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नेताजी आप भी जनता की निगाह में नहीं चला पाये अच्छी सरकार

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव वैसे तो पितृ मोह के कारण अखिलेश के कैरियर के लिये बड़े फिक्रमंद रहते हैं। उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिये उन्होंने तमाम पापड़ बेले जिसमें शिवपाल से लेकर आजम खान को मनाने तक की कड़ी मशक्कत शामिल है। विधानसभा चुनाव के अभियान के दौरान अखिलेश की वजह से ही उन्होंने मोहन सिंह की मिट्टी पलीत कर दी। डीपी यादव अखिलेश के न चाहने की वजह से पार्टी में शामिल नहीं हो पाये। लेकिन यह विचित्र बात है कि मुलायम सिंह को समय-समय पर न जाने क्या हो जाता है कि वे सार्वजनिक रूप से अखिलेश के कार्य संचालन पर ऐसी टिप्पणी कर बैठते हैं जिससे अखिलेश की योग्यता लोगों के बीच संदिग्ध हो रही है। खुद अखिलेश भी मुलायम सिंह के इस रवैये से विचलित हो उठे हैं। जिसकी झलक उनकी इस अवसादपूर्ण प्रतिक्रिया में मिलती है कि कब नेताजी पिता हो जाते हैं और कब पार्टी अध्यक्ष मुझे पता ही नहीं चलता।
हालंाकि अखिलेश को विरासत में मुख्यमंत्री पद सौंपा जाना तमाम अन्य लोगों को भी रास नहीं आ रहा। अखिलेश के फैसले लेने की सुस्त रफ्तार से लोग उनके प्रति ऊब से चुके हैं। यह बात भी इस समय मुद्दा बनी हुई है कि कोई इसलिये मुख्यमंत्री या मंत्री नहीं बनाया जाना चाहिये कि वह पार्टी के शीर्ष नेता का पुत्र है। लोकतंत्र में वैसे भी खानदानी शासन के लिये कोई जगह नहीं है लेकिन अपवाद के तौर पर अखिलेश की आलोचना में विरोधियों से भी ज्यादा तल्ख हो जाने वाले मुलायम सिंह आम तौर पर यह मानते हैं कि अखिलेश जितनी बेहतर सरकार चला रहे हैं उतना अच्छा कार्य देश के किसी मुख्यमंत्री का नहीं है। इसे प्रमाणित करने के लिये अपनी जनसभाओं में वे अखिलेश के शिक्षा, चिकित्सा, किसानों की भलाई आदि क्षेत्रों में उठाये गये कदमों का जिक्र करना नहीं भूलते। दरअसल मुलायम सिंह तब हत्थे से उखड़ जाते हैं जब उन्हें अपना कार्यकाल याद आता है। एक रिटायर अफसर की तरह उस समय उनको यह लगने लगता है कि जो उन्होंने किया वह नई पीढ़ी बिल्कुल नहीं कर पा रही। अपने मुकाबले उन्हें यह पीढ़ी बहुत निकम्मी लगती है इसी कारण मुलायम सिंह बार-बार दुहाई देते हैं कि किस तरह उन्होंने उलझे हुए मामले में निर्णय लिया और उसे क्रियान्वित कराया। अड़ंगा बने हुए अफसरों को किस तरह काबू में किया लेकिन अगर मुलायम सिंह के कार्यकाल का जायजा लिया जाये तो कुछ दूसरी ही तस्वीर नजर आयेगी। मुलायम सिंह अपना गुणगान बढ़ा चढ़ाकर कर रहे हैं। या वे मुगालते में हैं जबकि जनता की अदालत में उनके हर कार्यकाल को रिजेक्ट किया गया है। 1989 में पहली बार मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने थे। इसके बाद 1991 में जब चुनाव हुए तो जनता ने इतना बुरा फैसला दिया कि लगा जैसे उनका राजनैतिक कैरियर ही मतदाताओं ने खत्म कर दिया हो। दूसरी बार 1993 में वे बसपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बने इस बार भी उन्होंने लोगों के बीच अच्छी छवि बनायी होती तो 1996 में हुए नये चुनाव में उन्हें बहुमत मिल गया होता लेकिन जनता ने संतुष्ट न होने के कारण उनको फिर नकार दिया। 2003 में तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों की वजह से अंधे के हाथ बटेर लगने की तर्ज पर मुलायम सिंह के हाथों में एक बार फिर सत्ता की बागडोर आ गयी। उन्होंने 2007 तक पारी खेली लेकिन इस सरकार का इंप्रेशन भी मतदाताओं में बहुत खराब रहा। इसी कारण 2007 के विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने उन्हें नेपथ्य में धकेल कर मायावती को पूर्ण बहुमत दे दिया। यानि मुलायम सिंह तीन बार मुख्यमंत्री बने और कभी उन्होंने लोगों को प्रभावित करने वाली सरकार नहीं चला पायी। अन्यथा वे भी भाजपा के मुख्यमंत्रियों की तरह रिपीट होने का कीर्तिमान कायम कर सकते थे। खुद मुलायम सिंह अपनी पार्टी की कमजोरी को मानते हैं और कई बार पार्टी कार्यकर्ताओं को राय दे चुके हैं कि वे उन राज्यों के सत्तारूढ़ पार्टी कार्यकर्ताओं से नसीहत लें जहां बीजेपी की सरकारें हैं और जनता उनको बार-बार चुन रही है। दरअसल कार्यकर्ताओं की जिस दबंगई से सपा बदनाम होती है। मुलायम सिंह निर्णायक तौर पर उसे हतोत्साहित करने की बजाय बढ़ाने का काम करते हैं। इसी कारण उनकी सरकारों की नियति अल्पजीवी रही। अखिलेश चूंकि अपने पिता का सम्मान करते हैं जिससे उनका यह इतिहास बताकर उन्हें अपमानित नहीं कर सकते लेकिन हम तो उनके कार्यकालों का लोगों द्वारा किया गया मूल्यांकन उन्हें याद दिला ही सकते हैं।

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