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बहनजी और नेताजी के अध्याय को विराम

मुक्त विचार
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मान्यवर कांशीराम का नारा था जिसकी जितनी संख्या भारी उसको उतनी भागीदारी। मायावती कांशीरामजी को अपना गुरु मानती हैं लेकिन उन्होंने लोकसभा चुनाव में 15 से 20 प्रतिशत आबादी वाले सवर्णों को 29 और 56 प्रतिशत से अधिक आबादी वाले पिछड़ों को मात्र 15 टिकट दिये थे। जाहिर है कि बहनजी को न कांशीराम की विचारधारा से ताल्लुक है न ही युगपुरुष बाबा साहेब डा.भीमराव अम्बेडकर की। बाबा साहब का संघर्ष इस बात के लिये था कि जातिगत पहचान को मिटाकर समाज को एक बड़े सर्वनाम में पिरोया जाये लेकिन मायावती ने इसकी बजाय जातिगत भाईचारा समितियां बनाकर समाज में जातिगत विभाजन को और गहरा कर दिया। जहां तक उनके द्वारा किये गये 19 मुसलमानों में से किसी एक के भी न जीत पाने का सवाल है तो उसकी अपनी वजह यह है कि मुसलमानों का वोट तो हाथी को मिला लेकिन हिन्दुत्व के बहाव में दलित भी बह गये और अन्य किसी कौम का वोट मौजूदा माहौल में मुसलमानों को मिलने का सवाल ही नहीं था।
दरअसल वंचित तबके ने मायावती के नेतृत्व पर अंधविश्वास की हद तक यकीन करके उन्हें स्वेच्छाचारिता की पराकाष्ठा करने के लिये स्वतंत्र कर दिया। इसमें दोष दलित व अन्य शूद्रों का नहीं है। भारतीय समाज व्यवस्था की संरचना ही कुछ ऐसी है कि यहां विभिन्न जातियां अपने को सर्वोपरि करने की रस्साकसी में जुटी रहती हैं। सवर्ण बिरादरियों के आधिपत्य के पीछे उनमें महाराज, राजा, रानी जैसे शक्ति के शिखर कलश रहे दलितों ने सोचा कि अगर उनकी बिरादरी में भी शक्ति के शिखर कलश बन जायें तो उनके अस्तित्व को भी समाज में मजबूत मान्यता मिल सकेगी। दलितों का सोच गलत नहीं था और मायावती के व्यक्तित्व के प्रभावशाली होने से अन्य लोगों को उनकी भी मान मर्यादा का एहसास करने को मजबूर होना पड़ा लेकिन विडम्बना यह है कि मायावती का कोई सिद्घान्त नहीं है जिससे उनकी सफलता की सीमायें संकुचित होना लाजिमी था। बाबा साहेब, नारायण गुरु, ज्योतिबा फुले, पेरियार रामास्वामी नायकर और कांशीराम का संघर्ष शूद्रों को अपवित्र मानने की धारणा से था। जिसके आधार पर सत्ता, संस्कार, शिक्षा और संपत्ति से उन्हें वंचित रखने की व्यवस्था का औचित्य सिद्घ किया जाता था। इस उद्देश्य की सफलता के लिये उक्त व्यवस्था से पीडि़त समुदायों में एकता का लक्ष्य सर्वोपरि होना चाहिये। इसके बाद जिन सवर्णों का हृदय परिवर्तन हो गया हो उन्हें जोडऩे की पहल बसपा को करनी चाहिये लेकिन मायावती ने तो शूद्र एकता को छिन्न भिन्न करने में दिमाग लगाया जिससे सवर्णों का स्वार्थ साधन हुआ। हाल में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों के टिकट वितरण में उनकी पिछड़ों के प्रति उपेक्षापूर्ण नीति पूर्णतया उजागर हुई। दूसरी ओर उन्होंने जाति श्रेष्ठता के सिद्घान्त को फिर से मजबूती प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिन स्वयंभू श्रेष्ठियों के लिये उन्होंने पलक पांवड़े बिछाये। उनका आचरण क्या था इस पर गौर फरमाने की जरूरत है। ऐसे सवर्णों के हृदय परिवर्तन की परीक्षा लेने की कोई जरूरत नहीं समझी गयी। बस उनका चढ़ावा देखा गया। इसी कारण हाथी पर सवारी करके मंत्री, सांसद और विधायक बनने वाले सवर्णों के रिश्तेदार व पैरोकार उन क्षेत्रों में जहां बसपा का उम्मीदवार उनकी जाति का नहीं होता था भाजपा, कांग्रेस या कभी-कभी सपा का भी प्रचार करते रहे। बसपा ने संघ मूल के सवर्णों को राजनैतिक शक्ति दिलाने में सबसे महती भूमिका अदा की। जिनके मन में जातिवादी कट्टरता का जहर पोर-पोर में बसा हुआ था। इस नीति से बहुजन आंदोलन चकनाचूर हो गया।
