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भाजपा में इस समय जो सोशल इंजीनियरिंग चल रही है उससे ब्राह्म्णों के बीच धीरे-धीरे यह प्रचार होने लगा है कि इसके पीछे राजनाथ नरेन्द्र मोदी की जोड़ी द्वारा ब्राह्म्णों को हाशिये पर धकेलने की साजिश है। अगर मतदान का दिन आते-आते यह प्रचार ज्यादा जोर पकड़ गया जिसका कि अनुमान ब्राह्म्णों की जातीय स्वाभिमान के मामले में अति संवेदनशीलता से लगाया जा रहा है, तो भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं। यह दूसरी बात है कि भाजपा के शीर्ष नेता अभी इस पर गौर नहीं कर रहे हैं।
भाजपा में जनरेशन चेंज के बाद मनमोहन सरकार के खिलाफ एन्टी इन्कमबेंसी फैक्टर के चलते इस समय नया उभार आया है और इसी के साथ-साथ नेताओं और समूहों के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गयी है। नरेन्द्र मोदी ने रातोंरात कार्पोरेट जगत के सहयोग से अपने को पार्टी के सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित कर लिया है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनसे सीनियर कई दिग्गज हैं जो उन्हें पचा नहीं पा रहे। नरेन्द्र मोदी को अपना रास्ता साफ करने के लिये इन दिग्गजों को ठिकाने लगाने की रणनीति अपनानी पड़ रही है। दूसरी ओर पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह हैं जो बहुत कोशिश करने के बावजूद आज तक मास लीडर नहीं बन पाये और यह कमी उनकी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने की दिशा में एक गंभीर बाधा है। इस कारण राजनाथ सिंह की तिकड़में अलग हैं। यहां तक कि एक मुकाम पर पार्टी में चुनाव बाद निर्णायक स्थिति आने पर वे नरेन्द्र मोदी को भी बाईपास करने की रणनीति का ताना बाना बुनते नजर आ रहे हैं।
इस आपाधापी में भाजपा का अन्दरूनी माहौल बेहद रोमांचक हो गया है। अटल बिहारी बाजपेयी के बाद ब्राह्म्ण होने के कारण वर्ण व्यवस्था वादी भाजपा में प्रधानमंत्री के सबसे सशक्त उम्मीदवार माने जा रहे डा.मुरली मनोहर जोशी का आभा मंडल लोक लेखा समिति के अध्यक्ष की हैसियत से कोलगेट मामले में सरकार को मुश्किल में डालने के कारण और ज्यादा बढ़ गया था लेकिन आज वे दयनीय हालत में हैं। यहां तक कि उनकी सीट भी उनसे इच्छा न होते हुए भी छीन ली गयी। मुरली मनोहर जोशी का यह पराभव अचानक नहीं है। निश्चित रूप से इसमें साजिश है। अन्य ब्राह्म्ïाण नेता भी भाजपा में कमतर कर दिये गये हैं। एक तरह से नेतृत्व की पंक्ति में ब्राह्म्णों का सफाया जैसा हो गया है। राजनाथ मोदी की जोड़ी अपने इरादों में ब्राह्म्ïाणों को सबसे बड़ी बाधा मानती है। शायद उन्हें निर्णायक भूमिका से परे किया जाना इसी का नतीजा है।
चुनाव बाद अगर भाजपा बहुमत में आती है तो नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता को लेकर कई समस्यायें पैदा हो सकती हैं। राजनाथ सिंह जैसे नेता इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकते। इसी कारण वे आखिरी बाजी में घोषित प्रधानमंत्री की बाजी पलटकर स्वयं आगे आने की हर गोटी फिट कर रहे हैं। राजनाथ सिंह ने टिकट के मामलों में कई स्थानों पर पार्टी के पुराने लोगों को परे कर आयातित उम्मीदवारों को वरीयता दी है। जाहिर है कि ऐसा इसलिये किया गया कि उनकी वफादारी सिर्फ राजनाथ सिंह के प्रति है। काम के मौके पर उनके द्वारा इसका प्रदर्शन राजनाथ सिंह के लिये जरूरी है। आयातित उम्मीदवारों में जगदम्बिका पाल, कीर्तिवर्धन सिंह, उदित राज तो हैं ही। रामविलास पासवान जैसे सहयोगियों को भी उन्होंने निजी लगाव के आधार पर ही जोड़ा है लेकिन भाजपा सत्ता में पहुंच नहीं सकती, अगर ब्राह्म्णों में उसके लिये बेरुखी पैदा हो गयी। दूसरी बात यह है कि राजनाथ सिंह व मोदी में आपस में जो खेल हो रहा है उससे ऐसा नहीं है कि मोदी को आखिर-आखिर तक इसका एहसास न हो जाये। भाजपा में यह स्थितियां संगीन समस्या का सूचक हैं। जिनके चलते चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा इस पर असमंजस कायम हो चुका है।
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