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कारपोरेट के औजार के रूप में मीडिया

मुक्त विचार
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भारत में संवैधानिक रूप से अभी भी मीडिया को विशेष दर्जा और अलग संरक्षण प्राप्त नहीं कराया गया लेकिन इसके बावजूद हाल के कुछ वर्षों में उसकी ताकत सुपर सत्ता के रूप में उभरी है। विशेष रूप से केजरीवाल के राजनैतिक कैरियर को नष्ट करने के लिये उसके द्वारा चलाये गये दुर्भावनापूर्ण अभियान और मोदी को राजनीतिक क्षेत्र में महानायक के रूप में स्थान दिलाने की उसकी जोरदार मुहिम को जो कामयाबी मिली उसके बाद तो राजनीतिक प्रतिष्ठान से लेकर हर कोई उसके सामने नतमस्तक है। विभिन्न क्षेत्रों के शक्ति पुरुष अब खुलेआम यह स्वीकारते हैं कि मीडिया से विरोध मोल लेकर किसी के लिये अस्तित्व बचा पाना मुश्किल है। माना जाता है कि मीडिया के माध्यम से जनमत की अभिव्यक्ति होती है जिसके कारण मीडिया की ताकत का बेइंतहा बढऩा लोकतंत्र की मजबूती के लिये सुखद लक्षण है।
मीडिया को लेकर यह धारणा किसी समय सही थी लेकिन तबसे देश की नदियों में न जाने कितना पानी बह चुका है। पुराने दौर में जबकि जनमत की बदलाव की आकांक्षा के प्रतिनिधि चरित्र वाले लोग पत्रकार बनते थे, बदलाव के लिये इन बेचैन आत्माओं की अखबारों में स्वतंत्र सत्ता होती थी भले ही अखबार में पूंजी किसी धन्ना सेठ की लगी हो। लेकिन जैसे-जैसे मीडिया बड़े पूंजी निवेश के उद्योग में तब्दील होती गयी यह स्थितियां बदलती गयीं। मीडिया आज कारपोरेट का हथियार है। पत्रकारिता से बेचैन आत्मायें बेदखल हो चुकी हैं। उनकी जगह कैरियर की तलाश में भटकते गढ़े हुए पत्रकारों ने ले ली जिनका अपना कोई वैचारिक व्यक्तित्व नहीं है। वे लोग एक औद्योगिक कर्मी के रूप में काम कर रहे हैं। यही कारण है कि आज मुख्य धारा की मीडिया में अपनी पहचान वाले पत्रकारों का अभाव है। संपादक से लेकर रिपोर्टर तक वे लोग हैं जो मात्र मालिकान के टूल बनकर काम करने के अभ्यस्त हैं।
कारपोरेट जगत का इस बीच में सर्वसत्तावादी चरित्र उभरा है। इससे लोकतंत्र कराह रहा है। वीपी सिंह के बाद राजनीति में जो दौर शुरू हुआ उसमें सरकार की संप्रभुता छद्म बनकर रह गयी। सरकारें कारपोरेट की बंधक बन गयीं। यह लोकतंत्र का मजाक है।
जनमत और सरकारों को नियंत्रित करने के लिये मीडिया आज कारपोरेट के रिमोट कंट्रोल की शक्ल में है। मीडिया चुनाव में प्रोपोगेंडा वार छेड़कर जनमत की वास्तविक अभिव्यक्ति को पस्त कर देता है। सरकार बनने के बाद कारपोरेट जगत अपने मुताबिक नीतियों का निर्माण कराने के लिये मीडिया के माध्यम से सत्ता के दिशा निर्देशक की भूमिका निभाता है। इस कारण मीडिया को सर्वोपरि मानने का मतलब एक गरिमामय पेशे के प्रति श्रद्घा निवेदित करना या पत्रकारों की हैसियत को मान्यता देना नहीं है बल्कि कारपोरेट के आगे समर्पण करना है।
लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है जो हर नागरिक को अधिकार संपन्न बनाती है। लोकतंत्र को पंगु करने का अर्थ है लोगों को अधिकारविहीन करने की साजिश। इस साजिश के परिणाम सामने आने लगे हैं। काम के लिये उचित मेहनताना, शिक्षा, इलाज, आवास, यहां तक कि हवा और पानी जैसे अधिकार से वे लोग धीरे-धीरे वंचित किये जा रहे हैं जो क्रय शक्ति खो चुके हैं। बहुसंख्यक जनता के लिये यह अंधकारमय भविष्य का संकेत है। लेकिन मीडिया में इन मानव विरोधी व्यवस्थाओं की बढ़ती जकड़ पर प्रहार करने वाले विश्लेषणात्मक लेख व खबरें आना बंद हैं। मीडिया और लोगों के बीच पाठक, श्रोता अथवा दर्शक का जो लगावपूर्ण रिश्ता था वह खत्म किया जा चुका है। अब लोग इसके लिये उपभोक्ता या ग्राहक हैं जिन्हें लुभाने के लिये सामग्री का तोड़ मरोड़ कर सजावटी प्रस्तुतीकरण मीडिया की अनिवार्य शैली बन गयी है। दूसरे उसका लक्ष्य बाजार के उत्पादों के संवाहक के रूप में आपकी भूमिका का बेहतर ढंग से निर्वाह करना है। प्रसार बढ़ाने के लिये कंटेंट का नहीं मार्केटिंग की रणनीति का सहारा लिया जा रहा है। जड़ों तक मीडिया अपनी घुसपैठ करना चाहता है ताकि वह बाजार के लिये उसे भी निचोड़ सके जो उत्पाद खरीदने की लालसा पूरी करने के लिये अपना खून बेचने के अलावा कोई चारा न देखता हो। इसी वजह से कभी मीडिया में खबर छपती है कि शराब से कितनी घातक बीमारियां पनपती हैं तो कभी शराब कंपनियों द्वारा विज्ञापन लुटा देने पर विशेषज्ञों के नाम से शराब से सेहत के लिये फायदे गिनाये जाने लगते हैं।
मीडिया के इस स्वरूप का समर्थन किसी भी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। इस कारण औद्योगिक मीडिया के बारे में एक अलग से नीति बनानी पड़ेगी। मीडिया के क्षेत्र में पूंजी निवेश को सीमित करना इसका एक विकल्प हो सकता है। 24 घंटे के चैनल देश या समाज का कोई भला नहीं करते। सूचना की भी भूख मौलिक है लेकिन इतनी सूचनायें परोसने का कोई औचित्य नहीं है जिससे जनचेतना को अपच हो जाये। 24 घंटे के प्रसारण की आड़ में सब ज्यूडिस मामलों पर स्टूडियो टाक के कार्यक्रम आयोजित कर न्यायिक विवेक को प्रभावित करने का काम होता है तो चुनाव के दिनों में दल या व्यक्ति विशेष के पक्ष में माहौल बनाने का काम। पूंजी निवेश की सीमा तय होगी तो 24 घंटे के चैनलों का टाइम सिकुड़ेगा और जनचेतना पर मनमानी सूचनाओं की बमबारी रुकेगी। इसके अलावा श्रमजीवी पत्रकारों द्वारा संचालित जन मीडिया को पनपने की गुंजाइश बनायी जानी चाहिये। आज महंगी लाइफ स्टायल का असर सभी पर है लेकिन पत्रकारिता सरफरोशी की तमन्ना वाली विधा है। इसमें आना है तो कठिन जीवन का व्रत निभाना ही पड़ेगा। ऐसी सोच स्पष्ट की जानी चाहिये। पत्रकारों का बहुत ज्यादा सुविधा भोगी होना ही उनकी शक्ति के क्षरण का कारण बना है। मीडिया पर अंकुश लोकतंत्र और देश की संप्रभुता को बचाने के लिये जरूरी होता जा रहा है।

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