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मीडिया की आलोचना कुफ्र तो नहीं

मुक्त विचार
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हिन्दुस्तान में किसी भी पावर सेन्टर के खिलाफ बोलना कुफ्र के बराबर है। इसे अनिवार्य वर्जना के बतौर अघोषित तौर पर पूरे समाज पर थोप दिया गया है। अगर आप सांसद, विधायकों के खिलाफ बोलेंगे तो विशेषाधिकार हनन के दोषी होकर जेल पहुंच जायेंगे। अगर आप न्याय पालिका के खिलाफ बोले तो कंटेंप्ट की कार्रवाई आपको सींखचों के अन्दर पहुंचा देगी। चूंकि मीडिया भी आज एक पावर सेन्टर बन चुका है जिसकी न्यूसेंस वैल्यू और ब्लैकमेलिंग की ताकत सबसे ज्यादा है। इस कारण उसके खिलाफ बोलने वाले का भी यही हश्र हो सकता है। अरविंद केजरीवाल ने मीडिया के खिलाफ जो भड़ास निकाली। अच्छा माहौल होता तो इसके आधार पर आत्मालोचन की आवश्यकता महसूस की गयी होती लेकिन पावर सेन्टर कहीं न कहीं आतंकवादी शक्ति का भी पर्याय है जिसकी वजह से मीडिया को लेकर केजरीवाल पर उठाये गये मुद्दे को आगे बढ़ाने की नौबत ही नहीं आयी। इसके पहले ही डरे हुए केजरीवाल खुद बैकफुट पर पहुंच गये।
इस देश में शक्ति केन्द्र बन चुकी संस्थायें और व्यक्ति इस सत्य को झुठला रहे हैं कि आलोचना की सार्थकता शक्ति केन्द्र पर उंगली उठाने में ही है। लोग प्रधानमंत्री की आलोचना करेंगे रिक्शे वाले की तो नहीं। फिर आलोचना को लेकर पावर सेन्टर इतने छुई मुई या अहंकारी क्यों हैं। बहरहाल केजरीवाल ने भले ही अपने शब्दों की लीपापोती मीडिया के खिलाफ भड़ास निकलने के तुरन्त बाद ही कर दी हो लेकिन सही बात यह है कि मीडिया ने अपने चरित्र को पूरी तरह बाजारू बनाकर अपनी सारी गरिमा खो दी है। समाज के अन्दर उसे लेकर ज्वालामुखी धधक रहा है। उत्तरदायित्व की सारी सीमायें मीडिया द्वारा लांघी जा रही हैं।
मीडिया निष्पक्ष तो कभी नहीं रहा। परम्परागत मीडिया में वर्ण व्यवस्था को बचाने की वर्ग चेतना थी। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने इसी कारण अपने कार्यकर्ताओं को शुरूआत में मनुवादी मीडिया पर भरोसा न करने और अखबार न पढऩे की हिदायत दी थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद सवर्ण छात्रों के आत्मदाह के बारे में इसी वर्ग चेतना की वजह से मीडिया ने कितनी बढ़ा चढ़ा कर खबरें दीं। यह तभी नवभारत टाइम्स में मंडल पर प्रकाशित विशेष रविवारीय में तथ्यपूर्ण ढंग से उजागर कर दिया गया था लेकिन तब मीडिया के पक्षपाती होने की वजह विचारधारा थी। जार्ज ओरेविल ने अखबार वालों को कलम की वैश्या कहा था लेकिन यहां मीडिया कर्मी इस हद तक पतित हाल के वर्षों में ही हुए हैं। जबसे अखबारों और न्यूज चैनलों के संपादकों का वेतन ऊंचा हुआ है तब से वे अंबानी से भी ज्यादा शाही जिंदगी जीने का सपना देखने लगे हैं। यह छुतहा रोग उन्होंने जिले के पत्रकारों तक पहुंचा दिया है। नतीजा यह है कि राष्ट्रीय और प्रदेशीय स्तर की खबरें संपादकों और मालिक के स्तर से ट्विस्ट करके परोसी जाती हैं। इसकी सौदेबाजी बहुत ऊंचे स्तर पर होती है जिसे आम लोग नहीं जान पाते लेकिन अपने शागिर्दों से वे जिलों में जैसी नंगी पीत पत्रकारिता कराने लगे हैं उससे खबरों के पैसे लेकर प्रकाशित और प्रसारित किये जाने का सच पल्लेदार तक जानने लगा है क्योंकि पल्लेदार यूनियन से भी खबर के लिये भ्रष्ट संपादकों की मानस औलादें पैसे मांगने में नहीं चूकतीं।
