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केजरीवाल की हश्र कथा

मुक्त विचार
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आप पार्टी राजनीति की धूमकेतु साबित हो रही है। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अप्रत्याशित सीटें हासिल कर उसने राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक जगत में धमाका सा कर दिया था। दिल्ली के चुनाव का असर लोकसभा चुनाव में पूरे देश में दिखने की भविष्यवाणी की जाने लगी थी। अरविन्द केजरीवाल ने इसी आधार पर जो सब्जबाग देखे उन्हीं के चलते हड़बड़ी में उन्होंने दिल्ली की अपनी सरकार गिरवा ली लेकिन भविष्य के लिये की गयी यह कुर्बानी अब घाटे का सौदा साबित होती नजर आ रही है। आप का ग्राफ रोज गिर रहा है। आप से लोगों का तेजी से मोहभंग हो रहा है। अब तो लोग यह कहने लगे हैं कि उत्तरप्रदेश में आप के उम्मीदवार अपनी जमानत भी बचा ले जायें तो बड़ी बात होगी। केजरीवाल जिस तरह दिल्ली में वहां की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से भिड़ गये थे और कामयाब होकर उन्होंने नया कीर्तिमान रच दिया था। वैसा ही कर गुजरने की तमन्ना में वे वाराणसी में मोदी के सामने चुनाव मैदान में कूदने का इरादा जता रहे हैं। एक पखवारे पहले मोदी का सामना करने के उनके द्वारा व्यक्त किये जा रहे निश्चय को लेकर लोगों की एक बड़ी जमात थी जो सोचती थी कि उनके इस कदम से सनसनीखेज परिणाम भी आ सकते हैं लेकिन आज खुद केजरीवाल के इस पराक्रम को गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा और मोदी के सामने उन तक की जमानत बचने को लेकर अंदेशा जताया जा रहा है।
केजरीवाल के इस हश्र की वजह क्या है? केजरीवाल सही कह रहे हैं कि मीडिया उनके पीछे पड़ गया। जवाब में केजरीवाल ने भी मीडिया को बेनकाब किया जो लोगों को खूब सुहाया लेकिन आखिर में गोयविल्स की आधुनिक संतानों का आत्म विश्वास सफल हुआ। बेचारे केजरीवाल! दूसरे भाजपा केजरीवाल को अपने अस्तित्व के लिये सबसे बड़ा खतरा मान रही थी जिसकी वजह से भाजपा नेताओं ने केजरीवाल को कांग्रेस का एजेन्ट साबित करने का अभियान छेड़ दिया और उनका प्रचार भी काफी हद तक असर करने वाला रहा लेकिन इन कारकों से बड़ी बात यह है कि दिल्ली जो एक कास्मो पोलिटिन महानगर है। उसकी चेतना और देश के आम संसदीय क्षेत्रों की चेतना में काफी बड़ा फर्क है। महानगर में मध्य वर्ग राजनीति की दिशा तय करता है। पहले तो राष्ट्रव्यापी स्तर पर भी मध्य वर्ग ही प्रभावी था लेकिन आज ऐसा नहीं है। भारत के लोकतंत्र का सबसे बड़ा कमाल यह है कि इसने दबे कुचले लोगों को जिनमें आर्थिक आधार पर तलहटी में खड़े लोग भी शामिल हैं और सामाजिक आधार पर उत्पीडि़त तबके भी वोट की ताकत का अहसास कराया है। चूंकि बहुत ज्यादा संख्या इसी तबके की है इसीलिये संसदीय चुनाव का एजेण्डा इसी तबके द्वारा लिखा जाता है।
