये गये हैं। इसकी प्रतिक्रिया भाजपा को वर्ण व्यवस्था वादी पार्टी होने की वजह से मुख्य रूप से ताकत देने वाले ब्राह्म्ïाण समुदाय में क्या हो सकती है। इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। गौर करना होगा राजा मांडा वीपी सिंह का जो वाराणसी में ब्राह्म्ïाणों द्वारा राजर्षि घोषित कर आशीर्वाद प्रदान किये जाने के बाद प्रधानमंत्री पद के सभी प्रतिद्वंद्वियों से आगे निकल जाने की स्थिति में पहुंचे लेकिन पद पर पहुंचने के बाद वे अपने प्रति ब्राह्म्ïाणों की सहानुभूति को बरकरार नहीं रख पाये जिसका नतीजा यह हुआ कि उत्तरप्रदेश से लेकर हरियाणा तक जनता दल के क्षेत्रीय क्षत्रपों की गुंडागर्दी को थामने के प्रयास के दौरान समर्थन की बजाय उन्हें इतनी ज्यादा आलोचना झेलनी पड़ी कि वे नायक से रातोंरात खलनायक बन गये। ब्राह्म्ïाण वह कौम नहीं है जो बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाने की नीयत को स्वीकार कर खामोश हो जाये। इस कारण मनोज पांडेय ने जो बात उठायी है वह दूर तलक जायेगी। हो सकता है कि वीपी सिंह की तरह मोदी, राजनाथ की जोड़ी के मामले में भी ब्राह्म्ïाण उनके प्रधानमंत्री बनने तक गफलत में बने रहें लेकिन जल्द ही उनकी तंद्रा टूट सकती है। मोदी को आगे आने वाली इस मुश्किल का अंदाजा अभी नहीं हो सकता न ही अपने को चाणक्य का अवतार समझ रहे राजनाथ सिंह को जबकि चाणक्य का पेटेंट ब्राह्म्ïाण समाज केवल अपने लिये मानता है जिसकी वजह से राजनाथ सिंह की धृष्टता को लेकर भी उसकी आंखें चुनाव के बाद तो निश्चित ही खुल ही जाने वाली हैं।
राजनाथ सिंह ने चाणक्य के रूप में प्रमाणित होने के लिये सेंधमारी व तोडफ़ोड़ का जो अभियान चलाया है उसमें भी गौर करने लायक कई तथ्य हैं। उन्होंने पहली प्राथमिकता स्वयं को ठाकुरों का एकछत्र नेता जाहिर करने को दी है और जगदम्बिका पाल व कीर्तिवर्धन पर इसी कारण उन्होंने डोरे डाले हैं। एक समय राजनाथ के कारण ही संजय सिंह को भाजपा से पलायन करना पड़ा था क्योंकि राजीव गांधी के जमाने में उत्तरप्रदेश में क्षत्रिय समाज के सबसे तेजस्वी नेता के रूप में पहचान बनाने व राजघराने की पृष्ठभूमि से आने की वजह से संजय सिंह साधारण ठाकुर परिवार के राजनाथ सिंह की हैसियत पर बहुत भारी पड़ रहे थे। अब उन संजय सिंह को भी राजनाथ सिंह ने अपने प्रभाव में ले लिया था जिसकी वजह से उनकी भाजपा में शामिल होने की घोषणा होने वाली ही थी कि कांग्रेस को भनक लग गयी और उसके संकटमोचकों ने असम के कोटे से संजय सिंह को राज्यसभा में पहुंचाकर मना लिया। उदित राज ने भी उन्हीं के सामने भाजपा की सदस्यता ली और रामविलास पासवान भी उनसे ही वार्ता करके भाजपा में आये। अनुराधा पटेल में भाजपा के प्रति लगाव पैदा करने का श्रेय भी वे ही लूट रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि ठाकुरों के अलावा जहां उन्होंने एक-एक करके वर्ण व्यवस्था को पानी पी-पीकर कोसने वाले नेताओं को अपने शरणागत किया है। वहीं किसी ब्राह्म्ïाण को पार्टी में लेने में वे कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। यह हो नहीं सकता कि ब्राह्म्ïाण इसको नोटिस में न लें।
बहरहाल वर्ण व्यवस्था के प्रभाव के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था देश के लिये एक समस्या बन गयी है और उपर्युक्त चर्चा का संदर्भ यहां इसी को जताना है। अगर सामाजिक प्रगति का रुझान इस देश में ऋजुरेखीय होता तो इस मुकाम पर सुशासन देने की मोदी की क्षमता उन्हें प्रधानमंत्री बनने पर लंबे समय तक के लिये निष्कंटक सरकार चलाने का अïवसर दे सकती थी लेकिन ऐसा होगा नहीं। लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब लोग सुव्यवस्था को किसी खंडित दृष्टिकोण के बिना स्वीकार करने की स्थिति में हों। अगर कानून व्यवस्था बेहतर होगी तो रात में नकदी लेकर चलने के बावजूद व्यक्ति निश्चिंत रहेगा फिर चाहे वह ब्राह्म्ïाण हो या दलित। इसी तरह विकास होगा तो सम्बन्धित क्षेत्र के हर व्यक्ति को बिना जाति देखे उत्थान करने का अवसर मिलेगा लेकिन सड़क केवल जाति विशेष के लोगों के लिये बन जाये, कानून व्यवस्था केवल विशेष लोगों के हित की गारंटी कर सके ऐसा संभव कैसे हो सकता है जबकि आज चर्चा के केन्द्र बिन्दु में यही बातें रहती हैं। इसी कारण मोदी की जाति भी उनका पीछा करने वाली है और ऐसा नहीं है कि मोदी इससे अनभिज्ञ हों। इसी कारण वे अब अपने मंचों पर दलित पिछड़ा चेतना को उभारने में लग गये हैं इससे भाजपा में आने वाले समय में अन्र्तविरोध तेज होने का खतरा मंडराने लगा है। उस पर भी रामविलास पासवान व उदित राज जैसे नेताओं को भाजपा ने अपनी हमजोली बना लिया है। दूसरी ओर भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर उन कर्मकाण्डों का पुनरुत्थान करने को अपना ध्येय बनाये है जिनका लक्ष्य दबे कुचले समाज को अपमान बोध कराना है फिर भले ही वह सवर्ण मात्र के लिये तिलक लगाने का अधिकार हो या जनेऊ पहनने का। भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग काकटेल बनाने का कारण बन गयी है। जो ज्यादा चढ़ेगी और आपसी महाभारत के सूत्रपात की वजह साबित होगी। क्या भाजपा का भला चाहने वाले राजनीतिक विश्लेषक उसकी होने वाली दुर्दशा से देश के सामने और ज्यादा आशंकित समस्याओं को भांप पा रहे हैं।

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