कोई दल व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति के नग्न खेल को सिद्घान्त बनाकर बहुत दिनों तक सर्वाइव नहीं कर सकता। मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का मतलब किसी तरह का सामाजिक बदलाव नहीं था। उनकी सारी सोशल इंजीनियरिंग इस बात पर आधारित है कि कैसे सत्ता उनके हाथ में आये और वे लूट मचाकर अपना निजी वैभव बढ़ा सकेें। टिकटों की बिक्री से लेकर सरकारी पदों की बिक्री तक के काम तो बेहया तरीकों से अंजाम देते हुए उन्होंने कभी नहीं सोचा कि सत्ता राजदण्ड से नहीं नैतिक इकबाल से चलती है। मायावती का कोई नैतिक इकबाल नहीं है जिससे उनका तिलिस्म देर सबेर टूटना तय है। मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में उदय के बाद उनके लिये खतरा ज्यादा बढ़ गया है क्योंकि मोदी भी बाबा साहेब की बात करते हैं, वे भी शूद्रों को नीच जात बताने की मानसिकता को ललकारते हैं। इसीलिये वंचित तबके उनकी ओर आकर्षित हुए लेकिन मोदी की दौड़ इससे भी बहुत आगे की है। वे सांप्रदायिक भले ही हों लेकिन बेईमान नहीं हैं। वृहत उद्देश्यों के लिये उनके मन में समर्पण की भावना है। वे अपने परिवार के लोगों को सत्ता का लाभ नहीं देते और उनकी छवि अपेक्षाकृत त्यागी राजनीतिज्ञ की है। जिसे मलिन न होने देने के लिये वे पूरी सतर्कता बरतते हैं। कुल मिलाकर मोदी का नैतिक इकबाल है जिससे वंचितों को उनके रूप में एक ज्यादा बेहतर विकल्प हासिल करने का एहसास हुआ है।
अब मोदी का मुकाबला तभी हो सकता है जब नैतिक आग्रहों में उनसे दो कदम आगे धर्म निरपेक्ष नेतृत्व सामने आये। इतिहास के अपने नियम हैं और काम करने के अपने तरीके। सामाजिक न्याय इतिहास की जरूरत थी जिसके लिये बाबा साहेब से कांशीराम तक उसने मैन आफ आइडिया ईजाद किये। इतिहास के एक और उपकरण वीपी सिंह बने। बर्बर और धूर्त सवर्ण सत्ता का मुकाबला करने के लिये इतिहास को साम, दाम, दण्ड, भेद हर तरीके से अपनी जीत के लिये कोई कसर न छोडऩे वाले मुलायम सिंह और मायावती जैसे नेताओं की जरूरत थी लेकिन अब यह लोग अपनी-अपनी भूमिका निभा चुके हैं। सो प्रगति की शक्तियों को आगे बढऩे के लिये नये क्षितिज की तलाश है जिसके क्रम में मोदी का उदय हुआ है। यह इतिहास के न्याय की इस बात की तार्किक परिणति होगी कि न केवल सामाजिक अन्याय की व्यवस्था को अप्रासंगिक किया जाये बल्कि व्यापक धार्मिकताओं वाले इस देश में ऐसा नेतृत्व स्थापित हो जो किसी संप्रदाय के लोगों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने जैसी कुत्सित मानसिकता से मुक्त होकर कार्य करता हो। कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी…….। भारत एक निराला देश है जिसका माडल सबसे जुदा है। धार्मिक साहचर्य के इस माडल का दुनिया में कोई जवाब नहीं है। यह माडल मुगलों के समय यानि मुस्लिम राज्य में बना था जो नये हिन्दुस्तान की पहचान बन गया। आज सारी दुनिया में बाजार प्रकृति की व्यवस्था के सिद्घान्त को दरकिनार कर एक रूपी व्यवस्था कायम करने की शातिर चालें आगे बढ़ा रहा है। इस मुकाम पर विविधतायें किस प्रकार से खूबसूरत शांतिपूर्ण सह अस्तित्व का नमूना बन सकती हैं इस स्वप्न को साकार करके यह देश पूरी दुनिया के लिये एक नजीर बनेगा इस बात का विश्वास किया जाना चाहिये।

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