इस तबके को सूचना का अधिकार, नोटा की सुविधा, चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का रीकाल अधिकार, जन लोकपाल, दागियों का मुद्दा बहुत संवेदित नहीं करता। इसी कारण दिल्ली से अलग मानसिकता आम कस्बों, देहातों के लोगों में रहती है जो जानते हैं कि सफेदपोश की नैतिकता में कितना उलझाव है। कौरवों को दागी साबित करने के लिये बहुत ज्यादा सुबूत उनके पास नहीं होते फिर भी कौरव वध के योग्य मुजरिम करार हो जाते हैं। दूसरी ओर जुआ खेलने वाला और इस हद तक जुआरी कि अपनी पत्नी को भी दाव पर लगा दे वह सफेदपोशों की दुनिया में धर्म का मानक यानि धर्मराज हो जाता है। राजनीति के अपराधीकरण को लेकर भी इसी तरह की गुत्थियां और जटिलतायें हैं। आज भी सामाजिक रूप से तिरस्कृत रहे तबकों को अधिकार कानूनी प्रक्रिया से नहीं मिल सकते जिन्हें कुलीन समाज दागी कहता है उनमें से बहुत से ऐसे हैं जिनके अस्तित्व से तिरस्कृत तबके के लोगों की बात भी सुनने के लिये व्यवस्था को मजबूर होना पड़ा। फूलनदेवी को देखने का सफेदपोश वर्ग का चश्मा कुछ और है और निषाद जैसे उपेक्षित समाज का कुछ और। आज अपराधियों को प्रश्रय देने वाले जो नेता मुख्यमंत्री और केन्द्रीय मंत्री बने हैं उनकी जातिगत पृष्ठभूमि पर जरा गौर करें। उनका दबदबा बढऩे के बाद ही तो काछी, गड़रिया, निषाद जैसी तमाम गुमनामी में जी रही जातियों के लोगों का चुनाव में जीतना संभव हो रहा है और अब तो उन्हें वर्ण व्यवस्था वादी पार्टियां भी टिकट देने को मजबूर हैं। अभी भी इस बात की गारन्टी नहीं है कि अगर दबंग नेतृत्व की छत्रछाया इन पर न हो और यह जातियां स्वच्छ राजनीति की मृग मरीचिका में उलझकर भटक जायें तो जो स्वयंभू अवतार सत्तासीन होंगे वे उन्हें उनकी पूर्व की खाइयों में फिर से उनको दफन करने का इंतजाम नहीं कर देंगे। केजरीवाल ने अपनी राजनीति में इस सामाजिक सच्चाई को कोई स्थान नहीं दिया। इसी कारण दलित और पिछड़ों ने किसी मोड़ पर उनके साथ अपने लिये लगाव नहीं पाया। फिर भी केजरीवाल सतर्क नहीं हुए। केजरीवाल अंबानी पर हमले कर रहे हैं। नयी आर्थिक नीति में मुनाफे के दैत्य के प्रतीक के रूप में यह हमला बहुत सही है लेकिन अंबानी तो एक प्रतीक है। केजरीवाल उपभोगवाद पर आधारित समूची नयी अर्थ व्यवस्था को बदलकर आवश्यक सेवाओं को पुन: सार्वजनिक क्षेत्र में करने की बात क्यों नहीं करते। उन्हें उद्योगों की सीलिंग जैसे पुराने समाजवादी नारे क्यों नहीं सूझते। उनके दिमाग में यह बात क्यों नहीं आती कि 10 हजार वर्ष पुरानी सभ्यता का यह देश स्वाभाविक रूप से आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर रहकर ही अतीत में वैश्विक प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। उसे इस रास्ते पर फिर लौटाकर दुनिया को वास्तविक सभ्यता का संदेश देने के लिये समर्थ बनाने का ख्याल केजरीवाल के दिमाग में क्योंं घर नहीं करता। असीम उपभोगवाद के रहते भ्रष्टाचार के खत्म होने और नैतिक व मानवीय व्यवस्था के कायम होने की कल्पना फरेब है। कम शिक्षित कही जाने वाली भारत की असली जनता का सहज विवेक आधुनिक अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों से ज्यादा पैना है वे असली खतरों को सूंघने की कुदरतन शक्ति रखते हैं। इसी कारण केजरीवाल उनके पैमाने पर न कभी जंच पाये थे न जंच पाये हैं। कुंए का मेंढ़क जब समुद्र में तैरने के लिये कूदा तो उसका डूब जाना तय था और यही हो रहा है।

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