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पाखंड की मनोवृत्ति का एक और नमूना

मुक्त विचार
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समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने बलात्कार से संबंधित मामलों को लेकर मुरादाबाद की एक चुनावी जनसभा में जो भाषण दिया है उससे उनके खिलाफ जबर्दस्त हायतौबा मची हुई है। लेकिन बलात्कार सहित स्त्री विमर्श के कई पहलू ऐसे हैं जिनमें आज नये सिरे से बहस की जरूरत आ पड़ी है। यहां तक कि मुलायम सिंह का विरोध करने वाली जमात से जुड़े लोग भी व्यक्तिगत बातचीत में कुछ उनसे मिलती जुलती राय जाहिर करते रहते हैं लेकिन पाखंड भारतीय समाज की चिरंतन विशेषता बन चुका है जिसकी वजह से यहां लोगों के मन में होता कुछ है और वे कहते कुछ हैं।
स्त्री विमर्श की दिशा आज बाजार के स्वार्थों की पूर्ति की दिशा में अग्रसर है। इसमें स्त्री की भलाई, उसकी गरिमा की रक्षा और उसके आदर को बढ़ाने की भावना कम है। बल्कि बाजार के स्वार्थ के लिये स्त्री के इस्तेमाल में परंपरागत व्यवस्था के कारण जो बाधायें आ रही हैं उनका जड़ से सफाया कर देना इसका मूल अभीष्ट है।
स्त्री के संदर्भ में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि समाज ज्यों-ज्यों पुरुष प्रधान होता गया त्यों-त्यों स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व के लिये घातक स्थितियां बनती गयीं और उसकी पूरी पहचान उसकी देह में समेटकर रख दी गयी। उसके शोषण की स्थितियों को मजबूत करने में इस मानसिकता का बहुत बड़ा योगदान है वरना सभ्यता के ककहरा में स्त्री की गरिमा का सम्मान पहले पाठ के रूप में सम्मिलित था। अगर ऐसा न होता तो शास्त्रार्थ में भाग लेने वाली गार्गी और मैत्रेयी जैसी स्त्रियां वैदिक काल में नहीं होतीं। त्रेता में भगवान राम के पिता सम्राट दशरथ के साथ उनकी अर्धांगनी कैकेयी द्वारा युद्घ में भाग लेने का जिक्र नहीं होता। विवाह की स्वयंवर प्रथा नहीं होती जिसमें वर चुनने का अधिकार स्त्री पर छोड़ा गया था। पुरुष को यह आजादी नहीं थी कि वह किसी स्त्री को जीवन संगिनी बनाने के लिये जबर्दस्ती कर सके। महाभारत काल में महाराज के साथ साम्राज्य संचालन में बराबर का हाथ बंटाने वाली गांधारी और द्रोपदी जैसी स्त्रियां थीं। सामाजिक क्रांति के आंदोलन में राधा और उनकी सखियों का गोकुल में कंस की मनमानी के विरुद्घ बगावत में योगदान यह रेखांकित करता है कि प्राचीन भारतीय समाज में स्त्रियां चौखट चूल्हे तक सीमित नहींथी।
लेकिन जब उनकी पूरी पहचान को उनकी देह में केन्द्रित कर दिया गया तो उनकी अन्य सारी मानवीय क्षमताओं व गुणों के विकास को अवरुद्घ किया जाने लगा। उनके जीवन की सार्थकता पुरुष को रिझाने के लिये अपने श्रंगार पर ध्यान देने तक सीमित रह गयी। इसी के बाद स्त्रियों के लिये बर्बर युग की शुरूआत हुई। कन्याओं का अपहरण करके उनसे बलात् विवाह जैसी परंपराओं ने जन्म लिया। युद्घ में पराजित कौम की स्त्रियों पर विजेताओं का अत्याचार अपरिहार्य हो गया और बाहर की दुनिया में भूमिका निभाने के उनके अवसर शनै: शनै: खत्म होते गये।
