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वाराणसी में एक टेलीविजन चैनल के कार्यक्रम में आप नेता सोमनाथ भारती की मोदी समर्थकों ने पिटाई कर दी। इसके पहले अरविन्द केजरीवाल पर स्याही और अंडे फेेंके जाने व उन्हें थप्पड़ मारे जाने की कई घटनायें हो चुकी हैं। चुनाव आयोग ने जितनी संवेदनशीलता दूसरी पार्टी के नेताओं के बयानों पर दिखायी है। उतनी संवेदनशीलता वह आप के नेताओं के साथ हो रही घटनाओं पर नहीं दिखा पा रहा। यह भी आप को लेकर विमर्श का एक पहलू है।
शुरू में जब जनलोकपाल की नियुक्ति को लेकर अरविन्द केजरीवाल द्वारा अन्ना हजारे को आगे कर दिल्ली में धरना दिया गया था तो वे लोगों की आंखों के सितारे थे। यहीं से कांग्रेस की छवि खराब होने की शुरूआत हुई। इसके बाद जब अरविन्द केजरीवाल ने अन्ना हजारे से मतभेद के बावजूद अलग पार्टी बनाने का फैसला किया तो उनके प्रशंसकों का एक वर्ग हजारे की तरह ही इसे उचित नहीं मान रहा था लेकिन केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी का गठन कर ही लिया। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्हें अप्रत्याशित समर्थन मिला। आप के उम्मीदवार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हरा दिया। जब अरविन्द केजरीवाल ने सरकार बनाई तो लोग यह मान बैठे थे कि वर्तमान भ्रष्ट राजनीति में यह सरकार एक ऐसे स्वच्छ माडल को कायम करने का काम करेगी जिससे नये युग का समारंभ होगा।
यह दूसरी बात है कि आम लोग भले ही अरविन्द केजरीवाल की सरकार से उम्मीद जगा रहे हों लेकिन भारतीय जनता पार्टी के नेता उसी समय जनमत की परवाह न करते हुए केजरीवाल के खिलाफ निंदा अभियान चलाने में जुट पड़े थे जो भाजपा अखिलेश सरकार तक के खिलाफ एक साल का मौका न गुजरने तक संयम दिखाने में कोताही न कर सकी थी उसने अरविन्द केजरीवाल के मामले में शुरूआत में हर सरकार को कुछ महीने का मौका देने की परंपरा का पालन क्यों नहीं किया यह आश्चर्य का विषय था।
बहरहाल दिल्ली सरकार में रहते हुए ही अरविन्द केजरीवाल के विरुद्घ भाजपा से प्रेरित होकर एक वर्ग ने उनके खिलाफ घृणा फैलाने का अभियान शुरू कर दिया था। दरअसल अन्ना हजारे के आंदोलन का इस्तेमाल संघ परिवार जेपी के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन की तरह करने का मंसूबा संजोये था। कलकत्ता रैली के समय अन्ना हजारे जिस तरह ममता बनर्जी की फजीहत कराकर ऐन मौके पर पलायन कर गये थे उससे इस बात की कलई खुल गयी थी कि अन्ना कहीं न कहीं भाजपा और संघ परिवार से लगाव रखते हैं। शायद उनकी शुरूआत में ही यह मंशा थी कि जनलोकपाल आंदोलन का इस्तेमाल कांग्रेस के विरोध में वातावरण बनाने के लिये किया जाये जिससे स्वयमेव भाजपा को फायदा होगा। इसी कारण वे राजनीतिक पार्टी नहीं बनाना चाहते थे क्योंकि इससे कांग्रेस विरोधी लहर बंटती और भाजपा को अधूरा फायदा मिलता लेकिन केजरीवाल ने उनके प्रति आस्था का प्रदर्शन करते हुए भी उनकी यह साध पूरी नहीं होने दी। नतीजतन केजरीवाल भाजपा के निशाने पर उसी समय से आ गये थे।
मीडिया का एक वर्ग भी है जो शुरू से ही भाजपा के एजेन्ट के रूप में काम कर रहा था। नतीजतन उसका भी केजरीवाल से खिन्न होना लाजिमी था। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनवाकर मुसलमानों को सबक सिखाने की हसरत में मतवाले विकृत जनमत के लिये भी इस कारण केजरीवाल आंखों की किरकिरी थे।
इन सारे कारकों का मिलाजुला परिणाम केजरीवाल के खिलाफ उग्र माहौल बनने के रूप में सामने आना ही था। हो सकता है कि केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता छोड़कर नादानी की हो लेकिन उन्होंने भ्रष्टाचार या सत्ता का दुरुपयोग तो नहीं किया। आश्चर्य की बात यह है कि सुरेश कलमाड़ी जैसे भ्रष्टाचार में पकड़े गये नेताओं के विरुद्घ भी वैसी हिंसक प्रतिक्रियायें नहीं हुईं जैसी केजरीवाल व उनके अन्य नेताओं के साथ हुईं।
किसी के विरुद्घ प्रोपोगेंंडा के आधार पर किस हद तक घृणा फैलायी जा सकती है केजरीवाल के साथ हुआ सुलूक इसका नमूना है और यह किसी भी लोकतंत्र के लिये खतरे की बहुत बड़ी घंटी है।
लोकतंत्र सहिष्णु व्यवस्था है। कबीलाई शासन में भी असहमत लोगों के साथ इतना उग्र सुलूक नहीं होता जितना केजरीवाल के साथ हो रहा है। इस पर गौर करने की जरूरत है। मोदी कोई भगवान नहीं हैं। लोकतंत्र में हर नेता की समालोचना का माहौल होना चाहिये। वरना अच्छे से अच्छा नेता बिगड़ सकता है लेकिन मोदी समर्थक तो उन्हें भगवान की तरह पेश कर रहे हैं जिसके बारे में एक शब्द कहना भी कुफ्र है। आजम खां के पीछे हाथ धोकर पड़े चुनाव आयोग को भी इसमें कोई बहुत ज्यादा अनर्थ नजर नहीं आ रहा है जो उसकी मानसिकता को उजागर करता है। मोदी भले ही अपना मतलब हल करने के लिये इस समय मुसलमानों के मामले में रणनीतिक तौर पर संतुलित हो गये हों लेकिन उनके तमाम सहयोगी तो यह साबित करने में कसर छोड़ ही नहीं रहे कि अगर मोदी प्रधानमंत्री हुए तो मुसलमान इस देश में दोयम दर्जे के नागरिक बना दिये जायेंगे। ऐसे में जब किसी कौम के लिये अस्तित्व का संकट हो तो चुनाव आयोग का यह उपदेश मान्य नहीं हो सकता कि उसकी आचार संहिता की वजह से चुनाव का एजेण्डा केवल बिजली, पानी, सड़क व विकास तक सीमित रखा जाये। मुसलमान और उनके शुभचिंतक जरूरी समझते हैं कि पहले वे अपने अस्तित्व रक्षा की बात करें। जब अस्तित्व ही नहीं बचेगा तो सड़क, बिजली, पानी का फायदा किसे मिलेगा। इसलिये अगर चुनाव आयोग की आचार संहिता भाड़ में फेेंकने की जरूरत हो तो यह भी करना ही पड़ेगा।
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