चूंकि मीडिया में ही इस मामले में प्रतिस्पर्धा बहुत बढ़ गयी है जिससे आपस में ही एक दूसरे को नंगा करने का अभियान उन्होंने छेड़ दिया है। चुनाव के दौरान होने वाले सर्वे में किये जाने वाले गोलमाल का स्टिंग आपरेशन इसका जीता जागता उदाहरण है। इस मामले में विमर्श इतना तेज हो चुका है कि आम आदमी तक जानने लगा है कि मोदी की हवा उतनी है नहीं जितनी उनके पीछे खड़े कारपोरेट मीडिया को मैनेज करके यानि खरीद कर बनाये हुए हैं। अरविंद केजरीवाल को अगर यह लगता है कि मीडिया में उनके विरोधी रुपये खर्च करके उनके खिलाफ अभियान चलवा रहे हैं तो इसमें कोई अनहोनी बात नहीं है। समाज के अगुवाकार भले ही मीडिया की इस गंदगी को स्वीकार करने का साहस न जुटा पायें लेकिन अगर सड़क पर चलते हुए लोगों से पूछ लिया जाये तो भले ही पूछने वाले की केजरीवाल से हमदर्दी न हो तब भी वह मीडिया पर लगाये गये आरोप को सच ठहरायेगा। अपने दबदबे से लोगों को चुप रहने के लिये मजबूर करके मीडिया अपनी बनती जा रही दूषित छवि की हकीकत को छुपा नहीं सकती।
ऐसे दौर में कांशीराम एक बार फिर प्रासंगिक हो गये हैं। उन्होंने जन संचार के लिये अखबारों के माध्यम को निरस्त कर अपने लोगों से सीधे संवाद का रास्ता चुना था। आज बहुत से लोग हकीकत जानने के लिये जन संचार की मीडिया से इतर वैकल्पिक विधियों और प्रक्रियाओं की खोज में जुट पड़े हैं। मीडिया ने कई अघोषित विसेषाधिकार हासिल कर लिये हैं जिनके औचित्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया जाना चाहिये। मीडिया पूरी तरह एक कारोबारी संस्था है। वह सूचनाओं की भूख लोगों में उसी तर्ज पर जगा रही है जिस तरह उपभोक्ता क्रांति लोगों में अन्य वस्तुओं के प्रति कभी न बुझने वाली तृष्णा को धधकाने का काम कर रही है। आखिर इतनी सूचनाओं की जरूरत क्या है। दिन भर टीवी चैनल पर दर्शकों को अटकाये रखने के पीछे उद्देश्य यह है कि उपभोक्ता वस्तुएं बनाने वाली कंपनियों के विज्ञापनों को उन्हें ज्यादा से ज्यादा समय तक दिखाकर ज्यादा से ज्यादा ठगा जा सके। इस क्रम में सूचनाओं की तादाद बढ़ाने के लिये ऐसी सूचनायें परोसी जा रही हैं जो किसी भी रूप में जनता के चेतना के स्तर का उत्थान करने की बजाय उसके लिये कई तरह की विकृतियां पनपाने का काम कर रही है। इस पर पूरी बहस की जरूरत महसूस की जाने लगी है। पहले सब ज्यूडिस मामले की अदालत के बाहर चर्चा पर प्रतिबंध था। अब मीडिया ने इसे फैशन बना दिया है जिससे विवेचना करने वाली एजेंसियों व अदालतों को भटकाव का शिकार होना पड़ रहा है। आसाराम मामले में तो अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिये बहस को इलैक्ट्रानिक मीडिया ने ऐसे एंगल से ताना कि लगने लगा था कि पूरे देश में सांप्रदायिकता की आंच न सुलगने लगे। अन्य संस्थाओं की तरह मीडिया भी समाज के लिये है। समाज के अस्तित्व के ऊपर मीडिया की स्वतंत्रता या उच्छृंखलता को मान्यता नहीं दी जा सकती लेकिन आज ऐसा ही हो रहा है। अगर कोई इंसान अफसरशाही में काम कर रहा है तो वह मीडिया के कारण सहज अभिव्यक्ति से वंचित किया जा रहा है। अफसरशाही का फीडबैक भी समाज के मिजाज को भांपने के लिये महत्वपूर्ण है लेकिन मीडिया के कारण अफसरशाही बनावटी भाषा बोलने लगी है। मतलब साफ है कि अगर किसी मुद्दे पर समाज के अंदर ज्वालामुखी धधके तो मीडिया की करतूत से इसका अहसास ही व्यवस्था को नहीं हो पायेगा और सीधा विस्फोट ही होगा। कुल जमा निष्कर्ष यह है कि हर संस्था समालोचना के दायरे में होनी चाहिये ताकतवर संस्थाओं को इससे परे करना खतरनाक ट्रेंड है। दूसरा कुछ पेशे ऐसे हैं जिन्हें बाजारीकरण की इंतहा में भी सुविधा भोगिता की इजाजत नहीं दी जा सकती मीडिया उनमें से एक है। आलीशान जिंदगी जीने के लिये कुछ भी करने का सपना देखने वाली काली भेड़ों के लिये मीडिया में कोई जगह नहीं है और जो काली भेड़ें आ गयी हैं उन्हें जल्दी ही इस क्षेत्र से लोग जरूर ही खदेड़ देंगे।

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