स्त्री स्वातंत्र्य का आधुनिक आंदोलन उसकी इस पीड़ा के निवारण की आड़ में शुरू हुआ। आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर उसे रोजगार देकर बाहर दुनिया में लाया गया। स्त्री भी एक कुशल प्रशासक, बहादुर सैनिक, विलक्षण वैज्ञानिक हो सकती है शुरूआत के दौर में यह स्थापित किया गया। लेकिन बाजार ने अपनी योजनाओं के परवान चढ़ते ही स्त्री को फिर उसी गर्त में ले जाकर पटक दिया जहां वह पहले धंसी रही थी। भारत की बालायें अचानक विश्व सुंदरी और ब्रह्म्ïाांड सुंदरी बनने लगीं तो इसका कारण यह नहीं है कि पहले भारतीय बालायें बदसूरत और गंवार रहीं हों लेकिन स्त्री को कामोद्दीपन का जरिया बनाकर उसके सम्मोहन में प्रोडक्ट बेचने की हरकत परंपरागत नैतिक व्यवस्था में गवारा नहीं हो सकती थी। विश्व और ब्रह्म्ïाांड सुंदरियों की प्रतियोगिताओं के बहाने भारतीय स्त्री को इस लक्ष्मण रेखा के बाहर ले जाने का साजिशी उपक्रम किया गया। आज काल सेंटर से लेकर टेली न्यूज चैनलों तक स्त्री की प्रतिभा का उपयोग करने के बजाय उनके ग्लैमर को महत्व दिया जा रहा है। नीरा राडिया जैसी कितनी ही स्त्रियां आज सक्रिय हैं जो व्यापारिक घरानों द्वारा नये कारोबारी दुर्ग फतह करने के लिये इस्तेमाल की जा रही हैं। यौन संयम और यौन नैतिकता पर बाजार ने इतना जबर्दस्त प्रहार किया है कि बलात्कार जैसी घटनायें बढऩा इसका अवश्यंभावी परिणाम बन गया है। बाजारवादी शक्तियां चाहती हैं कि उसके द्वारा प्रायोजित स्त्री विमर्श पर कोई दूसरी बहस न चल पाये वरना उसका छद्म उजागर हो जायेगा। मीडिया का ट्रेंड तो आजकल फार्मूलावादी फिल्मों की तरह हो गया है। स्त्री विमर्श में कोई नेता किसी अछूते पहलू की ओर ध्यानाकर्षित कराये तो तत्काल मीडिया में उसके खिलाफ बम फटने लगते हैं क्योंकि इससे टीआरपी बढ़ती है। यह दूसरी बात है कि वास्तविकता से मुठभेड़ का साहस न दिखाकर कोई समाज आगे नहीं बढ़ सकता।
फारुख अब्दुल्ला और मुलायम सिंह तक को मीडिया के कारण इस मामले में आखिर अपनी जुबान तो बंद करनी पड़ सकती है लेकिन कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ हो रहा है जो बहुत लोगों के जुबान पर आने लगा है। स्त्री मामले में लीक से हटकर बढ़ रही कानाफूसी जाहिर करती है कि कहीं आग लगी है तभी तो धुंआ उठ रहा है। दबाव में बाद में कर्णधारों के मुकर जाने से इस हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। यह आग ज्वालामुखी का रूप ले सकती है। इस कारण बेहतर हो कि समाज पश्चिम और बाजार द्वारा थोपी गयी धारणाओं का बंधक बन जाने की नियति स्वीकार करने की बजाय वैचारिक गतिशीलता के लिये माहौल बनाये। मुलायम सिंह की इस बात में दम है कि बलात्कार के झूठे आरोपों का ट्रेंड भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। दिल्ली की निर्भया का मामला अलग था वह जघन्य अपराध के दुर्लभतम उदाहरण की कोटि में आता था जिससे फांसी की सजा इसमें जायज थी। लेकिन बलात्कार के हर मामले में फांसी नहीं दी जानी चाहिये यह बात अकेले मुलायम सिंह नहीं कह रहे। इसके पहले बड़े-बड़े धर्माचार्य भी इस तरह की बात कर चुके हैं लेकिन तब किसी ने इसमें हल्ला नहीं मचाया।
चुनाव आयोग के बारे में भी यह कहना है कि मुद्दों के बारे में अपनी अपनी राय जाहिर करना नेताओं का अधिकार है। मुलायम सिंह ने बलात्कार के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान खत्म करने का जो ऐलान किया है वह किसी भी तरह से चुनावी आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। अगर उन्होंने गलत बात कही है तो उनके खिलाफ चुनाव में जनादेश आ जायेगा पर चुनाव आयोग का इसमें हस्तक्षेप लोकतंत्र को नियंत्रित करने जैसा प्रयास है जो बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।

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