Menu
blogid : 11660 postid : 714596

तीन देवियों के मोर्चे ने फिर उलझाये राजनैतिक समीकरण

मुक्त विचार
मुक्त विचार
  • 478 Posts
  • 412 Comments

तीसरा मोर्चा लाक्षणिक संज्ञा का द्योतक रहा है। कांग्रेस और भाजपा जैसी दक्षिण पंथी राजनैतिक ताकतों को यथास्थिति वाद का पोषक माना जाता है जबकि इस देश में एक राजनैतिक धारा ऐसी भी रही है जो आर्थिक क्षेत्र में एकाधिकार व मुनाफाखोरी जैसी प्रवृत्तियों से अलग हटकर नया रास्ता तैयार करने की ख्वाहिशमंद रहीं तो सामाजिक क्षेत्र में यह धारा वर्ण व्यवस्था को समाप्त कर समानता और भाईचारे पर आधारित नये समाज की रचना का सपना देखती रही है। वीपी सिंह के समय तीसरे मोर्चे का मुहावरा शुरू हुआ और इसी लाक्षणिक अभिव्यक्ति के कारण कभी इसका तात्पर्य यह नहीं समझा गया कि इसमें तीसरा जुड़ा है तो मतलब तीसरा है। तीसरा मोर्चा के असल सूत्रधारों को कभी यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी कि तीसरा नहीं फस्र्ट मोर्चा जैसा कि आज पड़ रही है।
इस समय देश का राजनैतिक परिदृश्य बड़ा गड़बड़ है। स्वयंभू राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा इस स्थिति में नहीं हैं कि अपनी दम पर बहुमत ला सकेें। दूसरी ओर क्षेत्रीय स्तर पर पनपे दलों की ताकत का लगातार विस्तार हो रहा है। यह दल अब राज्यों का शासन चलाने तक अपनी सीमा रेखा तय करके संतुष्ट नहीं हैं। यह चाहते हैं कि केन्द्र की सत्ता में उनकी भागीदारी इतने दबदबे के साथ हो कि अपने राज्य की व्यवस्था मनमाने तरीके से चलाने में उन्हें किसी तरह की रुकावट का सामना न करना पड़े। इस कारण न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने की तीसरे मोर्चा की बुनियादी जरूरत इन्होंने भुला रखी है। गैर भाजपा, गैर कांग्रेस दलों में आपस में भी रंजिश की हद तक की प्रतिद्वंद्विता है। खासतौर से ऐसे दल जिनका मूल क्षेत्र एक ही है। उनमें तो कोई एका संभव है ही नहीं। जैसे उत्तरप्रदेश में सपा बसपा, पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा और तृणमूल कांग्रेस, बिहार में राजद और जनता दल यू तो तमिलनाडु में एआईडीएमके और डीएमके।
इस कारण चुनाव आने पर राष्ट्रीय दलों को कमजोर देखकर एक ओर तो ये दल तीसरे मोर्चे का सपना केन्द्रीय सत्ता में प्रभाव बनाने के लिये देखते हैं। दूसरी ओर अपने अन्तर्विरोधों का कोई समायोजन न ढूंढ पाने से अपने ही सपनों से इनका मोहभंग होने लगता है। अंततोगत्वा यह लगातार अस्थिर मानसिकता का प्रदर्शन कर लोगों के बीच अपनी प्रमाणिकता को खोने लगते हैं। वर्तमान में यही हो रहा है। मुलायम सिंह तीसरा मोर्चा की बिरादरी में सबसे महत्वाकांक्षी हैं। उनके जीवन की साध है कि एक बार वे प्रधानमंत्री बन जायें। इस कारण उनकी दुविधायें सबसे अपरंपार हैं। बहरहाल मुलायम की छटपटाहट 11 दलों के इकट्ठा होकर तीसरा मोर्चा बनाने की कोशिश का सबसे बड़ा प्रेरणा स्रोत बनी लेकिन गतिरोध इसकी नियति थी क्योंकि मुलायम सिंह को उत्तरप्रदेश में न वाम दलों को सीट देना गवारा है न ही जनता दल यू को। इसके बावजूद भ्रूण में ही तीसरे मोर्चे में बिखराव करने का काम मुलायम की इन दलों से टकराव की वजह से नहीं हुआ बल्कि इसकी शुरूआत जयललिता से हुई। वामदलों के कारण मुलायम सिंह ने ममता बनर्जी की तीसरे मोर्चे में उपेक्षा की थी जिससे ममता मौके पर उन्हें और वामदलों दोनों को सबक सिखाने की फिराक में थीं। इधर वाम मोर्चा और जयललिता में कुट्टी हुई उधर ममता ने तत्काल जयललिता पर पासा फेेंका। जयललिता पर ही नहीं मायावती पर भी उन्होंने डोरे डालने की पहल की यह कहकर कि उन्हें जयललिता और मायावती के साथ काम करने में कोई परहेज नहीं है। इसकी तत्काल प्रतिक्रिया जयललिता पर हुई। उन जैसी कठोर नेत्री ने ममता के लिये बड़ा तरल आभार जताया है। मायावती ने भले ही कुछ न कहा हो पर उन्हें भी ममता बनर्जी की पहल बहुत सुहायी होगी। अब यह इन तीन देवियों का नया मोर्चा सामने आ गया है जिसकी कल्पना राजनैतिक प्रेक्षकों ने पहले कभी नहीं की थी। उधर नीतीश ने स्वयं को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताकर मुलायम सिंह की आंखें खोलने का काम किया है जो यह सोच रहे थे कि वीपी सिंह के न रह जाने के बाद अब वाम मोर्चा और नीतीश तो रह ही गये हैं उनकी पालकी उठाने के लिये। वाम मोर्चा ने भी अपने व्यवहार से यह सिद्घ कर दिया है कि वह अतीत के अनुभवों के आधार पर मुलायम सिंह को विश्वसनीय नहीं मानता। इसलिये अगर गैर कांग्रेस, गैर भाजपा की कोई सत्ता केन्द्र में उनकी सहमति और समर्थन से बनने की नौबत आती है तो मुलायम सिंह का नाम प्रधानमंत्री के रूप में वे आसानी से प्रस्तावित नहीं करेंगे। इससे यह सबक मिलता है कि फिलहाल गैर कांग्रेस, गैर भाजपा राजनैतिक दलों में वीपी सिंह की तरह कोई स्वीकार्य नेता नहीं है। इसका असर यह भी है कि अब न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने का पहलू पूरी तरह नजरअंदाज हो रहा है।
बहरहाल स्थितियां दिलचस्प हैं। कांग्रेस की सीटें घट रही हैं। भाजपा और उसके सहयोगी दल कहां तक बढ़ेंगे इसको लेकर कयास हैं। ऐसे में झूलती हुई लोकसभा बनने पर जिसके आसार बहुत ज्यादा हैं सत्ता की बटेर किसके हाथ लगे यह अनुमान करना आसान काम नहीं है लेकिन इतना निश्चित है कि इन सबके बीच अलोकप्रियता के गर्त में गिर चुकी कांग्रेस की गोटियां लाल होने की संभावनायें सबसे ज्यादा बन रही हैं। इसीलिये कांग्रेस का खोया हुआ आत्मविश्वास लौट रहा है और तटस्थ विश्लेषक चर्चा भी करने लगे हैं कि सीटें कम आने के बावजूद एक बार फिर कांग्रेस के सत्ता में आने के आसार बढ़ते जा रहे हैं।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply