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सलमान के बयान पर हाय तौबा क्यों ?

मुक्त विचार
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विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने चुनाव आयोग और उच्चतम न्यायालय की अति सक्रियता पर जो टिप्पणी की हैं वे एक नई बहस को जन्म देने वाली हैं। भले ही मीडिया के लाल बुझक्कड़ों ने अपनी सतही समझ के कारण इसे खुर्शीद और कांग्रेस को घेरने का एकतरफा हथियार तुरन्त बना लिया हो।
भारत के महान समाजवादी चिंतक डा.राममनोहर लोहिया कहते थे कि सड़कों पर आंदोलन और बहसें होने पर ही संसद का चरित्र प्रखर होता है। आज नौकरशाहों के चुनाव आयोग ने आचार संहिता के अतिवाद से चुनाव के समय को मनहूसियत के रंग में रंग दिया है। पहले चुनाव के माध्यम से जनता की राजनीतिक चेतना का विकास होता था क्योंकि चुनावी हुल्लड़ के जरिये राजनीतिक कार्यकर्ता और आम लोग जब दीपक में तेल नहीं सरकार बदलना खेल नहीं जैसे स्वत: स्फूर्त नारे लगाते थे तो जाहिर होता था कि मुद्दों को सटीकता से पकडऩे की उनमें कितनी गजब की क्षमता विकसित हो रही है। आज चुनाव आयोग ने इन हुल्लड़ों पर रोक लगाकर लोकतंत्र की आत्मा की हत्या कर दी है। वैश्विक बाजारी शक्तियां अराजनीतिकरण करके व्यवस्था में ऐसे लोगों का वर्चस्व करना चाहती हैं जिन्हें वे अपने स्वार्थों के लिये आसानी से उल्टी पट्टी पढ़ा सकेें। कमाल यह है कि डा.लोहिया के चेले तक इसके खिलाफ आवाज नहीं उठा रहे। सलमान खुर्शीद ने अगर चुनाव आयोग की शैली की कमियों पर अपनी राय दी है तो इसमें गलत क्या है। कोई संस्था दोष से परे नहीं होती। इसलिये स्वस्थ समाज में हर संस्था की समालोचना का वातावरण होना चाहिये। चुनाव आयोग कोई अपवाद नहीं है और कई बार तो अपने कैरियर में भ्रष्ट करार दिये गये अधिकारी तक इसमें जगह पा चुके हैं। फिर भी इसे पवित्र गाय का दर्जा देने की कोशिश की जा रही है। आयातित विचारों का सम्मोहन भारतीयों के विवेक को बुरी तरह नष्ट कर चुका है जिससे उनमें दूरदर्शिता का कोई गुण नहीं रह गया है। आधुनिक वैश्विक व्यवस्था में मानवीय लक्ष्यों का कोई मूल्य नहीं है। यांत्रिक लक्ष्य ही प्रधान हो गये हैं। उनकी प्रेरणा से इसी कारण इस देश में भी अच्छी परंपराओं और सामाजिक पहल के जरिये बेहतर स्थितियों के निर्माण की कोशिश की बजाय हर चीज के लिये कानून और नियम बनाने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। यह नीति बेहद नाकामयाब साबित हो रही है। क्या दल बदल विरोधी कानून बनने के बाद दल बदल रुका या पूरी बेहयाई से यह चरम सीमा को छू रहा है। इसी तरह राजनीति में अपराधीकरण को रोकने के लिये सुप्रीम कोर्ट के जितने ही ज्यादा फैसले आ रहे हैं। राजनीतिक दल उतने ही ज्यादा आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को टिकट बांट रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं है। अपनी सर्वोच्चता कायम करने के लिये न्याय पालिका ओवरलैपिंग करती हुई कानून बनाने की शक्तियां अपने हाथ में ले रही है जिससे संसद का महत्व तो घट ही रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि संसद का गठन समाज से होता है क्योंकि समाज ही सांसदों का चुनाव करता है। स्थितियों में सुधार के लिये समाज में पहलकदमी के गुणों का विकास होना चाहिये। अवतारवाद में समाज की इस शक्ति को कमजोर किया। नतीजतन आततायी तत्व समाज में हावी होते रहे। आज देवदूत के अवतार में न्याय पालिका है और एक बार फिर पौराणिक काल का एपिसोड दोहराये जाने की नौबत आ रही है जिसमें भगवानों ने दैत्यों का जितना ज्यादा दमन किया उतने ही ज्यादा दुर्दमनीय दैत्य तैयार होते गये। तकनीकी दंड में मृत्युदंड सबसे बड़ा है लेकिन मृत्युदंड से अपराध रोके नहीं रुके जबकि पहले सामाजिक बहिष्कार का दण्ड इतना प्रभावी था कि उसके दबदबे की वजह से लोग तय वर्जना को कभी नहीं लांघते थे। आज चुनाव में जरूरत इस बात की है कि समाज यानि मतदाता जागरूक हों कि नेताओं के निकम्मे वंशजों को हम वोट नहीं देंगे। इसके बाद कोई पार्टी अंधे वंशवाद का प्रसार करने की कोशिश नहीं करेगी। भ्रष्टाचारियों और अपराधियों को टिकट देने से राजनीतिक दलों को बाज आने के लिये मजबूर करने में भी यही तरीका कारगर हो सकता है। अगर समाज की जिम्मेदारी को कोई संस्था अपने हाथ में लेगी तो वह अपना प्रभामंडल तो बढ़ा सकती है लेकिन वांछित नतीजे नहीं दे सकती। इस कारण सलमान खुर्शीद के बयानों के सभी आयामों पर विचार किया जाना चाहिये।

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